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Saturday, 21 December, 2024
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अमेरिका और मेक्सिको की तरह, हम भारत और पाकिस्तान के बीच दीवार नहीं बना सकते

आतंकवाद के खिलाफ अपनी लड़ाई में कूटनीतिक समर्थन बढ़ाने की कवायद में जुटा भारत सही रास्ते पर है. सैनिक दबाव से पाकिस्तान घुटने नहीं टेकेगा.

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अच्छे समय में भी भारत और पाकिस्तान के संबंध ढीले, अस्थिर और असामान्य रहे हैं. इस सप्ताह संबंध और कमज़ोर हो गए.

ताज़ा घटनाक्रम जम्मू कश्मीर के पुलवामा में 14 फरवरी को कट्टरपंथी बनाए गए एक युवा कश्मीरी आत्मघाती हमलावर द्वारा सीआरपीएफ के 40 जवानों की हत्या से शुरू हुआ है. पाकिस्तानी आतंकवादी गुट जैश-ए-मोहम्मद ने हमले की ज़िम्मेदारी ली है.

जैश-ए-मोहम्मद 2001 के बाद से भारत में हुए अनेक आतंकी अपराधों में भूमिका के लिए सीधे तौर पर दोषी है. आक्रामकता पर ज़ोर देने वाली सरकार के साथ खड़े नई सहस्राब्दी के भारत और भारतीयों ने तय किया कि सबसे प्रभावी रणनीतिक प्रत्युत्तर होगा- सशस्त्र प्रतिशोध. ऐसा सशस्त्र प्रतिशोध जो कि दंडित करने की भारत की प्रतिबद्धता और ताक़त दुनिया और पाकिस्तान को दिखा दे. सशस्त्र प्रतिशोध, क्योंकि पाकिस्तान वर्षों से जैश के खिलाफ कार्रवाई करने से इनकार करता रहा है, जिसका सरगना मौलाना मसूद अज़हर निरंतर पाकिस्तान सरकार से संरक्षण और समर्थन पा रहा है.

एक स्पष्ट परिदृश्य में, पाकिस्तान के खिलाफ प्रतिशोधात्मक कार्रवाइयों में कोई मुश्किल नहीं आनी चाहिए. आकार, आर्थिक शक्ति, लोकतांत्रिक बल, राजनीतिक स्थिरता और अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा जैसे मामलों में भारत के मुकाबले पाकिस्तान कहीं नहीं ठहरता. पर इसकी सत्ता संरचना में शक्तिशाली सेना का प्रभुत्व है, जो खुद को पाकिस्तान के ‘विचार’ का संरक्षक मानती है, और जिसका अस्तित्व भारत का प्रतिरोध करने के भावनात्मक आग्रह पर टिका है, भले ही इस कवायद में उनके खुद के देश का विनाश हो जाए. इस दृष्टि से पाकिस्तान भारत का कोई छोटा या साधारण दुश्मन नहीं है. वह भारत के लिए एक हौवा या दु:स्वप्न की तरह है. वह हर तरफ मौजूद रहनेवाला पड़ोसी घूरने वाला है.

कश्मीर को लेकर भारत-पाकिस्तान तनाव दोनों देशों के बीच 70 वर्षों से जारी कटुता और दुश्मनी का जीता-जागता उदाहरण है. यह ज़ख्म बढ़ता ही गया और इसने कश्मीर को मौत, विनाश, अलगाव, उग्रवाद और नागरिक अशांति के क्षेत्र में तब्दील कर दिया है. वास्तविकता यही है कि कश्मीर भारत के लिए एक समस्या है, जिसकी बुनियाद में है पाकिस्तान से विवाद, और जिसे गंभीर बनाती हैं दो बातें— नियंत्रण रेखा के उस पार से समर्थित उग्रवाद और इस मुस्लिम-बहुत राज्य के बहुत से लोगों में सताए जाने की गहन भावना कि राज्य और राष्ट्रीय दोनों ही स्तर के राजनीतिक वर्गों ने उनके साथ बुरा बर्ताव किया और धोखा दिया है.


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इस संवदेनशील सीमावर्ती राज्य में सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए भारी संख्या में तैनात सेना और अर्द्धसैनिक बलों को अक्सर आबादी के विभिन्न तबकों, और उत्तरोत्तर कश्मीरी युवाओं, के असंतोष और गुस्से का निशाना बनना पड़ता है. जन-असंतोष, कट्टरपंथ, सांप्रदायिकता और इस्लामी कट्टरता के प्रसार वाले इस माहौल में, स्थानीय रूप से और मुख्यत: पाकिस्तान से समर्थन पाने वाले, उग्रवाद के लिए सेना और अर्द्धसैनिक बलों के जवानों को निशाना बनाना आसान हो जाता है. पुलवामा हमला इसी का एक उदाहरण था.

