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Thursday, 25 April, 2024
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ट्रंप के मामले में संविधान की रक्षा कर रही है अमेरिकी सेना, यह भारत के लिए एक सबक है

पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप चाहते थे कि तमाम सेवानिवृत्त और सेवारत जनरल उनकी सत्ता के प्रति संपूर्ण वफादारी का प्रदर्शन करें लेकिन हुआ इसका ठीक उलटा.

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अमेरिका में सेना पर असैनिक शासन के नियंत्रण का जो अटूट इतिहास है वह अनुकरणीय है. सेना संविधान का पालन करती है और निर्वाचित राष्ट्रपति तथा विधायिका के जरिए राष्ट्र के प्रति जवाबदेह है और यह रिश्ता मजबूत संस्थाओं के बूते कायम रखा जाता है. लेकिन पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के राज में इस रिश्ते में भारी तनाव पैदा हो गया था.

अमेरिका की तरह भारत में भी सेना पर असैनिक शासन का वर्चस्व और नियंत्रण स्थापित रहा है. लेकिन यह नियंत्रण संविधान के दायरे में ही है, जो दोनों महकमों के आचरण को निर्देशित करता है. सेना सोची-समझी सलाह देती है और सरकार फैसला करती है. सरकार का आदेश जब तक कानून सम्मत है, सेना को उसे कर्तव्य मान कर पूरा करना है. भारत में भी यह रिश्ता निर्वाचित सरकार द्वारा सेना का राजनीतिक इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति के कारण बिगड़ रहा है.

ट्रंप में फौज के प्रति विशेष आकर्षण था. अपने प्रशासन में उन्होंने कई सेवानिवृत्त जनरलों को भर रखा था और सेवारत जनरलों को वे ‘माई जनरल्स’ कहा करते थे. वे सेना को अपनी राजनीति का विस्तार बनाने की अपेक्षा रखते थे और हिटलर और उसके जनरलों की तरह उससे संपूर्ण आज्ञाकारिता की उम्मीद रखते थे. लेकिन उन्हें यह जान कर काफी हैरानी हुई कि अमेरिकी सेना के मूल्य संविधान में दर्ज हैं. सो, जल्दी ही पूर्व जनरलों के साथ उनके संबंधों में खटास आ गई और उनमें से कई को सीधे बर्खास्त कर दिया गया. सेवारत जनरलों ने शुरुआती ऊहापोह के बाद अपनी राह सही की और ट्रंप की राजनीतिक चालों का हिस्सा बनने से इनकार करके संविधान का पालन शुरू कर दिया.

यह सारा प्रकरण तथा और भी बहुत कुछ शीघ्र प्रकाशित होने वाली किताब ‘द डिवाइडर: ट्रंप इन द व्हाइट हाउस, 2017-2021‘ में दर्ज किया गया है, जिसे ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ के पीटर बेकर और ‘द न्यू यॉर्कर’ की सूसन ग्लेसर ने लिखा है. एक महत्वपूर्ण लेख में लेखकों ने सेना के साथ ट्रंप के रिश्तों के बारे में बताया है. इस किताब में दर्ज विकृतियां और रिपोर्टें भारत समेत सभी लोकतांत्रिक देशों के लिए कई अहम सबक पेश करती हैं, जहां राष्ट्रवाद केंद्रित विचारधारा से प्रेरित राजनीतिक दल सत्ता में चुने गए हैं.


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तमाशे को लेकर तकरार

‘बास्तिले डे’ और प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान फ्रांस में अमेरिका के प्रवेश की 100वीं वर्षगांठ पर शानदार सैन्य परेड देखने के बाद ट्रंप चाहते थे कि अमेरिकी स्वतंत्रता दिवस पर अमेरिकी सैन्य शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए ऐसा ही आयोजन फिर किया जाए. रक्षा सचिव, पूर्व जनरल जेम्स मैटिस और आला सेना अधिकारियों ने इसके ऊपर होने वाले भारी खर्चे के मद्देनजर इसका विरोध किया. अमेरिकी सेना परेडों के जरिए अपनी ताकत का प्रदर्शन करने से परहेज करती रही है क्योंकि इन्हें राजनीतिक नेताओं, तानाशाहों और कम्युनिस्ट शासकों के आडंबर का साधन माना जाता है.

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ज्वाइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ के जनरल पाऊल जे. सेल्वा ने ट्रंप से साफ कह दिया, ‘मैं अमेरिका में नहीं, वास्तव में पुर्तगाल में पला-बढ़ा. पुर्तगाल में तानाशाही राज था और परेड बंदूक रखने वाले लोगों की खातिर की जाती थी. और इस देश में हम ऐसा नहीं करते. हम ऐसे नहीं हैं .’

