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Thursday, 9 May, 2024
होममत-विमतटीआरपी के लिए रिया चक्रवर्ती का टीवी ट्रायल दिखाता है कि ट्राई को क्यों ब्रॉडकास्टरों के आर्थिक रेगुलेशन को बंद कर देना चाहिए

टीआरपी के लिए रिया चक्रवर्ती का टीवी ट्रायल दिखाता है कि ट्राई को क्यों ब्रॉडकास्टरों के आर्थिक रेगुलेशन को बंद कर देना चाहिए

अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में रेगुलेटर न तो टीवी चैनलों के आर्थिक नियम तय करने की प्रक्रिया में दखल देते हैं और न उनकी कीमतों की सीमाएं तय करते हैं. भारत में ‘ट्राई’ को भी यही करना चाहिए.

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पिछले तीन सप्ताह से भारत के टीवी समाचार चैनल सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय मौत और उसकी जांच की कहानियों के पीछे हाथ धोकर पड़े हुए हैं. हर रात प्राइम टाइम पर सारे एंकर राजपूत और उनकी साथी रिया चक्रवर्ती की ज़िंदगी के छोटे-से-छोटे ब्योरे की चीड़फाड़ में जुट जाते हैं. यह कोई रहस्य नहीं है कि उनकी सुई इसी पर इसलिए अटकी है क्योंकि इससे उनकी टीआरपी बढ़ती है. टीआरपी से ही यह पता चलता है कि किन टीवी प्रोग्रामों को सबसे ज्यादा देखा जा रहा है. टीआरपी से चैनलों की विज्ञापन से कमाई भी तय होती है. सनसनीखेज खबरों से ऊंची टीआरपी मिलती है और विज्ञापनों से ऊंची कमाई होती है.

ब्रॉडकास्टरों की लगभग 70 प्रतिशत कमाई विज्ञापनों से ही होती है. इस तरह की निर्भरता का नतीजा एक ऐसे दुष्चक्र के रूप में होता है जिसमें अच्छे प्रोग्राम की जगह ऐसे प्रोग्राम बनाने पर ज़ोर दिया जाता है जिन्हें ज्यादा दर्शक मिलें. ‘टेलिकॉम रेगुलेटरी ऑथरिटी ऑफ इंडिया’ (ट्राई) 2004 से टीवी प्रसारण का जिस तरीके से नियमन करता रहा है उसी के कारण ग्राहकों से प्राप्त की गई आय और विज्ञापन से आय के बीच का यह असंतुलन बना हुआ है. ‘कोअन एडवाइजरी’ की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार, ट्राई जिस तरह नियमन कर रहा है उसमें कुशलता की कमी है, जो 900 से ज्यादा टीवी चैनलों के प्रतिस्पर्द्धी ‘कंटेंट मार्केट’ (कार्यक्रमों) पर लगाम कसने की तरकीबों के रूप में सामने आती है.


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नियमन का नया विवादास्पद ढांचा

मार्च 2017 में ट्राई ने तीन नियम जारी किए थे— इंटरकनेक्शन से संबंधित नियम, सेवाओं के गुणवत्ता स्तर से जुड़े नियम और शुल्कों से संबंधित नियम. इन नियमों को मिलाकर यह ‘नया नियमन ढांचा’ (एनआरएफ) बना. पांच महीने तक इस पर सार्वजनिक विचार-विमर्श के बाद ट्राई ने एनआरएफ को अंतिम रूप दिया जिसके तीन मुख्य लक्ष्य बताए गए— टीवी पर विविध कार्यक्रम आएं जो उत्तम भी हों, कार्यक्रम देने वालों तथा डिस्ट्रीब्यूटरों के व्यवसायिक कारोबार में पारदर्शिता हो और उपभोक्ताओं से न्यायसंगत दरें वसूली जाएं. इसके तुरंत बाद डीटीएच ऑपरेटर टाटा स्काई और भारती टेलीमीडिया लि. (एअरटेल) ने एनआरएफ की वैधता को चुनौती देते हुए दिल्ली हाई कोर्ट में याचिकाएं दायर कर दीं.

