नरेंद्र मोदी सरकार ने कोविड-19 के वैक्सीन पर जिस राष्ट्रीय विशेषज्ञ कमिटी का गठन किया है वह जबकि इस वायरस के खिलाफ टीकाकरण की रणनीति पर विचार कर रही है, तब उसे व्यावहारिकता के नाम पर यथास्थितिवाद जैसी चीज़ से सबसे ज्यादा सावधान रहने की जरूरत है. भारत में यह सलाह देने वालों की कमी नहीं है कि अमुक काम क्यों नहीं करना चाहिए. हमें कहा जा रहा है कि भारत में न तो इन्फ्रास्ट्रक्चर है, न प्रशासनिक क्षमता है, न पैसे हैं कि वह सर्वव्यापी राष्ट्रीय टीकाकरण अभियान तेजी से चला सके.
दो सप्ताह पहले वित्तीय ब्रोकरेज फर्म स्टैनफोर्ड बर्नस्टीन की एक अनुसंधान रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि 60 प्रतिशत आबादी के टीकाकरण में 6 अरब डॉलर का खर्च आएगा और तीन साल लगेंगे. इसमें सरकार का हिस्सा 2 अरब डॉलर होगा, जिससे 30 प्रतिशत आबादी का टीकाकरण हो सकेगा. बाकी 30 प्रतिशत आबादी निजी तौर पर 4 अरब डॉलर खर्च करके टीकाकरण करवाएगी (क्योंकि सरकार 3 डॉलर की दर से वैक्सीन की खुराक खरीदेगी जबकि बाज़ार में यह 6 डॉलर की दर से मिलेगी).
यह अनुमान इस आधार पर लगाया गया होगा कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था प्रति वर्ष 6 करोड़ से लेकर 10 करोड़ तक टीकाकरण कर पाएगी. मेरे पास वह रिपोर्ट तो है नहीं लेकिन मीडिया में इसका जो संक्षिप्त रूप पेश किया गया है वह अगर सही है, तो इससे ऐसा लगता है कि भारत सरकार कोविड-19 की वैक्सीन को भी आम टीकाकरण प्रोजेक्ट की तरह लेने जा रही है. सरकार से इस निम्न स्तर की अपेक्षा के लिए काफी शंकालु होने की जरूरत है. इससे भी बुरी बात यह होगी कि अगर ऐसी ही निम्न स्तर की अपेक्षा लोगों के विमर्श में छा गई तो यह सार्वजनिक नीति में भी दाखिल हो जाएगी और आत्मतुष्टता को जन्म देगी.
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चुनाव की तैयारी में
मोदी सरकार निम्न स्तर की अपेक्षा को खारिज करे. कोविड-19 कोई खसरे की बीमारी नहीं है. यह वायरस दो पीढ़ियों में सबसे बड़े राष्ट्रीय संकट का स्रोत बनकर सामने आया है. इससे लड़ने की क्षमता हासिल करना भारत को आर्थिक संकट से उबरने के रास्ते पर लाने के लिए बेहद निर्णायक है. 2021 में केंद्र और राज्य सरकारों के लिए यही शायद सबसे महत्वपूर्ण चुनौती है. इसका अर्थ यह है कि भारत को चंद हफ्तों और महीनों में इतने लोगों का टीकाकरण करना ही होगा कि देश विकास के रास्ते पर तुरंत कदम बढ़ा सके. हम यह न सोचें कि इसमें कितने साल लगेंगे बल्कि यह सोचें कि कितने दिन लगेंगे.
भारत की 60 प्रतिशत आबादी का चंद महीनों में टीकाकरण कर देना बिलकुल मुमकिन है. ‘मिंट’ में मैं पिछले महीने लिख चुका हूं कि टीकाकरण की चुनौती तभी तक कठिन लगती है जब तक कि आप यह न सोचें कि भारत सरकार चुनाव करवाने के लिए इस पैमाने पर प्रायः साधन जुटाती है.
2019 के लोकसभा चुनाव में देशभर में 60 करोड़ से ज्यादा लोगों ने मतदान किया. चुनाव की तारीखों की घोषणा से लेकर नतीजों की घोषणा तक, चुनाव प्रक्रिया तीन महीने चली. इसमें 90 करोड़ मतदाताओं की पहचान मतदाता सूची के आधार पर की गई. हरेक मतदान केंद्र को मतदाता के करीब बनाने की कोशिश की गई. मतदाताओं की कतारों को संभाला गया, सभी व्यवस्थाएं सक्षम, सुरक्षित और भरोसेमंद बनाई गईं. जो देश और सरकार इतने बड़े पैमाने पर नियमित चुनाव करवाती रही हो, वह राष्ट्रव्यापी टीकाकरण अभियान भी इतने बड़े पैमाने पर और समय से पूरा करवा सकती है.
जी हां, हम तीन महीने में भारत में हर एक को टीका लगा सकते हैं.
