scorecardresearch
Wednesday, 24 April, 2024
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टक्या आपने मनसुख मांडविया की अंग्रेज़ी का मज़ाक उड़ाया? तो आपने मोदी का वोट और मजबूत कर दिया

क्या आपने मनसुख मांडविया की अंग्रेज़ी का मज़ाक उड़ाया? तो आपने मोदी का वोट और मजबूत कर दिया

नये स्वास्थ्य मंत्री मनसुख़ मांडविया की अंग्रेजी का मजाक उड़ाना यही दिखाता है कि मोदी के भारत ने कुलीनतावाद को खारिज कर दिया है.

Text Size:

नये स्वास्थ्य मंत्री मनसुख़ मांडविया की अंग्रेजी का मजाक उड़ाए जाने को लेकर जो ऑनलाइन बहस छिड़ी हुई है उसमें आप किस पक्ष के साथ हैं?

इस बहस में एक पक्ष मज़ाक उड़ाए जाने को निंदनीय, अनुचित और बड़बोलापन कह रहा है. मैं शुरू में ही कह दूं कि मैं इस पक्ष के साथ हूं. यह मुझे स्व. राज नारायण के उन मशहूर मगर अब भुला दिए गए शब्दों की याद दिला रहा है, जो उन्होंने लंदन में तब कहे थे जब वे 1977-79 में मोरारजी देसाई के मंत्रिमंडल के स्वास्थ्य मंत्री थे. पत्रकारों ने उनसे पूछा था कि वे तो अंग्रेजी नहीं जानते, तो मंत्रालय का काम कैसे चलाएंगे? समाजवादी राज नारायण ने, जिन्हें हम ‘ओरिजनल लालू यादव’ कह सकते हैं, बिना घबराए जवाब दिया था, ‘अरे, सब अंग्रेजी जानते हैं हम. मिल्टन-हिल्टन सब पढ़े हैं.’

याद रहे कि उनकी भदेस शैली और बेलौस अंदाज से यह पता नहीं चलता था कि वे कितने पढ़े-लिखे थे. वे छात्र संघ के नेता, स्वतंत्रता सेनानी, और 17 साल की उम्र में ही कांग्रेस के सदस्य बन गए थे. वे बनारस से हिंदी का एक साप्ताहिक अखबार ‘जनमुख’ निकालते थे. अंग्रेजी में भले वे कमजोर रहे हों, इंदिरा गांधी को दो बार हराकर उन्होंने अपनी ताकत जता दी थी. पहली बार उन्होंने उन्हें इलाहाबाद हाइकोर्ट में चुनाव याचिका के जरिए हराया, जिसके बाद इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगा दी थी; और इसके बाद जब इमरजेंसी हटाई गई और वे जेल से बाहर निकले तो चुनाव में उन्होंने इंदिरा गांधी को राय बरेली लोकसभा सीट पर हराया.

दूसरा पक्ष मांडविया की टूटी-फूटी अंग्रेजी में लिखे गए पुराने ट्वीटों को हद दर्जे का मज़ाकिया मानता है. और सिर्फ मज़ाकिया ही नहीं. इस पक्ष का सवाल है कि इस महामारी के दौर में उन्हें देश के स्वास्थ्य मंत्रालय का जिम्मा कैसे सौंपा जा सकता है? यह तर्क दिया जाता है कि नरेंद्र मोदी की भाजपा से भला आप और क्या उम्मीद रख सकते हैं? कि इससे यह भी जाहिर होता है कि भाजपा में प्रतिभाओं की कमी है; वह इससे ज्यादा अहंकार और क्या दिखा सकती है कि भारत के मतदाताओं को यह एहसास करा रही कि उन्होंने उसे वोट देकर कितनी ‘बड़ी भूल’ की.


