नब्बे के दशक के शुरुआत तक रामचरितमानस के अखंड पाठ, भगवद्गीता के प्रवचन, कवि सम्मेलन और मुशायरे उत्तर प्रदेश के कस्बों में जीवन का आम हिस्सा हुआ करते थे. हम दोहों और शेरों पर बड़े-बुजुर्गों की चर्चा सुनते हुए वहां से लौटते थे.
वास्तव में उत्तर प्रदेश में बीते हमारे बचपन की यादों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा साहित्य से जुड़ा है. जो लोग सक्षम थे वे रामचरितमानस और गीता जिनका घर में होना लगभग अनिवार्य था के अलावा अन्य साहित्य का भी संग्रह करते थे. खुसरो, कबीर, तुलसी, रहीम, भारतेन्दु, बंकिम, टैगोर, द्विवेदी, जयशंकर, प्रेमचंद, दिनकर, महादेवी, फ़िराक गोरखपुरी और राही मासूम रज़ा के उद्धरण रोज़मर्रा की बातचीत के अभिन्न अंग थे. कभी-कभार महाश्वेता देवी जैसे साहित्यकारों की भी झलक मिल जाती थी.
इस सबको हम गंगा और उसकी सहायक नदियों के किनारे बसे कस्बों और शहरों की (साहित्यिक) संस्कृति की संज्ञा दे सकते हैं, जो वाराणसी और इलाहाबाद (वर्तमान में प्रयागराज) से शुरू होकर पश्चिम में आगरा और अलीगढ़ के आसपास के क्षेत्रों तक फैली थी. स्थानीय कॉलेजों के अध्यापक साहित्य पर अच्छी पकड़ रखते थे और अक्सर कवि सम्मलेनों और मुशायरों में अपनी रचनायें प्रस्तुत करते थे. हिंदी दैनिकों के रविवार विशेषांकों में छपने वाली लघु कथाओं और कविताओं का लोग बेसब्री से इंतज़ार किया करते थे.
यह भी पढ़ें: क्या आपने मनसुख मांडविया की अंग्रेज़ी का मज़ाक उड़ाया? तो आपने मोदी का वोट और मजबूत कर दिया
साहित्यिक पतन की शुरुआत
अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में हुए सामाजिक-राजनीतिक उठापटक के बीच यह संस्कृति बिखरने लगी और उसकी जगह बाज़ार के दिखाये सपनों ने ले ली. आर्थिक उदारीकरण ने हिंदी के सांस्कृतिक संकट को और गंभीर बना दिया. हिंदी अब नये सपनों के रास्तों का रोड़ा मात्र थी. जब हम आईआईटी में थे तो कई शीर्ष रैंक वाले हिंदी (और अन्य भारतीय भाषा) माध्यम के विद्यालयों से आते थे. लेकिन नब्बे के दशक के अंत तक अभिभावकों ने इन विद्यालयों को छोड़ कर कुकुरमुत्ते की तरह उग आये अंग्रेजी-माध्यम के विद्यालयों की तरफ रुख कर लिया.
अचानक से आया यह बदलाव हिंदी माध्यम के विद्यालयों के लिए घातक सिद्ध हुआ. माता-पिता अपने बच्चों के साथ टूटी-फूटी अंग्रेजी में बातचीत करने में गर्व महसूस करने लगे. वे इस बात से खुश थे कि उनके बच्चे ऐसे विद्यालयों में जाते थे जहां हिंदी में बोलना हीनता का परिचायक था. जब हिंदी में पढ़ना-लिखना बंद हो गया तो हिंदी साहित्य की मांग को प्रभावित होने में ज़्यादा समय नहीं लगा. हमारी पीढ़ी में कइयों ने काम-धंधे में बसने के बाद हिंदी साहित्य की ओर वापस रुख किया. और उन्हें अफसोस है कि उनकी अगली पीढ़ी का अपनी मातृभाषा के साथ सहज जुड़ाव नहीं है.
देखा जाये तो हिंदी का पतन काफी पहले ही शुरू हो गया था जब उसे राष्ट्रीय स्तर पर आधिकारिक भाषा के रूप में स्थापित किया गया और वो बॉम्बे (वर्तमान में मुंबई) की फिल्म इंडस्ट्री की पहली पसंद के रूप में उभर कर आयी. इस पतन का एक और मुख्य कारण उत्तर प्रदेश की नई दिल्ली से निकटता थी.
