scorecardresearch
Monday, 2 December, 2024
होममत-विमतएक बेताज रानी के काल्पनिक साम्राज्य से जुड़ी जंग का नतीजा है — मणिपुर की हिंसा

एक बेताज रानी के काल्पनिक साम्राज्य से जुड़ी जंग का नतीजा है — मणिपुर की हिंसा

आठ साल पहले, भारत की नयी सरकार ने जब नगालैंड में विद्रोह को हमेशा के लिए खत्म कर देने का फैसला किया तो उसने ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ विद्रोह की बेताज नेत्री गैडिनलिउ के स्मारक का निर्माण करने की घोषणा की.

Text Size:

एक इतिहासकार ने लिखा है “लुंगकाओ गांव में एक कन्या का जन्म हो रहा था और गांव के ऊपर पांच रातों और पांच दिनों तक बिजली कड़कती रही थी. भुबन गुफा की देवी चेरचामुंडिनलिउ ने मनुष्य का रूप धरने के लिए कारोटलेनलिउ के गर्भ में प्रवेश कर लिया था. जन्म लेने वाली इस कन्या ने किशोरावस्था में आकर वास्तव में एक साम्राज्य को हिला कर रख दिया. किंवदंतियां कहती हैं कि इस लड़की को जेल में डाल दिया गया, जेल के पहरेदारों ने उसे यातना देने के लिए उसकी कोठरी में सांप-बिच्छू छोड़ दिए लेकिन वह उलटे उन जहरीले जीवों के साथ खेलने लगी.”

आठ साल पहले, भारत की नयी सरकार ने जब नागालैंड में विद्रोह को हमेशा के लिए खत्म कर देने का फैसला किया तो उसने ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ विद्रोह की बेताज नेत्री गैडिनलिउ की प्रतिमा और स्मारक का निर्माण करने की घोषणा की थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि गैडिनलिउ को “जानबूझकर भुला दिया गया”.

पत्रकार मेकपीस सिथौ ने खबर दी कि इस योजना के विरोध में कोहिमा में प्रदर्शन शुरू हो गए, ताकतवर नगा संगठनों ने सरकार पर आरोप लगाया कि वह राजी के इतिहास पर हिंदू-राष्ट्रवादी रंग थोपने की कोशिश कर रही है. गैडिनलिउ की प्रतिमा अंततः स्थापित की गई मगर सैकड़ों मील दूर इंफाल में, जहां स्थानीय हिंदू मैतेई समुदाय का वर्चस्व है.

मणिपुर में जबकि बर्बर जातीय संहार जारी है, गैडिनलिउ का स्मारक उस प्रिज्म का काम कर रहा है जिसमें से भविष्य साफ नज़र आ रहा है. 1970 के दशक के मध्य से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने पूरे उत्तर-पूर्व में एक राष्ट्रवादी चेतना जगाने का काम शुरू कर दिया था और उपनिवेशवादी शासन के खिलाफ स्थानीय विद्रोहों को स्वतंत्रता संग्राम का प्रामाणिक आधार बताना शुरू कर दिया था.

लेकिन नगालैंड के ताकतवर राजनीतिक संगठनों को यह सब अपने राष्ट्रीय राजनीतिक तथा धार्मिक अनुभवों पर हमला लग रहा था. उनका कहना है कि मणिपुर में जो संघर्ष चल रहा है वह केवल कूकी और मैतेई समुदायों का आपसी झगड़ा नहीं है, मैतेई चर्चों को भी ध्वस्त किया गया है. वहां मैदानी क्षेत्रों और पहाड़ी इलाकों की अपनी-अपनी आस्थाओं के बीच भी टक्कर है. यह शांति कायम करने के प्रयासों को और मुश्किल बनाने में गहरी भूमिका निभाता है.

उस बेताज रानी का साम्राज्य कहां था? उसके रिआया कौन थे, कम-से-कम यादों में ही सही?