टाटा स्काई का कहना था कि ट्राई के कदम ‘अतिवादी और उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर’ हैं. लेकिन ट्राई ने मार्च 2019 में एनआरएफ को लागू कर दिया. जनवरी 2020 में उसने इस ढांचे में और फेरबदल किए जिन्हें ऑपरेटरों ने बॉम्बे हाई कोर्ट में चुनौती दी.

उम्मीद की जाती है कि चैनलों द्वारा वसूली जा रही कीमतों जैसे अहम मसले पर बॉम्बे हाई कोर्ट का फैसला ब्रॉडकास्टरों तथा दर्शकों की समस्याएं सुलझाएगा. एनआरएफ ने शुरू में यह कहा था कि ब्रॉडकास्टर/ डिस्ट्रीब्यूटर अपनी ‘बुके’ में वे ही चैनल शामिल कर सकते हैं जिनकी कीमत 19 रुपये से कम होगी. एनआरएफ में जनवरी 2020 में जो संशोधन किए गए उनके तहत ट्राई ने इस सीमा को घटाकर 12 रुपये प्रति चैनल प्रति माह कर दिया. ब्रॉडकास्टरों के लिए इसका नतीजा यह होगा कि वे उपभोक्ताओं से जो कमाई करते हैं वह सीमित हो जाएगी और वे विज्ञापनों पर और ज्यादा निर्भर हो जाएंगे. कीमतों पर नियंत्रण नहीं होगी तो ब्रॉडकास्टरों को विविध उपभोक्ताओं के लिए अलग-अलग कार्यक्रम बनाने की व्यवसायिक स्वतंत्रता होगी.

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दूसरा विवादास्पद मसला चैनलों की बुके में छूट देने की सीमा ट्राई द्वारा तय करने का है. एनआरएफ के तहत ट्राई ने इस तरह की छूट की अधिकतम सीमा बुके की कुल कीमत में 15 प्रतिशत तय की थी. मद्रास हाई कोर्ट इसे रद्द करने का फैसला दे चुका है. 2020 में ट्राई ने इस छूट की सीमा 33.3 प्रतिशत तक बढ़ा दी. रेगुलेटर ने यह भी निर्देश दिया कि बुके के किसी एक चैनल की कीमत इसके सभी चैनलों की औसत कीमत के तीन गुना से ज्यादा नहीं रखी जा सकती. इसका परिणाम यह होगा कि विज्ञापन से आय कुछ ही चैनलों में सिमट जाएगी. तब ब्रॉडकास्टर एक ही चैनल को आगे बढ़ाएंगे और उसी से ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन वाली आय हासिल करने की कोशिश करेंगे.

ट्राई की दखल देने की वजह से ब्रॉडकास्टरों उपभोक्ताओं के बीच अपनी बुके बेचने का लाभ नहीं बांट पाते. अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा और कैरिबियाई देशों में रेगुलेटरों के साथ काम कर चुके विशेषज्ञ डॉ. जेफ्री आइजेनैक का कहना है कि बाज़ार के हिसाब से चैनलों की बुके बनाने से कीमतों को बेहतर बनाने की सुविधा मिलती है. इसमें उपभोक्ता एक ही बार में कई चैनलों के बारे में जान सकते हैं और उन्हें खरीद सकते हैं. लोकप्रिय चैनलों वाली बुके में नए और बेहतर चैनलों को शामिल करके उपभोक्ताओं को उनसे परिचित कराने का मौका मिलता है.