भारतीय वायुसेना ने 26 फरवरी को पाकिस्तान के काफी अंदर खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के बालाकोट में एक आतंकवादी कैम्प पर हमला किया. यह जगह एबटाबाद के करीब है जहां कार्रवाई कर अमेरिकी बलों ने मई 2011 में ओसामा बिन लादेन को मारा था. भारतीय विमान बेरोकटोक पाकिस्तानी क्षेत्र में घुसे, अपने लक्ष्यों को निशाना बनाया, और वापस लौट आए. भारत ने बालाकोट में जैश के एक शिविर को नष्ट करने का दावा किया और ऐसी रिपोर्टें आईं कि हमले में जैश के 300 आतंकवादी मारे गए. पाकिस्तानियों ने इसका खंडन किया. युद्ध की धुंध सब कुछ ढंक लेती है.

मई 2001 के समान ही, पाकिस्तान सरकार को भारतीय विमानों को रोकने में नाकामी को लेकर शर्मिंदगी उठानी पड़ी. अमेरिकी दखल के विपरीत, भारत की ग्रंथि पालने वाले पाकिस्तान ने जवाबी कार्रवाई का प्रयास किया. अगले दिन कश्मीर में नियंत्रण रेखा के ऊपर भारत और पाकिस्तान की वायुसेनाओं के बीच भिडंत से तनाव का पारा काफी चढ़ गया.

दोनों देशों ने प्रतिद्वंद्वी के एक विमान को गिराने का दावा किया. विमान से कूदकर पाकिस्तानी इलाके में जा गिरे भारतीय वायुसेना के पायलट विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान को पाकिस्तानियों ने पकड़ लिया और उनके वीडियो सोशल मीडिया पर प्रसारित किए गए, जिसे जेनेवा संधि का उल्लंघन माना जा रहा है. इसके बाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने घोषणा की कि वह भारत के साथ गलत अनुमानों पर आधारित युद्ध नहीं चाहते और उनकी सरकार पकड़े गए पायलट को भारत को वापस कर देगी. माना जाता है कि पाकिस्तान पर अमेरिका और इसके करीबी मित्र देशों संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब की सरकारों ने तनाव को और नहीं बढ़ाने और भारत के साथ शांतिपूर्ण पहल करने के लिए दबाव डाला.


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भारत में बहुतों ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ख़ान की पहल को पाकिस्तान के दबाव में आकर झुकने के तौर पर और भारत की बढ़त के रूप में देखा. उनकी नज़र में अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में पाकिस्तान के भीतर जैश के खिलाफ ‘गैर-सैनिक, निवारक’ कार्रवाई करने में भारत सफल रहा है.

इसमें कोई शक नहीं कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय अधिकांशतया भारत को पाकिस्तान स्थित संगठनों के आतंकवाद का पीड़ित देश मानता है. इस तथ्य को भी स्वीकार किया जाता है कि पाकिस्तान आतंकवाद को भारत के खिलाफ अपनी आधिकारिक नीति के साधन के रूप में इस्तेमाल करता है.

परंतु पाकिस्तानी आतंकी संगठनों पर विश्वव्यापी प्रतिबंध लगवाने के भारत के प्रयास अभी पूरी तरह फलीभूत नहीं हुए हैं. मसूद अज़हर को संयुक्तराष्ट्र सुरक्षा परिषद की प्रतिबंधित सूची में डलवाने के काम में पाकिस्तान के निकट सहयोगी चीन ने रोड़ा अटका रखा है. इस तरह चीन ने पाकिस्तान के प्रति अपने कथित दायित्वों की खातिर आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ज़िम्मेदारी भरे आचरण को ताक पर रख दिया है. इसकी छाया चीन के साथ भारत के संबंधों पर भी पड़ रही है. हालांकि भारत इन संबंधों को सामान्य बनाने और व्यावहारिकता, सहयोग और शांतिपूर्ण वार्ताओं की भावना से आगे कदम बढ़ाने के लिए लंबे समय से प्रयासरत है.

