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Sunday, 22 December, 2024
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उत्तराखंड में SCs ने ब्राह्मण रसोइये के खाने से किया इनकार, यह अस्पृश्यता कानूनों से है अधिक प्रभावी

छात्र उससे पहले जो दलित महिला सुनीता देवी भोजन पकाती थी, उसे हटाए जाने का विरोध कर रहे थे. ऊंची जातियों के छात्रों ने सुनीता देवी का पकाया भोजन खाने से मना कर दिया था.

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क्या भारत में अस्पृश्यता से लड़ने के लिए बायकॉट एक असरदार रणनीति हो सकती है? यह सवाल आज उत्तराखंड के चंपावत जिले के एक स्कूल में दोपहर के उस भोजन का अनुसूचित जाति के छात्रों द्वारा बायकॉट किए जाने के बाद उठाया जा रहा है, जिसे एक ब्राह्मण महिला पुष्पा भट ने पकाया था.

छात्र उससे पहले जो दलित महिला सुनीता देवी भोजन पकाती थी, उसे हटाए जाने का विरोध कर रहे थे. ऊंची जातियों के छात्रों ने सुनीता देवी का पकाया भोजन खाने से मना कर दिया था. इसलिए जिला शिक्षा अधिकारी ने उसे हटाकर पुष्पा भट को नियुक्त कर दिया था. इसके जवाब में अनुसूचित जाति के छात्रों ने भी विरोध का वही तरीका अपनाया.

अस्पृश्यता की कुप्रथा को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 के तहत समाप्त कर दिया गया है. नागरिक अधिकार सुरक्षा अधिनियम, 1955 की धारा 4 और 7 के तहत इस कुप्रथा को दंडनीय अपराध भी घोषित कर दिया गया है. इसलिए, अस्पृश्यता के शिकार के लिए कानूनी समाधान उपलब्ध है. लेकिन उन छात्रों ने इन कानूनों का सहारा न लेकर जवाबी बायकॉट का रास्ता चुना, जो नाइंसाफी से फौरन लड़ने की सामाजिक रणनीति बन गई है.

कानूनी उपायों की सीमाएं 

संविधान ने इस कुप्रथा पर रोक लगा दी और संसद ने इसका पालन करने वालों को सजा देने के कानून बना दिए, मगर कड़वा सच यही है कि अस्पृश्यता अभी खत्म नहीं हुई है. खबरों पर ध्यान रखिए, आपको पता चल जाएगा कि उत्तराखंड की उक्त घटना एकमात्र उदाहरण नहीं है. सर्वेक्षणों पर आधारित खबरें भी इस बात की पुष्टि करती हैं कि भारतीय समाज में अस्पृश्यता व्यापक रूप से फैली हुई है. इसका अर्थ है कि कानूनी उपाय कारगर नहीं हैं. तब सवाल उठता है कि ऐसा क्यों है? इसका जवाब अस्पृश्यता के स्वरूप और चरित्र में छिपा है.
अस्पृश्यता निजी और सार्वजनिक, दोनों स्तरों पर बरती जाती है. सरकार तथा उसकी एजेंसियों के लिए स्कूलों, सरकारी दफ्तरों, और अस्पतालों जैसी सार्वजनिक संस्थाओं में इससे लड़ना तो आसान है लेकिन परिवार तथा समाज के अंदर इससे लड़ना एक भारी चुनौती है. इसकी वजह यह है कि राज्यतंत्र के पुलिस, अदालत और सरकारी कर्मचारी जैसे साधन इन दायरों में प्रवेश करने से बचते हैं क्योंकि उन्हें राज्यतंत्र के अनावश्यक हस्तक्षेप से सुरक्षा हासिल है. परिवार तथा समाज की स्वायत्तता अस्पृश्यता को जीवन प्रदान करती है और यह सार्वजनिक संस्थाओं में भी प्रवेश करने की कोशिश करती है.

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जवाबी बायकॉट 

याद रहे कि उत्तराखंड में शुरुआत दबंग जातियों के छात्रों के अभिभावकों ने की और सुनीता देवी द्वारा भोजन बनाने का विरोध किया. छात्रों ने छूआछूत बरतना अपने परिवारों से सीखा और सरकारी स्कूल में इसका प्रयोग किया. इसलिए इस कुप्रथा से लड़ने का प्रभावी उपाय इससे परिवार और समाज के भीतर लड़ना है. और यह तभी संभव है जब समान विचार वाले लोग हमारे परिवार और समाज में फैले जातिवाद पर, जिससे अस्पृश्यता पैदा होती है, सवाल उठाएंगे.