‘राष्ट्रीय’ दर्जा मिलने से आधिकारिक पत्राचार में हिंदी के प्रयोग में वृद्धि हुई. लेकिन इससे बौद्धिक विचार-विमर्श में हिंदी की बढ़ती उपेक्षा की भरपाई नहीं हो पायी. ‘राष्ट्रीय’ दर्जे के अभिमान में चूर हिंदी को शायद अपना पतन दिखा ही नहीं. अंग्रेजी से बराबरी की झूठी लड़ाई में फंसी हिंदी के पास अन्य भारतीय भाषाओं से संवाद के लिए अवकाश नहीं था. जबकि ‘बाह्य’ प्रभाव हिंदी और उसकी बोलियों के स्वर्णिम इतिहास का अभिन्न अंग रहे हैं.
यह भी पढ़ें: अनामिका के बहाने, अनामिका से ही सवाल-जवाब!
‘बाह्य’ प्रभाव
बाहर से आने वाले व्यक्तित्वों और विचारों का भक्ति और सूफी परंपराओं और मध्ययुगीन साम्राज्यों, जिनके बीच में गंगा-जमुनी संस्कृति पनपी थी, पर गहरी छाप थी. आगरा, वाराणसी और मथुरा जैसे शहर पूरे उपमहाद्वीप के आकर्षण का केंद्र थे. ब्रिटिश काल में स्वामी दयानंद सरस्वती और महात्मा गांधी ने हिंदी/हिंदुस्तानी की राष्ट्रीय स्तर पर वकालत की. उन दोनों की ही मूल भाषा हिंदी नहीं थी. हिंदी सिनेमा के प्रमाणिक आवाज़ और चेहरे भी पंजाब, महाराष्ट्र और बंगाल से हुआ करते थे. लेकिन वे दिन गये जब हिंदी के द्वार बंगाली, मराठी और अंग्रेजी जैसी भाषाओं के विचारों, साहित्यिक कृतियों और व्याकरण के लिए खुले थे.
हिंदी और उत्तर प्रदेश ने अपने दरवाजे न केवल बाकी दुनिया के लिए बंद कर लिये, बल्कि अपनी समृद्ध आंतरिक विविधता को पोषित करने में भी वे विफल रहे. सांस्कृतिक और भाषाई विविधता प्रदेश की नयी राजनैतिक पहचान की छाया में पनप नहीं सकी. प्रदेश में ब्रज, अवधी, बुंदेली, भोजपुरी और खड़ी बोली के क्षेत्र जिनका खुद का समृद्ध साहित्य और इतिहास है, वे किसी और की वरीयता स्वीकार नहीं कर सकते हैं. एक ओर नये राजनैतिक परिदृश्य में राजधानी और घटक क्षेत्रों के बीच हुए संघर्ष में क्षेत्रीय संस्कृतियों ने अपनी जीवटता खो दी. वहीं दूसरी तरफ प्रदेश का राजनैतिक केंद्र लखनऊ उन्हें एक सांस्कृतिक सूत्र में पिरों न सका.
प्रदेश का नया अभिजात्य वर्ग लखनऊ की नवाबी संस्कृति या अन्य किसी आधार पर मिली-जुली संस्कृति खड़ी नहीं कर पाया. लेकिन इस असफलता का ठीकरा हम बोलियों और क्षेत्रीय इकाइयों के बीच की प्रतिस्पर्धा पर नहीं फोड़ सकते हैं. नई दिल्ली से निकटता और प्रदेश की राष्ट्रीय राजनीति में महत्व ने भी बड़ी भूमिका निभाई. उत्तर प्रदेश इतना बड़ा राज्य था कि राजनैतिक दृष्टिकोण से उसे अकेला नहीं छोड़ा जा सकता था. इसलिए नई दिल्ली ने स्थानीय क्षत्रपों को नियंत्रण में रखने के लिए प्रदेश के अंदरूनी मतभेदों का फायदा उठाया और कभी बीजू पटनायक या अन्नादुरई जैसे नेताओं को उभरने नहीं दिया. कोई प्रदेशव्यापी सांस्कृतिक या साहित्यिक संगठन भी नहीं था. ऐसे में साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संकट और गहरा हो गया.
नई दिल्ली से उत्तर प्रदेश की नज़दीकी एक और तरीके से भी हानिकारक साबित हुई. प्रदेश के प्रमुख शहरों से नई दिल्ली तक आना-जाना सरल होने के कारण राष्ट्रीय राजधानी में रह कर भी अभिजात्य वर्ग अपने इलाकों में आवश्यकता पड़ने पर पहुंच सकता है. दिल्ली में उन्हें वह सब कुछ मिलता है जिसकी उन्हें आवश्यकता है- पुस्तकालय, कला दीर्घा, थिएटर, संग्रहालय आदि. लखनऊ चेन्नई, तिरुवनंतपुरम या बेंगलुरू की तरह नहीं है जहां अभिजात्य वर्ग को अपने राज्यों में रहना पड़ता था, कम से कम शुरूआती दौर में जब दिल्ली के लिए सुविधाजनक विमान सेवायें नहीं थी. साथ में प्रदेश की लगातार गिरती अर्थव्यवस्था के कारण पढ़े-लिखे तबके ने देश के अन्य महानगरों की ओर रुख कर लिया. जबकि आर्थिक रूप से प्रगतिशील कर्नाटक, तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में शिक्षित वर्ग का बड़ा हिस्सा अपने प्रदेश की राजधानी में ही रहता है.
