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Thursday, 19 December, 2024
होममत-विमतयूपी पुलिस योगी शासन में ही मुस्लिम-विरोधी नहीं बनी, बल्कि धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस का अतीत भी रक्तरंजित रहा है

यूपी पुलिस योगी शासन में ही मुस्लिम-विरोधी नहीं बनी, बल्कि धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस का अतीत भी रक्तरंजित रहा है

बात 1972 की है, जब इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री (और गृहमंत्री) थीं. मुसलमान अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) की स्वायत्तता को सीमित करने वाले कानून का विरोध कर रहे थे. और इसी माहौल में धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस ने शासन द्वारा दमन का खाका तैयार किया था.

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ये स्पष्ट है कि योगी आदित्यनाथ सरकार ने यूपी पुलिस को मुस्लिम प्रदर्शनकारियों से निपटने की खुली छूट दे रखी है. पर यूपी पुलिस को मुस्लिम-विरोधी कट्टरता, इस्लामोफोबिया और हिंसा की ट्रेनिंग इसने नहीं दी है. पुलिस ने ये ट्रेनिंग उत्तरप्रदेश की पूर्व की कांग्रेस सरकारों के राज में हासिल की थी.

कोई आधी सदी पहले, सरकार के कानून का विरोध कर रहे मुसलमानों पर पुलिस ने बड़ी बेरहमी से बल प्रयोग किया था. दर्जनों मुसलमान मारे गए थे, उनकी संपत्ति लूटी गई थी और उनके घर जलाए गए थे. वैसे तो इन कृत्यों को दंगा नाम दिया गया था, पर ये मुख्यत: सरकारी दमन था क्योंकि मुसलमानों पर अत्याचार की अधिकतर वारदातें बहुसंख्यक समुदाय द्वारा नहीं, बल्कि पुलिस द्वारा की गई थीं.

इसलिए आदित्यनाथ सरकार के अधीन हमें जो पुलिस अत्याचार देखने को मिल रहा है, उसे व्यापक ऐतिहासिक संदर्भ में देखना उपयोगी होगा.

बात 1972 की है, इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री (और गृहमंत्री) थीं, और मुसलमान अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) की स्वायत्तता को कम करने वाले कानून का विरोध कर रहे थे. चुनावों से पूर्व इंदिरा गांधी ने एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को फिर से बहाल करने का भरोसा दिलाया था, इसलिए नए कानून को विश्वासघात के तौर पर देखा गया. इसने मुसलमानों को आज़ादी के बाद के पहले बड़े विरोध प्रदर्शन के लिए बाध्य किया. धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस सरकार ने इन प्रदर्शनकारियों को लेकर थोड़ा-सा भी धैर्य नहीं दिखाया और उल्टे सरकारी दमन का एक खाका तैयार कर दिया, और योगी आदित्यनाथ आज उसी ढर्रे पर चल रहे हैं.

यूपी में पुलिसिया हिंसा का ये इतिहास महत्वपूर्ण है – महज आरोप-प्रत्यारोप के लिए नहीं, बल्कि रक्तरंजित अतीत के बरक्स वर्तमान को पूरी तरह समझने के लिए.

निर्दयता

पूर्व की सरकारों का अत्याचारों के आरोपी पुलिसकर्मियों को बचाने का एक शर्मनाक इतिहास रहा है, चाहे 1972 के राज्यव्यापी ‘दंगों’ की बात हो, या 1980 के मुरादाबाद ‘दंगों’ की, या मेरठ के दंगों/हाशिमपुरा नरसंहार की, जैसा कि इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के एक लेख में एजी नूरानी ने बताया है. दंडमुक्ति के जिस संस्थागत भाव के कारण आज यूपी पुलिस के सिर पर खून सवार रहता है, उसका पोषण कांग्रेसी सरकारों के कार्यकाल में हुआ है.


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1972 में उत्तरप्रदेश के अलीगढ़, फिरोज़ाबाद और वाराणसी जैसे कई शहरों में पुलिस पर अत्याचार के आरोप लगे थे. विपक्षी नेता चरण सिंह ने प्रोविंशियल आर्म्ड कांस्टेबुलरी (पीएसी) पर मुसलमानों के घरों में आग लगाने का आरोप लगाया था. उस समय के एक सांसद एनजी गोरे के अनुसार अकेले फिरोज़ाबाद में 66 लोग मारे गए थे. इंदिरा गांधी को लिखे पत्र में गोरे ने कहा, ‘ऐसा लगता है कि उस शहर के मुस्लिम समुदाय को हर प्रकार की क्रूरता का सामना करना पड़ा था: लूट, छुरे घोंपना, गोली मारना, आग लगाना, छेड़खानी, बलात्कार. सबसे शर्मनाक बात ये है कि ये सब कानून और व्यवस्था की ताकतों ने स्थानीय गुंडों की मिलीभगत से खुलेआम किया था.’