सेना ने राष्ट्रपति की राजनीतिक भव्यता के प्रदर्शन की मंशा भांप ली थी, जो तब उजागर हो गई थी जब उन्होंने चीफ ऑफ स्टाफ, पूर्व जनरल जॉन केली से यह कहा था कि वे चाहते हैं कि परेड में घायल सैनिकों को शामिल नहीं किया जाए क्योंकि यह उन्हें ‘अच्छा नहीं दिखाता’. जनरलों के प्रतिरोध को नाकाम करने में दो साल लग गए और उन्होंने जनरलों को 4 जुलाई 2019 को भव्य परेड करवाने के लिए मजबूर कर दिया. इसकी जनता और मीडिया में जम कर आलोचना हुई.


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संविधान में निष्ठा बनाम राजनीतिक नियंत्रण

ट्रंप अपने प्रशासन में सेवानिवृत्त और सेवारत जनरलों से संपूर्ण वफादारी चाहते थे लेकिन हुआ इसका ठीक उलटा. पहले, सेवानिवृत्त जनरलों की छुट्टी हुई. ट्रंप ने उपरोक्त लेखकों से कहा, ‘वे सब प्रतिभाहीन लोग थे, मुझे जब यह पता लगा तो मैंने उन पर भरोसा करना छोड़ दिया. मैं सिस्टम में शामिल असली जनरलों और एडमिरलों पर भरोसा करता था.’ लेकिन इन लोगों पर भी वे अपनी मर्जी के काम नहीं करवा सके.

पता लगा कि जनरलों के पास नियम-कायदे थे, मानदंड थे, उनमे विशेषज्ञता थी मगर अंधी वफादारी नहीं थी. अधिनायकवादी नेताओं वाली प्रवृत्ति का प्रदर्शन करते हुए एक बार उन्होंने चीफ ऑफ स्टाफ, पूर्व जनरल केली से कहा, ‘तुम… जनरल लोग जर्मन जनरलों जैसे क्यों नहीं बन सकते?’ केली ने उन्हें जवाब दिया था ऐसा कोई अमेरिकी जनरल नहीं है. लेकिन ट्रंप की तलाश रुकी नहीं.


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पसंदीदा चीफ भी उनके काम के नहीं निकले

ट्रंप ज्वाइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ के चेयरमैन (सीजेसीओएस), जनरल जोसेफ डनफोर्ड से भी खुश नहीं थे क्योंकि उन्होंने और सेक्रेटरी ऑफ डिफेंस जनरल जेम्स मैटिस ने राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर उनके कुछ बचकाने विचारों का विरोध किया था. सेक्रेटरी ऑफ डिफेंस की सलाह के विपरीत ट्रंप ने तत्कालीन चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ जनरल मार्क मिले को सीजेसीओएस के पद के लिए चुना. मिले का परिचय शानदार था लेकिन वे मुंहफट भी माने जाते थे. लेकिन अपने धाराप्रवाह सूत्र वाक्यों की वजह से वे ट्रंप के चहेते बन गए थे. वे कहा करते— ‘राष्ट्रपति महोदय, सेना आपकी सेवा के लिए प्रस्तुत है क्योंकि आप कमांडर-इन-चीफ हैं’. ‘राष्ट्रपति महोदय, फैसले आपको करने हैं… और मैं आपको ईमानदारी से बता दूं कि जब तक वे (फैसले) वैध होंगे, मैं उनका समर्थन करूंगा.’

ऐसा लगता है कि ट्रंप ने ‘जब तक वे (फैसले) वैध होंगे’ वाली शर्त पर ध्यान नहीं दिया. दो जनरलों ने अपने बारे में विचार किए जाने से मना कर दिया. एक ने महसूस किया कि वे ट्रंप के साथ काम नहीं कर सकते, दूसरे ने महसूस किया कि वे मैटिस के साथ काम नहीं कर सकते. मैटिस को काटने के लिए ट्रंप ने मिले को नियुक्त किया. लेखकों से ट्रंप ने कहा कि मिले को उन्होंने इसलिए नियुक्त किया क्योंकि मैटिस ‘उन्हें बर्दाश्त नहीं कर सकते थे, उनके लिए उनके मन में कोई इज्जत नहीं थी, और वे उनकी सिफारिश नहीं करेंगे.’ ट्रंप का इरादा गहरा चयन या बराबर वालों में से पहले का चुनाव करना नहीं था.