यह भी पढ़ें: बिहारी कोई भाषा नहीं बल्कि एक पहचान है, और हां, इस घालमेल के लिए अंग्रेजों को दोष दिया जा सकता है
हिंदी के पुनरुद्धार के लिए सुझाव
हिंदी की आधुनिक भारतीय भाषाओं के परिवार में एक बराबर के सदस्य के रूप में सहभागिता एवं विभिन्न क्षेत्रीय संस्कृतियों के स्तंभ रहे शहरों और कस्बों के (आर्थिक और) सांस्कृतिक नवीनीकरण के बिना उत्तर प्रदेश का पुनरुद्धार असंभव है. जिस तरह प्रदेश की विभिन्न छोटी-बड़ी नदियां मिल कर गंगा को समृद्ध करती हैं ठीक उसी तरह क्षेत्रीय संस्कृतियों और भाषाओं के साथ-साथ दलित और नारीवादी साहित्य जैसी नवीन धाराओं से उत्तर प्रदेश को सींचना होगा.
सबसे पहले, प्रदेश सरकार को हर जिले के कुछ स्कूलों में त्रि-भाषा फार्मूले को प्रोत्साहित करना चाहिये. इसके लिए गैर-हिंदी भाषा-भाषी राज्यों से शिक्षकों को आमंत्रित भी करना पड़ सकता है. विश्वविद्यालयों में भाषा विभागों को पुनर्जीवित करना महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे ब्रज, अवधी आदि भाषाओं में बौद्धिक और लोकप्रिय साहित्यिक पत्रिकाओं एवं बाल साहित्य को बढ़ावा देने में मदद मिलेगी.
प्रदेश सरकार को सार्वजनिक सांस्कृतिक इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे सभागार, दीर्घाओं, संग्रहालयों, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक व्यक्तित्वों के स्मारकों आदि के निर्माण और रखरखाव की व्यवस्था करनी चाहिये और इनको समाज के सभी वर्गों के लिए खोलना चाहिये. जनसामान्य एवं स्थानीय निकायों को भी आगे बढ़कर इस इंफ्रास्ट्रक्चर को अपनाकर उसमें प्राण फूंकने होंगे जिसकी मदद से साहित्यिक उत्सवों और पुरस्कारों के जरिये स्थानीय सांस्कृतिक उपलब्धियों को सम्मानित किया जा सकेगा और सांस्कृतिक एवं साहित्यिक अतिथियों के आवागमन को भी प्रोत्साहित किया जा सकेगा. प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में फैले साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थानों को पर्यटन सर्किट से जोड़ा जा सकता है.
सरकार को प्रदेश में स्थित हिंदी प्रकाशकों को अनुदान देना चाहिये, हिंदी की प्रमुख कृतियों के कॉपीराइट खरीद कर उन्हें ओपन एक्सेस बनाना चाहिये और अन्य भारतीय भाषाओं और हिंदी के बीच में अनुवाद को प्रोत्साहित करना चाहिये. लेकिन आर्थिक विकास के बिना आम आदमी साहित्यिक पुनरुद्धार का हिस्सा नहीं बन पायेगा और न ही उद्योग और व्यापार जगत अपेक्षित योगदान कर पायेगा. इस आर्थिक पहलू पर हम फिर कभी चर्चा करेंगे.
(विकास कुमार अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, बेंगलुरू में अर्थशास्त्र पढ़ाते हैं और ‘नंबर्स इन इंडियाज पेरीफेरी: द पॉलिटिकल इकोनॉमी ऑफ गवर्नमेंट स्टैटिस्टिक्स ‘ (कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, 2020) के सह-लेखक हैं. आलोक तिवारी कानपुर के जिलाधिकारी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. लेख का हिंदी अनुवाद अंकिता पांडे ने किया है जो स्वतंत्र शोधकर्ता एवं अनुवादक हैं और ‘आसक्ति से विरक्ति तक: ओड़िआ महाभारत की चुनिंदा कहानियां ’ (आगामी) की लेखिका हैं)
यह भी पढ़ें: ‘नहीं, मैं एक पुरुष हूं’- गीत चतुर्वेदी के बहाने ‘फैन कल्चर बनाम सरोकारी साहित्य’ की बहस कितनी वाजिब