यह भी पढ़ें: ‘संरक्षक’ या ‘उपद्रवी’? मणिपुर में कुकी-मैतेई संघर्ष के बीच ‘मीरा पैबिस’ या ‘मैतेई मॉम्स’ की भूमिका


अनचाही आज़ादी

इतिहासकार जॉन थॉमस का विषाद ग्रंथ हमें याद दिलाता है कि 15 अगस्त 1947 कोहिमा के लिए जश्न मनाने का दिन नहीं था. उस दिन वहां की दीवारों पर पोस्टर चिपकाए गए थे जिनमें भारतीयों से वह क्षेत्र छोड़ कर चले जाने की मांग की गई थी. जिस परेड ग्राउंड में डिप्टी कमिश्नर चार्ल्स पावसे ने भारतीय झण्डा फहराया वह सुनसान पड़ा था. इसके चार साल बाद नगा नेशनल काउंसिल (एनएनसी) ने अपनी तरफ से रायशुमारी करवाई, इसके लिए फॉर्मों को गोल बनाकर बांस के अंदर डालकर गांव-गांव भेजा गया.

हालांकि महात्मा गांधी आज़ादी की नगाओं की मांग पर छूट देने के पक्ष में थे मगर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इसके पक्ष में कतई नहीं थे : “भारत को सैकड़ों टुकड़ों में नहीं बांटा जा सकता. अगर आप लड़ेंगे, तो हम भी मुक़ाबला करेंगे.”

असम आर्म्ड पुलिस टी. सकरिए सरीखे बड़े नेताओं की गिरफ्तारी के वारंट लेकर नगा इलाकों में पहुंच गई. जाखामा, किग्वेमा, फेसामा गांवों को जला दिया गया. खोनोमा गांव का भी यही हाल हुआ. बड़े नौकरशाह वाइ.डी. गूंदेविया को कोई पछतावा नहीं था, “इससे पहले इस तरह की घटनाओं से निबटने का एक ही तरीका था, गांव को भारी संख्या में सुरक्षा बलों के साथ घेर लो, जरूरी हो तो हमला करो, हत्या करो और गांव को जला डालो. मैं सापेक्षवादी हूँ इसलिए मुझे ब्रिटिश मानदंडों से कोई परेशानी नहीं है.”

आगे के दशकों में जब विद्रोह अपरिहार्य रूप से तेज हुआ, तो युद्ध की विभीषिकाएं उस क्षेत्र के मन पर खुद गईं. जुलाई 1954 में चिंगमेई में बच्चों समेत कई लोग मारे गए; बचाकर येंगपांग लाई गईं 60 महिलाओं और बच्चों की हत्या कर दी गई. इसके बाद जो भीषण हिंसा हुई उसका विवरण नंदिता हकसर और लुइठुई लुइंगम ने अपनी किताब ‘नगालैंड फाइल : अ क्वेश्चन ऑफ ह्यूमन राइट्स’ में दिया है. इस हिंसा में बागियों के शवों को सदने के लिए छोड़ दिया गया, भीषण यातनाएं दी गईं, बलात्कार और फटाफट हत्या की वारदात हुईं.

तेजतर्रार खुफिया अधिकारी एस.एम. दत्त ने समझ लिया कि ज़ोर-जबरदस्ती से विद्रोह नहीं रुकने वाला है. उन्होंने एनएनसी के असंतुष्टों से संपर्क बनाने की कोशिश की जिसमें थोड़ी ही सफलता मिली. सवाल यहा था कि भारत के पास अपने पूर्वी दरवाजे पर दावा करने के लिए क्या राजनीतिक विचार था?


यह भी पढ़ें: AK-47 से कार्बाइन तक, लूटे गए 3,422 हथियार अब भी लोगों के पास, ‘रिकवरी तक मणिपुर में हिंसा नहीं होगी खत्म’


भगवान और सरकार

19वीं सदी के अंत से अमेरिकी बाप्तिस्त मिशनरियों के छोटे-छोटे समूह नगा पहाड़ियों में पहुंचने लगे थे और वे वहां की जनजातीय आबादी का धर्मांतरण करवाने में लग गए थे. भारत को ऐसा साफ लग रहा था कि नगा लोग भारत सरकार के खिलाफ जो विद्रोह कर रहे हैं उसके पीछे इन मिशनरियों का भी हाथ है. सेवानिवृत्त जज एम. भवानी शंकर नियोगी की अध्यक्षता वाली सरकारी कमिटी ने भारत को अस्थिर करने की साजिश से सावधान रहने की चेतावनी दी, कहा कि “कुछ स्थानों पर मिशनरियों का आंदोलन जिस तरह चल रहा है उसका शीतयुद्ध के राजनीतिक मकसद से साफ संबंध दिखता है.”