जो भी हो, विवादास्पद चयन और शुरू में डरपोक और हां में हां मिलाने वाले की तरह काम करने, जिसके लिए उन्हें कांग्रेस के सदस्यों का कोप झेलना पड़ा, के बाद मिले ने सुधार किया और सेना की नीति तथा संवैधानिक आदर्शों का पालन किया. मिले ने देखा कि ट्रंप तार्किक सलाहों की बिल्कुल उपेक्षा किया करते थे. उन्हें महसूस हो गया कि उनके सामने कड़ी चुनौती है.

1 जून 2020 से दिशा बदल गई. उस सुबह मिले ने ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन के प्रदर्शनकारियों के खिलाफ सेना की तैनाती की ट्रंप की मांग का कड़ा विरोध किया और सलाह दी कि नेशनल गार्ड्स (भारतीय सीआरपीएफ के बराबर) को तैनात करना काफी होगा. लेकिन इस पर ट्रंप ने जब चीखते हुए यह कहा कि ‘तुम सब के सब कायर हो… तुम सब के सब कायर हो. क्या तुम लोग उन पर गोली नहीं चला सकते? उनके पैरों पर गोली नहीं चला सकते…?’ तो मिले सन्न रह गए. उसी दिन मिले उस दल में शामिल थे जो ट्रंप के साथ वाशिंगटन के लफ़ाएत स्क्वायर के पास एक टूटे हुए चर्च में फोटो शूट के लिए गया था. काफी देर से ही सही, मिले की बुद्धि जागी.

उनके लिए फैसले की घड़ी आ गई थी. उन्होंने चार कारण गिनाते हुए अपना इस्तीफा लिखा— सेना का राजनीतिकरण, लोगो में खौफ पैदा करने के लिए सेना का इस्तेमाल, अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव और मौजूदा अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का नाश. लेकिन आत्ममंथन के बाद उन्होंने भीतर रहकर ही लड़ने का फैसला किया.

उन्होंने चर्च में अपनी मौजूदगी के लिए सार्वजनिक माफी मांगी. उन्होंने अपने साथी सेनाध्यक्षों को भरोसे में लिया और उन सबने मिलकर संविधान का पालन करने, राष्ट्रपति की किसी गलत अंतरराष्ट्रीय या राष्ट्रीय कार्रवाई (जैसे ईरान के खिलाफ फौजी कार्रवाई या घरेलू असंतोष से निपटने के लिए मार्शल लॉ लागू करने) से दूर रहने की एक योजना तैयार की. उन सबने चुनाव प्रक्रिया, सत्ता के संवैधानिक हस्तांतरण में किसी तरह के हस्तक्षेप को रोकने की भी योजना बनाई. इसके बाद जो हुआ वह एक इतिहास ही है.


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भारतीय सेना के लिए सबक

भारत के सत्ताधारी नेता सेना के राजनीतिक इस्तेमाल की लीपापोती देशभक्ति और राष्ट्रवाद के नाम पर किया करते हैं. भारतीय सेना भी अपनी मर्जी से या कमजोर रीढ़ के कारण राजनीतिक तमाशों का हिस्सा बनती रही. वह राजनीतिक रंग से रंगी हर सरकारी गतिविधि में अपना प्रदर्शन करती रहती है. अगर यह प्रवृत्ति बनी रही तो सेना भी राजनीतिक विचारधारा के रंग में रंग जाएगी और तब गंभीर समस्या उठ खड़ी होगी जब भिन्न राजनीतिक विचारधारा वाली पार्टी सत्ता में आएगी.
सेना की धर्मनिरपेक्ष परंपरा पर खतरा मंडरा रहा है. हमने परेड में धार्मिक अनुष्ठान किए जाने का तमाशा देखा ही है.

चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ नौसेना दिवस का कार्यक्रम छोड़कर गोरखपुर में मठ के मुख्य पुजारी, जो मुख्यमंत्री भी हैं, के साथ नजर आए थे. हम जनरलों को राजनीतिक किस्म के बयान देते और नेताओं को उनके जन्मदिन पर सोशल मीडिया पर बधाई संदेश भेजते भी देख चुके हैं.

लेकिन ज्यादा खतरनाक बात यह है कि सेना सरकार को स्पष्ट सलाह नहीं दे रही है. वास्तव में, ऐसा लगता है कि राजनीति और सेना के बीच मिलीभगत हमारी सैन्य शक्ति की झूठी तस्वीर पेश करने के लिए नाकामियों को छुपाने और सफलताओं को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने की कोशिशें की जा रही हैं.

वक्त आ गया है कि सेना आत्ममंथन करे और अपनी दिशा सही करे. मसला नैतिकता का है और इसके लिए जरूरी है कि आप अपनी रीढ़ सीधी रखें.

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटा.) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड थे. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्यूनल के सदस्य थे. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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