यह भी पढ़ें: मोदी सरकार अचानक क्यों ‘पश्चिम की ओर देखने’ लगी, तालिबान, पाकिस्तान, महबूबा, अब्दुल्ला से कर रही बात


मैं इसलिए पहले वाले पक्ष के साथ हूं, और यह मानता हूं कि ज़्यादातर भारतीय लोग भी इसी पक्ष के साथ होंगे, क्योंकि यह मानना गलत और अहंकारपूर्ण है कि जिसे अंग्रेजी का ज्ञान है वही शिक्षित, पढ़ा-लिखा, बुद्धिमान है. अंग्रेजी से फर्क नहीं पड़ता, लेकिन एक मंत्री या सार्वजनिक जीवन में काम करने वाले व्यक्ति के लिए जरूरी यह है कि उसमें राजनीतिक समझ, बुद्धिमानी, सीखने की तैयारी और अपनी टीम में आत्मविश्वास जगाने का आकर्षण हो.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

आज कोई यह याद नहीं करता कि एक राष्ट्रीय पार्टी के सबसे ताकतवर अध्यक्ष (कांग्रेस, 1963-65) रहे के. कामराज को, जब तक कि भाजपा में अमित शाह नहीं उभरे थे, 11 साल की उम्र में घोर गरीबी और पिता की मृत्यु के कारण स्कूल छोड़ना पड़ा था. वे अपनी तमिल को, भारत के गरीबों के मन को बहुत अच्छी तरह जानते थे और उनमें एक ज़हीन नेता वाली राजनीतिक समझदारी थी. अंग्रेजी का उनका ज्ञान कितना था? शायद वे भाग्यशाली थे कि उन्हें ट्वीटर वाले युग में नहीं जीना पड़ा.

दरअसल, सामाजिक कुलीनतावाद हमारे अंदर गहरी जड़ जमाए है, चाहे हम किसी भी पेशे में क्यों न हों. इसकी झलक हमने तब देखी थी जब मनोहर पर्रीकर रक्षा मंत्री थे और सेना के कड़क समारोहों में चप्पल फटकारते पहुंच जाते थे. इसलिए भारत को यह तो अच्छी तरह समझ जाना चाहिए था. हमारे दो सबसे सफल रक्षा मंत्री यशवंत राव चह्वाण और जगजीवन राम के मिजाज और अंदाज सेना के मिजाज और अंदाज से बिलकुल विपरीत थे. दिक्कत यह है कि हम लोग अपना राजनीतिक इतिहास नहीं जानते.

लेकिन अंग्रेजी के ज्ञान को हम कमतर नहीं आंक सकते. भारत में यह ताकत की भाषा है. इसलिए लोहियावादियों ने सामाजिक कुलीनतावाद का विरोध करने के लिए अंग्रेजी को खारिज करके गलती की. मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश में इसे स्थापित करने की कोशिश की लेकिन उनके पुत्र अखिलेश यादव इससे चुपचाप अलग हो गए. यही वजह है कि आज योगी आदित्यनाथ और जगन मोहन रेड्डी इंगलिश मीडियम पढ़ाई को आगे बढ़ाने की बुद्धिमानी बरत रहे हैं. इसलिए अच्छी अंग्रेजी न जानने वालों को अनपढ़ या गंवार कहकर उनका मज़ाक उड़ाना गलत है.

हम भारतीयों ने अंग्रेजी बोलने, लिखने और यहां तक कि उसका मतलब निकालने के अपने खास अंदाज के साथ उसे अपना लिया है. एक समय दक्षिण एशियाई मामलों की प्रभारी अमेरिकी उप-विदेश मंत्री रॉबिन राफेल कहानी सुनाया करती थीं कि जब पी.वी. नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे तब प्रणव मुखर्जी ने वाशिंगटन की अपनी यात्रा का समापन किस तरह किया था. एक अमेरिकी वार्ताकार ने राफेल से कहा था कि प्रणव मुखर्जी ने अपनी बंगाली अंग्रेजी में जो कुछ कहा उसे समझा दें. राफेल ने जब उन्हें समझा दिया तब उस वार्ताकार का कहना था, ‘रॉबिन… तुम्हारे ये भारतीय लोग तो 16 तरह की बोलियों में अंग्रेजी बोलते हैं.’