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गैर-ज़रूरी नियमन करने की प्रवृत्ति

2004 में एक सरकारी अधिसूचना ने ‘दूरसंचार सेवा’ की परिभाषा बढ़ा कर ब्रॉडकास्टिंग को ट्राई एक्ट में शामिल कर दिया था. तब से ट्राई टीवी के बाज़ार को नियंत्रित कर रहा है और चैनल की कीमत आदि तय करने के कायदे तय कर रहा है. ‘इंडियन काउंसिल ऑफ रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशन्स’ (आइसीआरआईईआर) द्वारा 10 देशों में किए गए अध्ययन से पता चला कि केवल चीन और भारत में ही चैनलों की कीमत को नियंत्रित किया जाता है. ‘ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन ऐंड डेवलपमेंट’ (ओईसीडी) का सर्विस ट्रेड रेस्ट्रिक्टिवनेस इंडेक्स कहता है कि भारत में टीवी मार्केट का संचालन दूरसे देशों में ज्यादा सख्त नियमों के तहत किया जा रहा है.

ब्रॉडकास्टिंग टीवी कार्यक्रम के निर्माण और वितरण पर आधारित है. कार्यक्रमों की कीमतें एक ही पैमाने से तय करना असंभव है क्योंकि हर कार्यक्रम बनाने की लागत अलग होती है. वे कार्यक्रम के स्वरूप से तय होती हैं लेकिन वितरण की लागत एक जैसी हो सकती है. अक्टूबर 2004 में जारी ‘टैरिफ ऑर्डर’ में ट्राई ने माना कि चैनल की कीमत तय करना एक विशेष प्रक्रिया है जो नियमों के जरिए नहीं तय की जा सकती. ट्राई ने कार्यक्रम निर्माण लागत में बड़े अंतरों का जिक्र किया और नये चैनलों की कीमत न तय करने की वजह यह बताई कि चैनलों को कीमतों से जोड़ना मुश्किल है. इसके बावजूद वह आज टीवी चैनलों के लिए समान शुल्क लागू करने पर ज़ोर दे रहा है.


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आगे का रास्ता

अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में रेगुलेटर टीवी चैनलों की कीमतों पर कोई रोक टोक नहीं करते हैं. इसकी वजह यह है कि टीवी कार्यक्रम कॉपीराइट के दायरे में आती हैं. कॉपीराइट पर सबसे पुरानी अंतरराष्ट्रीय संधि ‘बेर्ने कन्वेन्शन’ पर दस्तखत करने वालों में भारत ही एकमात्र देश है जहां एक रेगुलेटर ब्रॉडकास्टिंग सेक्टर के संचार और टीवी कार्यक्रमों से जुड़े पहलुओं का नियमन करता है.

टीवी पर विवादास्पद और सनसनीखेज सामग्री की बाढ़ के मद्देनज़र भारत को चाहिए कि वह अपनी नियमन व्यवस्था दुनिया की बेहतरीन व्यवस्थाओं के मुताबिक बनाए. पिछली सरकारें और संसदीय संस्थाएं इस बात पर ज़ोर दे चुकी हैं कि भारत में संचार क्षेत्र का रेगुलेटर टीवी कार्यक्रम से जुड़े मामलों में गैरज़रूरी दखल बंद करे. 12वीं, 13वीं और 14वीं लोक सभा  ऐसे सेक्टर-केंद्रित कानून पर विचार कर चुकी हैं जिसमें प्रसारण की सामग्री के रचनात्मक और वितरण वाले पहलुओं को अलग-अलग माना जाए. लेकिन ऐसे कानून को कभी अंतिम रूप नहीं दिया गया. फिलहाल एनआरएफ का जो ताजा दौर चल रहा है वह प्रसारण सामग्री को आर्थिक नियमन से अलग करने की जरूरत को रेखांकित कर रहा है, खासकर इसलिए कि सरकार ने मीडिया और मनोरंजन को ‘चैंपियन सेक्टर’ माना है.

(लेखक टेक्नोलॉजी पॉलिसी कंसल्टिंग फर्म कोअन एडवाइजरी ग्रुप में काम करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(यह लेख दिप्रिंट-कोअन एडवाइजरी सीरीज़ का हिस्सा है जो भारतीय तकनीकी सेक्टर में नीति, कानून और नियमन का विश्लेषण करती है. सभी लेखों को यहां पढ़ें)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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