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कोल्ड चेन
चुनाव करवाने और टीकाकरण, दोनों में प्रशासनिक और इंतजाम आदि की प्रक्रियाएं लगभग एक जैसी हो सकती हैं लेकिन उनमें एक मुख्य अंतर भी है. ईवीएम को सुरक्षित रूप में एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाना जरूरी है मगर उन्हें हमेशा ठंडक में रखने के लिए ‘कोल्ड चेन’ की जरूरत नहीं पड़ती. लेकिन वैक्सीन को सुरक्षा से ज्यादा एक खास तापमान पर रखते हुए एक जगह से दूसरी जगह ले जाने लायक वाहन और भंडार के रूप में ‘कोल्ड चेन’ की जरूरत पड़ती है. जितनी पक्की कोल्ड स्टोरेज की व्यवस्था की जरूरत होगी, उसकी लागत उतनी ही महंगी होगी. कुछ वैक्सीन को –70 डिग्री तापमान पर रखना होता है, जबकि ऑक्सफोर्ड/सेरम इंस्टीट्यूट की वैक्सीन को –20 डिग्री पर रखना होता है, जिस तापमान पर अधिकतर फ्रीजर काम करते हैं.
कोल्ड चेन के मसले को सुलझाना सबसे कठिन काम है क्योंकि इसका संबंध इन्फ्रास्ट्रक्चर से है. इसलिए जरूरी है कि अभी से कोल्ड चेन की व्यवस्था बनाने की शुरुआत कर दी जाए जबकि हम वैक्सीन के आने का इंतज़ार कर रहे हैं. वैसे भी वैक्सीन के लिए कोल्ड चेन बनाने में निवेश करना अच्छी बात है क्योंकि इससे सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को दूसरे वैक्सीन के वितरण में मदद मिलेगी. कई राज्यों में ‘इलेक्ट्रोनिक वैक्सीन इंटेलिजेंस नेटवर्क’ (ई-वीआईएन) पहले से मौजूद है. वैक्सीन के आने तक के इस समय का इस्तेमाल इस नेटवर्क को और मजबूत बनाने में किया जाना चाहिए.
चुनाव प्रक्रिया से टीकाकरण प्रक्रिया इस लिहाज से भी अलग है कि वैक्सीन की कई खुराक देनी पड़ती है और उसके बाद निगरानी भी रखनी पड़ती है. इसके लिए निम्न और उच्च किस्म की टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया जा सकता है. पहला टीका देने के बाद बायें हाथ की दूसरी उंगली पर और दूसरा टीका देने के बाद दायें हाथ की दूसरी उंगली पर पक्की स्याही लगाने का तरीका बेहतर हो सकता है. उच्च किस्म की टेक्नोलॉजी में ये चीजें की जा सकती हैं— लोगों को जागरूक करते हुए उनकी सहमति से उनकी निजता की रक्षा करते हुए और आधार कार्ड के प्रतीकात्मक प्रयोग से एक अस्थायी डेटाबेस बनाया जा सकता है. भारत इनमें से किसी विकल्प का इस्तेमाल कर सकता है. दरअसल, चुनाव में मतदाता की पहचान की ज्यादा सख्त प्रक्रिया अपनाई जाती है जबकि टीकाकरण में टीका लगवाने वाले की पहचान की वैसी प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती.
सबसे व्यापक और सबसे तेज टीकाकरण
क्या हमारे पास वैक्सीन की पर्याप्त खुराक होगी? अकेले सेरम इंस्टीट्यूट अपनी पूरी क्षमता से काम करे तो हर महीने 6-7 करोड़ खुराक दे सकता है. भारत के मैनुफैक्चरिंग आधार में लाइसेंस और उत्पादन की व्यापक व्यवस्था की जाए तो और भी ज्यादा खुराक मिल सकती हैं. इस बात के संकेत हैं कि सप्लाई में कोई अड़चन नहीं होगी, अगर होगी भी तो टीकाकरण का कार्यक्रम कुछ महीनों के लिए बढ़ाया जा सकता है, वर्षों के लिए नहीं.
क्या सरकार के पास पर्याप्त पैसा है? 50,000 करोड़ रुपये (6 अरब डॉलर) हमारी जीडीपी का महज 0.3 प्रतिशत है. इस संकट के समय में भी केंद्र सरकार इसके लिए सामान्य बजट से पैसा जुटा सकती है. टीकाकरण के जो जबरदस्त सकारात्मक परिणाम हो सकते हैं और टीकाकरण न करने के जो भारी नकारात्मक नतीजे हो सकते हैं उन्हें देखते हुए सरकार को इसके लिए खर्च करना ही चाहिए.
बड़े पैमाने पर टीकाकरण कार्यक्रम चलाने के लिए भारत के पास प्रशासनिक क्षमता भी है, अनुभव भी है और पैसा भी है. इसे चुनाव प्रक्रिया की तरह ‘मिशन’ के रूप में चलाया जाना चाहिए, जिसमें चुनाव आयोग और सरकारी स्वास्थ्य विभाग की विशेषज्ञता का प्रयोग किया जा सकता है. भारत दुनिया में टीकाकरण का सबसे बड़ा और सबसे तेज राष्ट्रीय कार्यक्रम चला सकता है और 80 फीसदी आबादी का चंद महीनों में टीकाकरण कर सकता है. इसके लिए पहली जरूरत है महत्वाकांक्षी लक्ष्य और ऊंची अपेक्षाओं की.
(लेखक लोकनीति पर अनुसंधान और शिक्षा के स्वतंत्र केंद्र तक्षशिला संस्थान के निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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