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Sunday, 17 November, 2024
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‘विश्व गुरु’ आईने में अपना चेहरा देखें: दंगों और बुलडोजर से भारत की प्रतिष्ठा नहीं बढ़ेगी

आलोचनाओं पर आग बबूला होकर क्या हम अपनी नैतिक प्रतिष्ठा बढ़ा सकते हैं? पक्षधर लोग तो आपके लिए तालियां बजाएंगे, मगर इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपने भीतर झांकने की सलाहियत खो दें. या अपने शुभचिंतकों की बातों पर ध्यान न दें.

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विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने दो मसलों पर हुई आलोचना का तल्ख जवाब देकर देश में कुछ लोगों को खुश कर दिया है. ये दो मसले हैं— रूस से और ज्यादा तेल खरीदने का फैसला और भारत में मानवाधिकारों की स्थिति. पहले मसले पर हुई आलोचना का विदेश मंत्री ने करारा जवाब दिया. 2+2 मीटिंग के बाद प्रेस कांफ्रेंस में इस मसले पर सवाल पूछने वाले को उन्होंने याद दिलाया कि यूरोप ने रूस से एक दोपहर को जितना तेल खरीदा उतना भारत ने एक महीने में खरीदा है. शानदार जवाब.

दूसरे मसले पर उनका जवाब थोड़ी देर से आया और वह शुद्ध लफ्फाजी थी. इसलिए आश्चर्य नहीं कि देश में उनके चहेतों ने इसे खूब पसंद किया. अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने भारत में मानावाधिकारों की स्थिति का गैर-जरूरी सा जिक्र करते हुए चिंता जाहिर की. दशकों तक कूटनीति करके पारंगत हो चुके जयशंकर ने इसका तुरंत जवाब नहीं दिया क्योंकि रणनीतिक एकता और गर्मजोशी के प्रदर्शन के लिए आयोजित समारोह में ऐसा करने से प्रतिकूल खबरें बन सकती थीं.

लेकिन बाद में एक आयोजन में जयशंकर ने इसका जवाब देते हुए कहा कि उस वार्ता में मानवाधिकार पर चर्चा नहीं हुई. हिसाब बराबर करने के लिए उन्होंने यह भी कहा कि अमेरिका में मानवाधिकारों की स्थिति को लेकर भारत को भी कभी-कभी चिंता होती है, खासकर तब जब वहां इसके कारण भारतीय मूल के लोग प्रभावित होते हैं. उनके इस जवाब पर, उम्मीद के मुताबिक इस तरह की प्रतिक्रिया आई कि ‘देखा?, अमरीका को सुना दिया !’. आखिर देश को एक ऐसा मंत्री मिल गया है जिसमें गज़ब का आत्मविश्वास है. यह सब तो ठीक है, मगर मुद्दा क्या यही है? क्या शीर्ष स्तर की अंतरराष्ट्रीय कूटनीति टीवी पर होने वाली बहसों सरीखी होगी, भले ही वह सभ्य किस्म की हो.

यह भी सच है कि अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों को जब-जब निशाना बनाया गया, जैसे हाल में सिखों को निशाना बनाया गया, तब-तब भारत ने आवाज़ उठाई. लेकिन भारत ने अपने बचाव में यह जो आक्रामकता दिखाई है और उस पर जो जोशीली प्रतिक्रियाएं हुई हैं उनमें मूल मुद्दा ओझल हो गया है. सबसे पहली बात तो यह है कि यह दोस्तों के बीच की बातचीत थी. अंतरराष्ट्रीय संबंधों में दोस्ती में एक-दूसरे की थोड़ी आलोचना भी चलती है, बशर्ते आप पाकिस्तान, रूस या संपूर्ण ‘ओआईसी’ से लेकर चीन न हों.


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भारत और अमेरिका के बीच दशकों तक तू-तू मैं-मैं चलती रही है. 1950 वाले दशक में नेहरू ने चीन, कोरिया और साम्यवाद के बारे में आइजनआवर को उपदेश दिया था. यहां तक कि राजीव गांधी अमेरिका की शुरुआती सद्भाव यात्राओं के दौरान राष्ट्रपति रीगन से मिले थे और शिखर वार्ता के बाद प्रेस ब्रीफिंग में एक दिलचस्प घटना घटी थी. बताया जाता है कि राजीव ने टेबल पर रखे भुने बादामों में से एक-दो बादाम उठाते हुए कहा था कि उन्हें ये बहुत पसंद हैं. रीगन ने इस पर कहा था कि वे बादाम उनके राज्य कैलीफोर्निया के हैं और आपके हिसाब से हम कब इसे आपके देश में बेच पाएंगे? उस बातचीत में उठे सवाल का अभी तक जवाब नहीं दिया गया है.