बात केवल शैली की नहीं है. देशभर में यह भाषा हम तमाम तरह से लिखते और इस्तेमाल करते हैं. अपनी यात्राओं में मैं उनकी बारीकियों को पकड़ने की कोशिश करता रहता हूं. 1981 में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के रिपोर्टर के तौर पर मैं जब पहली बार उत्तर-पूर्व गया था, तब कई महत्वपूर्ण लेखकों-पत्रकारों ने मुझे सावधान किया था अमुक-अमुक आदमी पर विश्वास मत करना क्योंकि ‘वह एक ‘ट्रबलशूटर’ है.’ मैं इसका यही अर्थ लगा सकता था कि वह अमुक आदमी अच्छा है, लेकिन ब्रह्मपुत्र घाटी क्षेत्र में ‘ट्रबलशूटर’ का अर्थ था ‘ट्रबलमेकर’. बंगाल में आप किसी से पूछिए कि अमुक आदमी कहां है, तो यह जवाब मिल सकता है कि वह ‘गौन मार्केटिंग’. लोकल अंग्रेजी में इसका मतलब यह है कि वह ख़रीदारी करने गया है.


यह भी पढ़ें: अहंकार छोड़ अपने आईने में झांकिए, काफी अफ्रीकी देश भी आप से आगे निकल गए हैं


पंजाब के तमाम कस्बों में लोगों को अगर आपने यह कह दिया कि आप संपादक हैं, तो आपको लगेगा कि वे बहुत भाव नहीं दे रहे हैं, लेकिन पल भर में उन्हें मानो समझ में आ जाएगा—’ओह! आप ‘ऑडिटर’ हैं’. इसके बाद उनका चेहरा प्रशंसा भाव से चमक उठेगा. हम ‘किंग वाली अंग्रेजी’ और ‘सिंह वाली अंग्रेजी’ कहकर मजे लिया करते हैं. प्रेम भाटिया जब ‘ट्रिब्यून’ अखबार के संपादक थे तब उन्होंने इसी शीर्षक से एक लेख लिखा था.

एक बार फिर साफ कर दूं कि यहां खराब अंग्रेजी की वकालत नहीं की जा रही है. सही और समझ में आने वाली भाषा का इस्तेमाल हमेशा बेहतर होता है. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि आप ऐसा नहीं कर रहे तो आप किसी काम के नहीं हैं. इसके अलावा, बिलकुल सटीक और सही अंग्रेजी क्या है, इसे सैकड़ों तरीके से बताया जा सकता है और यह इस पर निर्भर करेगा कि आप कहां के हैं और आपने कहां से पढ़ाई की है. अगर आप, दिल्ली में लड़की के विवाह के विज्ञापनों के मुताबिक, ‘कॉन्वेंटेड’ हैं या इससे भी बेहतर ‘थरूरियन’ हैं तब भी आप अंग्रेजी का लगभग सटीक प्रयोग कर रहे होंगे.

हर कोई बचपन में ही स्कूल में अंग्रेजी नहीं पढ़ता. आप किसी भाषा के साथ किस तरह जुड़ते हैं, इस पर भी निर्भर करता है कि आप किस तरह उसे सीखते हैं. मैं जिस स्कूली सिस्टम में पढ़ता था उसमें छठी क्लास से अंग्रेजी का अक्षर ज्ञान शुरू किया जाता था. इसके बाद तुकबंदी आदि के जरिए शिक्षक लोग तेजी से शब्दज्ञान देने के तरीके अपनाते थे. पंजाब से कुछ उदाहरण ये हैं— पीजन माने कबूतर, उड़ान यानी फ्लाई, लुक यानी देखो, आसमान यानी स्काई, बेटी यानी डॉटर, पानी यानी वाटर, जय हिन्द नमस्ते, हॅलो हाइ. हां, हर शब्द को खास देसी अंदाज में बोला जाता था—फलाई, सकाई, डाटर, वाटर, आदि. क्या यह उस बोरिंग वर्णमाला से बेहतर नहीं है, जो आपको भाषा में अपढ़ मान कर चलती है?