आज जैसा आदित्यनाथ कर रहे हैं, तब इंदिरा गांधी ने भी पुलिस बल की तरफदारी की थी. आरोपों को खारिज करते हुए गांधी का जवाब था, ‘पुलिस के आयुक्त और महानिरीक्षक को इस आरोप का कोई सबूत नहीं दिखा कि आमतौर पर पुलिस बेकाबू हो चुकी थी.’ मुरादाबाद में 1980 की भयावह पुलिस ज़्यादतियों को नज़रअंदाज़ करते हुए उन्होंने उसे ‘सरकार को कमजोर करने की साजिश’ करार दिया था. इंदिरा गांधी ने आगे 1983 के मेरठ दंगों में मुस्लिम-विरोधी के रूप में कुख्यात यूपी पीएसी का बचाव करते हुए उस पर लगाए गए विस्तृत आरोपों को लेकर खेद जताया था.

हाशिमपुरा का दाग

हाशिमपुरा कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता के दागदार दामन पर लगे सबसे बड़े धब्बों में से एक है. ज़िया उस सलाम ने अपनी किताब ‘ऑफ सैफरन कैप्स एंड स्कलकैप्स’ में लिखा है, ‘हाशिमपुरा कांग्रेस शासन के लिए वैसा ही था जैसा कि 2002 के गुजरात दंगे वहां की भाजपा सरकार के लिए थे.’

दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल ही में मेरठ के हाशिमपुरा इलाके में 1987 में 42 मुसलमानों की हत्या के मामले में उत्तरप्रदेश की पीएसी के 16 पूर्व जवानों को उम्रकैद की सजा सुनाई है. देर से ही सही पर ये न्याय राज्य की तत्कालीन कांग्रेस सरकार के प्रयासों के बावजूद मिला है, जिसने मामले को दफन करने की कोशिश की थी.

तब की यूपी सरकार ने केंद्र की राजीव गांधी सरकार के दबाव में मेरठ के सैंकड़ो मामले वापस ले लिए थे. उन दिनों हाशिमपुरा इलाके के पुलिस अधीक्षक रहे विभूति राय ने आगे चलकर ‘हाशिमपुरा 22 मई’ नामक किताब लिखी जिसमें बताया गया है कि कैसे पीएसी ने दंगाग्रस्त मेरठ से दर्जनों मुसलमानों को हिरासत में लिया और फिर उन्हें नृशंसता से मार डाला. राय अपनी किताब में लिखते हैं, ‘हाशिमपुरा राज्य की क्रूर ताकत के बेरहम और बर्बरतापूर्ण उपयोग और अपने ही लोगों – हत्यारों – के सामने लाचार एक रीढ़हीन और राजनीतिक फायदे से प्रेरित सरकार का एक शर्मनाक उदाहरण है.’
उत्तरप्रदेश में हुए 29 दंगों में से 13 में यूपी पीएसी पर मुसलमानों के नरसंहार का आरोप लगा था. जैसा कि लेखक और कार्यकर्ता असगर अली इंजीनियर ने लिखा था – ‘यूपी के सारे दंगों में पीएसी मुस्लिम विरोधी भूमिका निभाती है.’

अतीत का विश्लेषण

यूपी पुलिस 1970 और 1980 के दशकों में पूरे राज्य में भयावह हिंसा में लिप्त पाई गई थी जिनमें फिरोज़ाबाद (1972), मुज़फ्फरनगर (1975), सुल्तानपुर (1976), संभल (1978), अलीगढ़ (1978 और 1980), मुरादाबाद (1980), मेरठ (1982, 1986 और 1987), बहराइच (1983), मऊ (1983), पीलीभीत (1986), बाराबंकी (1986) और इलाहाबाद (1986) की घटनाएं शामिल हैं.

इसके बावजूद, पीएसी में सुधार और उसे मुस्लिम-विरोधी मानसिकता से मुक्त करने के कोई प्रयास नहीं किए गए, उलटे क्रमिक सरकारों ने ‘गड़बड़ी’ से निपटने के मुख्य साधन के तौर पर उसका इस्तेमाल किया.


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योगी आदित्यनाथ सरकार की नग्न सांप्रदायिकता, यूपी पुलिस की बर्बरता, या मुसलमानों को राजनीतिक हाशिए पर डाले जाने जैसी बातें कोई शून्य से पैदा नहीं हुई हैं. इनका राज्य के ‘धर्मनिरपेक्ष’ अतीत से महत्वपूर्ण जुड़ाव रहा है. किनकी मिलीभगत साबित होती है इस पर ध्यान दिए बिना अतीत के ईमानदार विश्लेषण से ही एक न्यायसंगत और समावेशी भविष्य की राह निकल सकती है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के रिसर्च स्कॉलर हैं. व्यक्त विचार उनकी निजी हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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