मानवाधिकारों से लेकर व्यापार और अफगानिस्तान पर लगाए गए प्रतिबंधों तक कई मुद्दों पर भारत और अमेरिका ने आपसी रणनीतिक मैत्री के इस दौर में भी असहमति जताई है, जो मैत्री करगिल युद्ध के बाद से विकसित होती गई है. एक दशक पहले तक वे इस बात पर लड़ रहे थे कि अमेरिका ने पाकिस्तान को हथियार देना क्यों जारी रखा है, खासकर तब जब 2010 में पाकिस्तानी वायुसेना के एफ-16 विमानों के लिए हवा से हवा में मार करने वाली ‘एमराम’ मिसाइलों की पहली खेप भेजी गई थी. या हाल में जब भारत ने रूसी एस-400 मिसाइलों की खरीद की थी लेकिन दोस्तों को यह भी पता होता है कि मतभेदों का क्या करना है.

मानवाधिकारों का मसला पश्चिमी देशों के साथ भारत के रिश्ते में करीब तीन दशकों से, तबसे एक कांटा बना हुआ है, जब 1991 में कश्मीर में बगावत की शुरुआत हुई थी. पी.वी. नरसिम्हाराव की सरकार ने इसका सख्ती से मुकाबला किया, जैसा कि उसने पंजाब में आतंकवाद से भी किया था. पश्चिम के मानवाधिकार संगठनों ने बड़ी मुहिम चलाई. शीतयुद्ध में अपनी जीत की शुरुआती चमक के बीच इसने उनकी सरकारों को भी प्रभावित किया.

भारत की वैश्विक राजनीतिक पूंजी जितनी आज है उसके एक अंश के बराबर भी उस समय नहीं थी. राव ने बड़ी मजबूती मगर चतुराई से जवाब दिया था, जैसी कि उनसे उम्मीद थी.

उन्होंने आलोचना का जोरदार जवाब दिया था— हम एक लोकतांत्रिक देश हैं, हमारे यहां मीडिया और सामाजिक कार्यकर्ता स्वतंत्र हैं. राव ने पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित और पश्चिमी देशों द्वारा समर्थित प्रस्ताव को भी खारिज करवाया. लेकिन उन्होंने कश्मीर की यात्रा करने पर विदेशी पत्रकारों पर राज्यपाल जगमोहन द्वारा लगाई गई रोक को भी खत्म किया और जस्टिस रंगनाथ मिश्र की अध्यक्षता में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) का गठन भी किया. जब हमारे यहां ही यह आयोग है तो विदेशी आयोग का यहां क्या काम?

आज पूरी तस्वीर बदल गई है. 1990 के दशक में खासकर राष्ट्रपति क्लिंटन के पहले कार्यकाल में उग्र रहा अमेरिका आज दोस्त होने के बावजूद मानवाधिकारों के मुद्दे पर भारत की आलोचना तो कर रहा है मगर कश्मीर या पंजाब की बात नहीं कर रहा. माना जा रहा है कि इन दोनों मसलों का निपटारा हो गया है, जिनमें कश्मीर की संवैधानिक स्थिति को बदलना भी शामिल है. इसकी जगह वे भारत में अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों, एक्टिविस्टों और मोदी सरकार के आलोचकों के साथ हो रहे बर्ताव की बात कर रहे हैं, हालांकि ईसाई भी अमेरिकी मानस में दर्ज हैं.


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अपने जवाब में जयशंकर ने यह भी कहा कि भारत को बाइडन सरकार की ‘वोट बैंक’ वाली मजबूरियों का एहसास है. अमेरिका में बड़ा मुस्लिम अल्पसंख्यक समाज मुख्यतः डेमोक्रेटों को वोट देता है. इस पार्टी के अंदर का ‘प्रगतिशील’ गुट मुस्लिम वोटरों और उनके हितों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता रखता है. इसलिए हम उनके जवाब से समझ सकते हैं कि उनका इशारा किस तरफ है.