हमने अंग्रेजी अखबारों, रेडियो बुलेटिनों, और सबसे बढ़कर क्रिकेट कमेंटरी से सीखी और बाद में उसमें सुधार करते गए. हम ‘हिंदी मीडियम टाइप’ या ‘एचएमटी’ टाइप लोग इस भाषा में कभी निष्णात नहीं हो पाए, न बोलने में और न लिखने में. लेकिन भारत बदलता गया और हम आगे बढ़ते गए.

यह आर्थिक सुधारों की 30वीं वर्षगांठ का महीना है. वामपंथी टीकाकार इन सुधारों की आलोचना करते हैं कि इसने भारत में कुलीनतावाद की नई लहर ला दी. लेकिन वे गलत हैं. वास्तव में, इनमें से कई तो खुद पुराने कुलीनों के वंशज हैं, जिन्हें आर्थिक उत्कर्ष से सशक्त हुए ‘एचएमटी’ भारतीयों की नई पीढ़ी ने संख्या में, दर्जे में और प्रसिद्धि में पीछे छोड़ दिया है.
अचानक कई कंपनियां, कई नियोक्ता उभर आए और हुनरमंद कामगारों की मांग बढ़ गई. तमाम दून स्कूल, सेंट स्टीफन्स कॉलेज, ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज, आइवी लीग मिलकर भी यह मांग नहीं पूरी कर सके. अचानक यह लगभग बेमानी हो गया कि आपके पिता कौन थे, कि आपके कॉलेज में जाम के दौर चलते थे, कि आपका परिवार किस क्लब का सदस्य था. यह बदलाव सभी बोर्डों में देखा गया, चाहे यह सी-सुइट्स वाला कॉर्पोरेट बोर्ड हो या स्टार्ट-अप, सिविल सर्विसेज, और अंग्रेजी कुलीनतावाद के अंतिम गढ़ सेना का बोर्ड.

इस मुकाम पर मुझे इस सामाजिक भटकाव से हट कर अपने मैदान की ओर लौटने की याद दिलाई जा सकती है. यह मैदान है राजनीति, और मांडविया को लेकर हुए विवाद से इसके बारे में मिले सबक. यह भी कि मोदी महातम को समझने और विश्लेषित करने में मैंने कहां भूल की. कुछ समय से मैं कहता रहा हूं कि उनकी राजनीति के तीन प्रमुख तत्व हैं— एक नया, पुनर्परिभाषित हिंदू राष्ट्रवाद; भ्रष्टाचार विरोधी योद्धा की छवि; और सबसे गरीब लोगों के कल्याण की योजनाओं का कुशलता से क्रियान्वयन.

मैंने एक और प्रमुख तत्व की अनदेखी कर दी थी, वह है कुलीनतावाद का विरोध. अंग्रेजीभाषी कुलीनों के खिलाफ व्यापक विरोध दशकों से आकार लेता रहा है. हमारी स्कूली पाठ्यपुस्तकों में बड़े गर्व से बताया जाता था कि नेहरू किस अमीरी में पले थे. आज यह सब किसी को प्रभावित नहीं करता. लेकिन ‘चाय वाले’ की कहानी चल जाती है.

मोदी को उस सबका विलोम माना जाता है जिनके लिए कांग्रेस के नेता जाने जाते थे. देसी बनाम पश्चिमी रंग-ढंग वाले कुलीन. जब मोदी लुटिएन्स वालों और ‘खान मार्केट गैंग’ पर हमले करते हैं तो उनका इशारा उस उच्च तबके की ओर होता है, जिसके बारे में वे अपने मतदाताओं से कहते हैं कि ‘उसने बहुत राज कर लिया, जबकि इसके लायक वह नहीं था’.

इसलिए, जब आप उनका मज़ाक इसलिए उड़ाते हैं कि वे ‘स्ट्रेंथ’ का उच्चारण ‘स्ट्रीन्ह’ के रूप में करते हैं या मांडविया का मज़ाक इसलिए उड़ाते हैं कि वे महात्मा गांधी को ‘नेशन ऑफ फादर’ कह बैठते हैं, तब आप उनकी ही बात को मतदाताओं के बीच मजबूती देते हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें:मोदी को हराने में क्यों कमज़ोर पड़ जाता है विपक्ष- PEW सर्वे में छुपे हैं जवाब


 

share & View comments