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Friday, 8 November, 2024
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अफगानिस्तान में अमन, भारत-पाकिस्तान के लिए स्थिरता की वकालत करते हुए US की दक्षिण एशिया में वापसी

भारत और पाकिस्तान के बीच नेपथ्य में चलने वाली गुफ्तगू के लिए अगले कुछ महीने में और मौके मिलने वाले हैं और इस बीच अमेरिका को अफगानिस्तान के लिए अपनी नयी रणनीति तय करने का भी मौका मिल जाएगा

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दक्षिण एशिया पर फिर से अमेरिका का ध्यान गया है, और न केवल भारत और पाकिस्तान नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर शांति कायम रखने के वादे कर रहे हैं बल्कि अमेरिकी विदेश मंत्री एंटोनी ब्लिंकन ने सप्ताहांत में अफगानिस्तानी शतरंज की बिसात पर एक अहम चाल चल दी है.

एलओसी पर शांति के कुछ ही दिनों बाद ब्लिंंकन ने अफगान राष्ट्रपति अशरफ ग़नी को यह सुझाव देते हुए पत्र लिखा कि वरिष्ठ अफगान नेताओं को तालिबान से आमने-सामने बैठकर बात करनी चाहिए और संयुक्त राष्ट्र के साथ मिलकर अफगानिस्तान मसले पर सम्मेलन आयोजित करना चाहिए जिसमें भारत भी भाग ले सकता है.

जाहिर है, ब्लिंकन का पत्र अफगानिस्तान में भारत की मजबूत मौजूदगी के पक्ष में एक बड़ा विश्वास मत जैसा है. पिछले दो दशकों में भारत, पाकिस्तान के इस दावे को मंजूर करने से मना करता रहा है कि वह अफगानिस्तान का करीबी पड़ोसी नहीं है, और हजारों अफगान छात्रों के लिए अपने दरवाजे खोल कर वह भौगोलिकता से जुड़ी कमियों की भरपाई करता रहा है, पाकिस्तान की अनदेखी करके अपना माल ईरान भेजने के लिए उसके चाबहार बंदरगाह में अपनी दिलचस्पी बढ़ा दी है. यही नहीं, भारत ने हर तरह के अफगान नेताओं से करीबी संपर्क बनाए रखा है.

(यहां एक कहानी बताना प्रासंगिक होगा. कई अफगानी लड़कियां भारत में पढ़ाई करने की बहुत ख़्वाहिश रखती हैं लेकिन उन्हें उनके रूढ़िवादी परिवार अकेले यात्रा करने या रहने की इजाजत नहीं देते, ऐसी लड़कियों के लिए भारतीय राजनयिकों ने कई बार नियमों में ढील देकर उनके भाइयों या मंगेतरों को भी स्कॉलरशिप दी है).

इसलिए, पिछले साल जबकि कोरोना महामारी फैली हुई थी तब भारत ने अफगानिस्तान पर अपनी नीति में बदलाव किया ताकि बड़े खिलाड़ी जब अपने पत्तों से खेल रहे थे तब वह भी उसमें मौजूद रहे. 2018 में रूस ने जब तालिबान के साथ बातचीत में भारतीय प्रतिनिधिमंडल को भी आमंत्रित किया था तब भारतीय दल को साफ निर्देश दिए गए थे कि वह उनसे कोई बात नहीं करेगा.


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अमेरिका से बात

पिछले सितंबर में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने तालिबान और अफगान सरकार के बीच दोहा में हुई प्रारम्भिक शांति वार्ता को संबोधित किया था. इसमें कई फैसलों का खुलासा किया गया था. पहला यह कि भारत हाशिये पर बैठा नहीं रहेगा, भले ही वह राष्ट्रपति ग़नी की ‘अफगानी नेतृत्व में अफगानी शांति प्रक्रिया’ का पालन करेगा, हालांकि यह हिदायत भी खुद को चर्चा में रखने के लिए था. दूसरा यह कि अगर अमेरिका पाकिस्तान को शांति प्रक्रिया में इसलिए वापस ला रहा है कि वह एकमात्र ऐसा देश है जो तालिबान को वार्ता की मेज पर ला सकता है, तो यह भारत को भी यह संदेश देने की कोशिश थी कि तालिबान से बात करो, खुद को हाशिये पर मत डालो.

तीसरी बात भी थी. अफगानिस्तान में अमेरिकी प्रभाव भले कमजोर पड़ा हो लेकिन उसका वर्चस्व लंबे समय तक बना रहेगा. भारत और अमेरिका के बीच बढ़ते सहयोग के तहत जयशंकर ने अफगानिस्तान मामले में भी अमेरिका की ओर हाथ बढ़ाया.

दोनों की स्थितियों में भारी अंतर होने के बावजूद जयशंकर ने कबूल किया कि जल्मे खलीलजाद से हाथ मिलाते दिखना भी महत्वपूर्ण है. इसलिए, जब डोनाल्ड ट्रंप के दूत—और अब जो बाइडन के दूत हैं—महामारी के बेकाबू होने से पहले भारत आए थे तो उसने उनका जबर्दस्त स्वागत किया.

खलीलजाद जो चीज़ चाहते थे वह जयशंकर की अपेक्षाओं से अलग थी. खलीलजाद चाहते थे कि भारत अफगान गणतंत्र के साथ शांति वार्ता की मेज पर तालिबान की वापसी में अड़ंगा न लगाए, बल्कि अफगानिस्तान के आर्थिक पुनर्गठन में मदद जारी रखे.