नेहरू की पहल से मिशनरियों की गतिविधियां बंद हुईं. लेकिन नेहरू स्थानीय धार्मिक प्रथाओं का संरक्षण चाहते थे. एंथ्रोपोलॉजिस्ट रिचर्ड ईटन के अनुसार, 1947 के बाद इस क्षेत्र में केवल आठ विदेशी मिशनरी परिवार बचे थे और उनकी गतिविधियों में काफी कटौती कर दी गई थी.

लेखक आर्कोतांग लॉन्गकुमर ने उत्तर-पूर्व में हिंदुत्व विषय पर अपनी विषाद पुस्तक में लिखा है कि हमें यह पूरी तरह नहीं समझ में आ पाया कि मिशनरियों की प्रत्यक्ष हिस्सेदारी में कमी आने के बाद ईसाई धर्म अपनाने की घटनाओं में नाटकीय वृद्धि क्यों हुई. बड़े पैमाने पर वापसी, जिसमें धर्म परिवर्तन करने वालों ने दूसरी बार बपतिस्मा ली और उन्हें रहस्यमय अनुभव हुए, जैसे अनुभव आओ, लोथास, अंगामी और चकेसांग जनजातीयों में देखे गए.

आक्रोशित धार्मिक भविष्यवाणियां, जिनमें से कई ने जल्दी ही नगा आजादी मिलने की बात की थी, बगावत विरोधी क्रूर भारतीय कार्रवाइयों की प्रतिक्रिया का फल रही होंगी. बागियों की मदद करने का शक जिन 12 लोगों पर किया गया था उन्हें सितंबर 1960 में यातनाएं देकर उनका सिर कलम कर दिया गया, यह बर्बर यातनाएं देने की उन घटनाओं में शामिल है जिनका विवरण हकसर तथा लुइठुई न अपनी किताब में दिया है. समुदाय को बागियों से दूर रखने के लिए सेना ने जो नये गांव बनाए थे उनमें लोग भुखमरी के शिकार होने लगे थे.

नगा नेशनलिस्ट विद्रोह के नेता अंगाज़्मी जापू फ़िज़ो ने 1962 में चीनी सेना से लड़ने के लिए 50,000 सैनिक देने की पेशकश की थी, जिसकी अनदेखी कर दी गई. खुफिया ब्यूरो (आइबी) ने अपने क्षेत्रीय डिप्टी डाइरेक्टर दत्त के नेतृत्व में स्थानी नेताओं से वार्ता शुरू की थी. इस पहल में चर्च और भारत सरकार, दोनों को वामपंथी झुकाव वाले बागियों से मिल रहे खतरे पर ज़ोर दिया गया था.

एनएनसी के महासचिव टी.एम. मुइवा और ब्रिगेडियर टी.एम. केयहो के नेतृत्व में बागियों का एक गुट गतिरोध को तोड़ने के लिए प्रशिक्षण लेने चीन चला गया. गुरप्रीत सिंह और रजिन्दर सिंह संधि ने अपनी किताब ‘नगा सेपरेटिज्म इन इंडिया ऐंड रोल ऑफ एक्सटर्नल पावर्स’ में लिखा है कि इस मिशन से चीनी सेना से हथियारों की अनियमित सप्लाई हो सकती थी. लेकिन नगा बागियों में ईसाइयत की भावना ने सैद्धांतिक सहयोग मुश्किल बना दिया. ल्लोंग्री आओ और एल. किजुंगलुबा जैसे नेताओं ने चर्च के मंच से साम्यवाद की आलोचना का जिम्मा सँभाल लिया. चेतावनी दी गई कि चीन से प्रशिक्षित नये नास्तिक तो चर्चों को जला देंगे.