लेकिन आप यह तो नहीं ही चाहेंगे कि आपका ‘स्क्वाड’ यानी दस्ता ‘क्वाड’ को खराब करे. लेकिन क्या हमारा व्यापक राष्ट्रहित, हमारे राष्ट्र की हैसियत, दुनिया में उसकी इज्जत, आदि सब कुछ बहसों में जीत-हार से तय होंगे?

अब आप मेरी बातों में एक विरोधाभास की ओर इशारा करेंगे. तीन सप्ताह पहले ही मैंने कहा था कि राष्ट्रों की गंभीर रणनीति नैतिकता से नहीं बल्कि अपने हितों के आधार पर निर्धारित होती है. यह कोई विरोधाभास नहीं है क्योंकि भाजपा, इसके प्रधानमंत्री और इसकी सरकार और इसके वैचारिक गुरु आरएसएस भारत को ‘विश्वगुरु’ बनते देखना चाहता है, जैसे कि प्राचीन युग में कृष्ण और बुद्ध थे या हाल के इतिहास में स्वामी विवेकानंद और श्री अरविंद थे.

हमें दुनिया को उपदेश देना बहुत पसंद है. हमारा सुर यह होता है कि हमसे सीखो कि दुनिया में सबसे ज्यादा विविधताओं से भरी विशाल आबादी किस तरह एक शक्तिशाली लोकतंत्र में सद्भाव के साथ रह सकती है. हम लोकतंत्र (आखिर हम सबसे प्राचीन लोकतंत्र हैं. पश्चिम वालों, जरा वैशाली के नाम से गूगल सर्च कर लो), विविधता (हमने उस तरह अपने आदिवासियों का कत्ल नहीं किया जिस तरह तुमने नेटिव अमेरिकियों का किया) और समानता (हमारे यहां दासता कब थी? वह भी नस्ल के आधार पर?) पर भाषण देने का अधिकार रखते हैं.

लेकिन सवाल यह है कि क्या हमारा वर्तमान हमारी शानदार परंपरा से तालमेल खाता है? अगर हम अपनी सभी आलोचनाओं का जवाब आलोचक पर ही सवाल उठाने से देते रहेंगे तो क्या हम नैतिक श्रेष्ठता की महत्वाकांक्षा पाल सकते हैं? हमारे समर्थक बेशक हमारे लिए तालियां बजाएंगे लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अपने भीतर झांकने की, अपने मित्रों की बात सुनने की सलाहियत खो देंगे.

भारत से हाल के दिनों में रामनवमी के जुलूसों, मुसलमानों पर फब्तियां कसने, उनके घरों आदि पर बुलडोजर चलाने, 20 करोड़ की आबादी वाले समुदाय को ‘उपेक्षित’ करने की जो खबरें और तस्वीरें दुनिया भर में गई हैं वे लोकतांत्रिक विश्व के अखबारों के पहले पन्नों और टीवी के पर्दों को रंग रही हैं.

इसी मामले में हमारे अधिकतर समर्थक झूठ बोलते हैं. जैसा कि सीएए और एनआरसी और उनके कारण हुई हिंसा के मामले में हुआ था, इस बार भी मुस्लिम देशों में बांग्लादेश से लेकर सऊदी अरब और यूएई तक हमारे अहम दोस्त जल्दी ही असहज हो जाएंगे. इसलिए अपनी दिशा बदलने का यही समय है.

पुनश्च: आप भारतीय कूटनीतिकों पर हमेशा भरोसा कर सकते हैं कि वे किसी को भी बहस में पछाड़ सकते हैं, खासकर अंग्रेज़ी भाषा में. 1985 में, दोहरे उपयोग की टेक्नोलॉजी पर एक समझौता वार्ता करने जो प्रतिनिधिमंडल वाशिंगटन गया था उसमें मणिशंकर अय्यर भी शामिल थे. अमेरिकियों ने मसौदे में एक शब्द को बदल दिया तो भारतीय दल ने आपत्ति की. एक अमेरिकी ने कुछ मज़ाकिया अंदाज में कहा कि उसके जिस साथी ने यह बदलाव किया है वह हार्वर्ड में पढ़ चुका है इसलिए वह गलत नहीं हो सकता. मणि ने जवाब दिया कि उसने कैंब्रिज ‘मास’ (मैसाचुसेट्स के लिए इस्तेमाल किया गया जुमला) में पढ़ाई की होगी, मैं तो कैंब्रिज ‘इलीट’ में पढ़ चुका हूं. इसलिए अंग्रेजी भाषा के बारे में मैं जो कहता हूं वही सही है. अमेरिकियों को हथियार डालना पड़ा.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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