भारत चाहता था कि खलीलजाद अपनी आंखें खोल कर देख लें कि पाकिस्तान अपने रंग-ढंग नहीं बदल रहा है. भारत उन्हें याद दिलान चाहता था कि क्वेटा और मीरानशाह जैसे कई पाकिस्तानी शहरों में पाकिस्तान ने 2001 से तालिबान पर लगाम नहीं कसी है और काबुल की गद्दी पर कब्जा करने के अपने इरादे को अब जाकर छोड़ा है.

लेकिन जयशंकर अमेरिका के अनकहे दर्द को समझ गए. दुनिया का सबसे ताकतवर देश पीछे हट रहा था और वियतनाम युद्ध से भी लंबे चले अपने इस युद्ध से बाहर आना चाह रहा था. हजारों अमेरिकी सैनिक मारे जा चुके हैं, 2 ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा फुंक चुके हैं. इससे भी बुरी बात यह है कि ईरान से अमेरिका की बातचीत बंद है, यूरोप बहुत दूर है, रूस से होड़ लगी है और चीन अपने पत्ते नहीं खोल रहा है.

भारत बेशक एक भला देश हो, वह इतना कमजोर है कि इस क्षेत्र की राजनीति को दिशा नहीं दे सकता. खुद को प्रासंगिक बनाने के लिए वह क्या करे? चीन जब लद्दाख के बर्फीले पहाड़ों को नाप रहा था तब इस सवाल का जवाब और भी मुश्किल हो गया था.


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पड़ोस में पैठ

वैसे, अफगानिस्तान के लोगों से गहरा दोस्ताना रिश्ता बनाए रखने की भारत की नीति ने उसे वहां बेहतर स्थिति में रखा है. रणनीतिक धीरज रखने की यह नीति 2001 में तालिबान को उखाड़े जाने के बाद वाजपेयी सरकार ने तैयार की थी. यह मनमोहन सिंह वाले दशक में भी जारी रही और नरेंद्र मोदी सरकार ने इसे पुनः आगे बढ़ाया है. इससे यह सुनिश्चित हुआ है कि जब अफगानी मेज पर पासे चले जाएंगे तब भारत की अनदेखी नहीं की जा सकेगी.

उल्लेखनीय बात यह है कि जयशंकर इस इंतजार में नहीं बैठे रहे कि अमेरिका भारत को अपनी भूमिका निभाने के लिए आमंत्रित करेगा. वे अफगानिस्तान के पड़ोसियों से मिले. उनमें से कई के अमेरिका के साथ रिश्ते नगण्य रहे हैं. रूस में भारत और ईरान ने अफगानिस्तान पर एक त्रिपक्षीय वार्ता में भाग लिया था. ईरान के रक्षामंत्री बेंगलुरू में एअर शो देखने आए. भारत ने रूस के विशेष दूत ज़मीर काबुलोव से करीबी संपर्क बनाए रखा है, हालांकि काबुलोव पाकिस्तान के पार्टी अमेरिकी मोह से थोड़े प्रभावित नज़र आते हैं.

वाशिंगटन में सत्ता परिवर्तन ने साफ कर दिया है कि दिल्ली से काबुल जाने वाली सड़क इस्लामाबाद से जरूर गुजरनी चाहिए. यही वजह है कि एलओसी को लेकर समझौते की बात फिर से अक्टूबर में शुरू हो गई, जब अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की तैयारी चल रही थी और संकेत मिल रहे थे कि ट्रंप की उम्मीदवारी कमजोर पड़ रही है. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा से या राष्ट्रीय सुरक्षा मामले में प्रधानमंत्री इमरान खान के विशेष सहायक मोईद यूसुफ से मिले या नहीं इसको लेकर मीडिया में परस्पर विरोधी खबरें आईं. ये भी अटकलें हैं कि कोलंबो में ऐसी आमने-सामने की मुलाक़ात हुई.

ये वार्ताएं बेशक व्यवहार कुशलता का परिचय देती हैं. पाकिस्तान को भी समझ में आ गया है कि अनुच्छेद 370 को रद्द करने और जम्मू-कश्मीर को भारत संघ में शामिल करने के फैसलों पर अपनी नाराजगी छोड़नी पड़ेगी.

इसी तरह, मोदी सरकार ने भी सीमा पार से आतंकवाद का खात्मा हुए बिना पाकिस्तान से वार्ता न करने के अपने फैसले पर पलटी खाई है. लद्दाख में सेनाओं की वापसी और एलओसी पर शांति कायम करने के फैसले इस बात के सबूत हैं कि भारत दोनों सीमाओं पर मोर्चा नहीं खोलना चाहता.

फिलहाल, दोनों तरफ के लोग सांस रोके हुए हैं. धीरे-धीरे, निरंतर आगे बढ़ो, यही नया मंत्र है. एलओसी पर शांति को मजबूती देनी ही है. भारत में विधानसभाओं के चुनाव और पाकिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता—कुछ लोग कह रहे हैं कि इमरान खान अपने वित्तमंत्री हफीज शेख को संसद के लिए इसलिए निर्वाचित नहीं कर पाए क्योंकि पाकिस्तानी फौज को शेख का प्रतिद्वंद्वी बेहतर लगा—का मतलब है कि अगले कुछ महीने तनाव रहेगा.

यह भारत और पाकिस्तान के बीच नेपथ्य में चलने वाली गुफ्तगू के लिए ज्यादा समय उपलब्ध कराएगा. और अमेरिका को भी अफगानिस्तान के मामले में अपनी नई रणनीति तय करने और उसे लागू करने के लिए भी काफी समय मिल जाएगा.

(व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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