भारत सरकार और चर्च के बीच बनी यह नयी दोस्ती खुल कर सबके सामने आ गई. 1972 में, अमेरिका के प्रभावशाली ईसाई टीवी प्रचारक बिली ग्राहम ने कोहिमा में हजारों की भीड़ को संबोधित किया. उनके भव्य कार्यक्रम में दिए गए भाषणों का 14 नगा भाषाओं में अनुवाद भी साथ-साथ प्रस्तुत किया गया. बताया जाता है कि उस कार्यक्रम में करीब 10 लाख लोग शरीक हुए थे.

अमन के असफल और सफल पैरोकार

चर्च और सिविल सोसाइटी के ताकतवर तत्वों के बीच बने नये गठबंधन ने कई केंद्रीय मसलों को भले गाउ बना दिया लेकिन इसने एक समझौते का आधार भी तैयार किया. 1960 में, नगालैंड राज्य के गठन के एक समझौते की बात बनी और ऐसी व्यवस्था बनाने की कोशिश शुरू हुई जिसके जरिए मणिपुर में रह रहे नगा भी इस संस्था में प्रतिनिधित्व हासिल कर सकें. भारत ने म्यांमार से भी संपर्क बनाना शुरू किया ताकि उसके यहाँ से सक्रिय बागी गुटों को फिर से जोड़ने का रास्ता निकाला जा सके.

लेकिन हिंदू राष्ट्रवादियों के लिए यह एक अधूरा समाधान था. उसके मुताबिक चाबी तो रानी गैडिनलिउ के पास थी.
गैडिनलिउ और उसके भाई जड़ोनांग मलंगमेई के नेतृत्व में 1931 में जो विद्रोह हुआ था उसने नगा शिकायतों को टैक्सों, जबरन मजदूरी, सेना में अनिवार्य भर्ती, ऊंची जाति के हिंदू अफसरों की बदसलूकी के इर्दगिर्द केन्द्रित किया था. नेहरू ने रानी गैडिनलिउ को जेल से रिहा करवाया, और वह घर लौट गई. लेकिन नये राज्य मणिपुर ने उसके क्षेत्र जेलियांग्रोंग के साथ रियायत नहीं की. रानी गैडिनलिउभूमिगत हो गई और इस दौरान उसके नये धर्म ‘हेराका’ ने मजबूती और स्वरूप हासिल कर लिया.

गैडिनलिउ और आरएसएस के समर्थकों के लिए आगे रास्ता हिंदू सभ्यता के लोकाचारों के बीच से गुजरता है. दूसरे नगाओं के लिए, उनकी परंपराओं और पहचान की रक्षा तभी हो सकती है जब उनके और मैदानी क्षेत्र की विशाल आबादी के मानदंडों तथा संस्कृतियों के बीच दीवार खड़ी की जाएगी.

2018 के बाद से इन दो दृष्टिकोणों के बीच टकराव तीखा होता गया है. 2018 में मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. बिरेन सिंह ने उत्तरपूर्व को ‘महाभारत’ की कथा से जोड़ते हुए दावा किया था कि वह कृष्ण के परिवार से जुड़ा है क्योंकि उनकी पत्नी रुक्मिणी उत्तरपूर्व की राजकुमारी थीं. अरुणाचल प्रदेश में उसके स्थानीय देवता रांगफ्रा को शिव के महा आख्यान से जोड़ने की कोशिश हो रही है.

समा लेने और स्वायत्त रखने का द्वंद्व सभी बहुलतावादी समाजों में जारी रहता है लेकिन मणिपुर का जनसंहार यही सीख देता है कि जब मनुष्य के आदिम आवेग राजनीति और सत्ता के साथ उलझ जाते हैं तब जनसंहार ही हासिल होता है.

(संपादन: पूजा मेहरोत्रा)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: 1984 के दंगों के CTC से लेकर मणिपुर हिंसा की खबरों तक — दिप्रिंट को आलोचना से ज्यादा तारीफें मिलीं


 

share & View comments