इसके कई उदाहरण हैं- अनुसूचित जातियों के लिए अपने घरों में अलग बरतन रखना, घरेलू दाई-नौकर को अपनी रसोई और पूजाघर में न जाने देना, दलितों के घर में शादी-ब्याह-जन्मदिन जैसे आयोजनों में भोजन करने से मना करना, आदि. ये ऐसे मौके होते हैं जब पुलिस या शासन को बुलाया नहीं जा सकता क्योंकि इससे भुक्तभोगियों पर सबूत देने का अनावश्यक दबाव पड़ता है. इसके अलावा मित्रों, परिवारों के बीच संबंध खराब होते हैं.

इसलिए, ऐसी स्थितियों में सबसे बेहतर उपाय यही है कि जो अलग बरतन में खाना परोसें उनके घर में खाने से मना कर दिया जाए.

आजमाया हुआ तरीका 

उत्तराखंड की घटना ने अस्पृश्यता से लड़ने की जवाबी बायकॉट की रणनीति फिर से चर्चा में आई है, लेकिन दलित आंदोलन में इसे पहले से अपनाया जाता रहा है. मुझे उत्तर प्रदेश में, खासकर अवध और पूर्वांचल के क्षेत्रों में ऐसी कई घटनाओं की जानकारी है, जब अनुसूचित जातियों के लोगों ने ऊंची जातियों के आयोजनों में खाना खाने से मना किया, और 1990 के दशक में पिछड़ी जातियों ने खानपान में असमानता तथा आपसी संबंधों में भेदभाव का विरोध किया था.

ऐसे बायकॉट के नतीजे मिलने में थोड़ा समय लगा लेकिन इनके कारण स्थानीय स्तर पर अस्पृश्यता को झटका लगा. यही स्थिति पारिवारिक दायरे में रही. उत्तराखंड की घटना के बाद कई लोगों ने मुझसे कहा कि उन्होंने अपने उन दोस्तो-पड़ोसियों के यहां खाना-पीना बंद कर दिया है, जो उनके घर पर खाने-पीने से मना करते थे. यह अहिंसक प्रतिकार ऊंची जातियों के व्यवहार में बदलाव ल सकता है.

जवाबी बायकॉट कैसे असर करता है 

अनुसूचित जातियों द्वारा जवाबी बायकॉट छुआछूत बरतने वालों का व्यवहार बदलने में मदद करता है  क्योंकि यह उन्हें अपने सामाजिक व्यवहार और निजी आचरण पर आत्म विश्लेषण करने का मौका देता है. समाज में गलत-सही क्या है, यह अक्सर सामाजिक सहमति से तय होता है, जो बदलती रहती है. लोग अपने व्यवहार की खोट को इसलिए नहीं समझ पाते कि उन पर आपत्ति नहीं की जाती. आपति की जाने पर प्रायः वे अपनी गलती को सुधार लेते हैं. छुआछूत बरतने वाले अकसर यही सोचते हैं कि वे कोई गलत काम नहीं कर रहे, लेकिन जब उन्हें जब टोका जाता है तो उन पर आत्म विश्लेषण करने का दबाव पड़ता है.

प्रसिद्ध दार्शनिक इमानुएल कान्ट ने कहा है कि मनुष्य में ऐसे नियम-कायदे बनाने की आंतरिक प्रवृत्ति होती है जिन्हें व्यापक बनाया जा सकता है. इसलिए, जब उनका बहिष्कार किया जाता है तब वे यह सोचने पर मजबूर होते हैं कि अगर उन्होंने अपना आचरण नहीं सुधारा तो उनके साथ भी वैसा ही व्यवहार हो सकता है.

(अरविंद कुमार(@arvind_kumar__) लंदन विश्वविद्यालय के रॉयल हॉलवे के राजनीति एवं अंतर्राष्ट्रीय सबंध विभाग में पीएचडी स्कालर हैं. उपरोक्त उनके निजी विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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