हो सकता है पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के भारत से बातचीत के शांतिपूर्ण प्रस्ताव और और भारतीय पायलट को लौटाने की तत्परता को बहुतों की सराहना मिले, पर आतंकवाद को अपनी आधिकारिक नीति में शामिल करने के कारण वैश्विक स्तर पर पाकिस्तान की छवि दागदार है. अमेरिका के साथ इसका दोस्ताना संबंध तभी समाप्त हो गया था जब अमेरिकियों को समझ में आ गया कि पाकिस्तान की अफ़ग़ान नीति ने अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी हितों और वहां तैनात अमेरिकियों को कितना नुकसान पहुंचाया है.

भारत को सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के साथ घनिष्ट द्विपक्षीय संबंध बनाने की नरेंद्र मोदी सरकार की पहल के फायदे भी मिले हैं. इन देशों से भारत के संबंधों में परस्पर विश्वास का भाव अपने उच्चतम स्तर पर है. इस्लामी सहयोग संगठन (ओआईसी) के सम्मेलन में भारतीय विदेश मंत्री को अतिथि के तौर पर आमंत्रित किए जाने से भी यही जाहिर होता है. ओआईसी में भारत की उपस्थिति आधी सदी के अंतराल के बाद संभव हुई है. अभी तक भारत को इस मंच से बाहर रखने में पाकिस्तान की कुटिल भूमिका थी. इस बार, भारत को आमंत्रित किए जाने से नाराज़ पाकिस्तान ने सम्मेलन का बहिष्कार कर दिया. यह पाकिस्तान के लिए एक कूटनीतिक झटका, और साफ तौर पर भारत के लिए एक कूटनीतिक जीत है.

पर, इन सब बातों से भारत-पाकिस्तान संबंधों की मूल समस्या और कश्मीर में समस्याओं की जटिलता दूर नहीं हो सकती. जब दो परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्रों के बीच युद्ध का खतरा बना हुआ हो, ये दोनों ही के हित में है वे लड़ाई की कगार से कदम वापस खींचें और तनाव को कम करने के क्रमिक प्रयास करें. परमाणु क्षमता वाली लड़ाई कोई वीडियो गेम या टेलीविजन स्टूडियो में अथवा ट्विट्टर पर लापरवाही से उछाली जाने वाली गेंद नहीं होती. द्विपक्षीय रिश्तों को लेकर तार्किक और परिपक्व होना दोनों ही देशों के हित में है. वरना, परस्पर विनाश का खतरा मात्र सैद्धांतिक नहीं रह जाएगा.

आतंकवाद के खिलाफ अपनी लड़ाई में कूटनीतिक समर्थन बढ़ाने की कवायद में जुटा भारत सही रास्ते पर है. सैनिक दबाव से पाकिस्तान घुटने नहीं टेकेगा. आतंकवाद को पाकिस्तान का समर्थन खत्म कराने के लिए अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक सहभागिता को बढ़ाने, विकसित और मजबूत करने के प्रयास जारी रखने होंगे. इस कार्य के लिए फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन विशेष महत्व के हैं, जहां पाकिस्तान को अलग-थलग करने तथा आतंकवाद को समर्थन एवं संयत वित्तीय आचरण के अंतरराष्ट्रीय नियमों के उल्लंघन के लिए उस पर प्रतिबंध लगवाने के प्रयास तेज़ किए जाने चाहिए. आतंकवाद के खिलाफ इस गठबंधन को एकजुट करने के लिए भारत को इस क्षेत्र में कहीं ज़्यादा सक्रिय भूमिका निभानी होगी.

अब जबकि अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान से निकलने की तैयारी कर रहा है, शरारत और नुकसान करने की पाकिस्तान की क्षमता को खत्म करने के वास्ते भारत को अफ़ग़ानिस्तान – और ज़रूरत पड़े तो भारत-बहिष्कृत तालिबान को भी – तथा अन्य संबद्ध क्षेत्रीय ताकतों की अधिक सक्रिय भूमिका के लिए प्रयास करने की ज़रूर है. (तालिबान को इसमें शामिल करने का मतलब उसकी विचारधारा का समर्थन नहीं, बल्कि मात्र दोतरफा संवाद के साधन निर्मित करना है.) आतंकवाद को समर्थन भी परमाणु हथियारों के प्रसार की तरह अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों का आधार बनना चाहिए.

इसके साथ ही, आतंकवाद के खतरों से निपटने और अपनी भूमि पर आगे और आतंकी हमले नहीं होने देने के लिए हमें अपनी घरेलू सुरक्षा क्षमताओं में पर्याप्त वृद्धि करनी होगी. सुरक्षा खामियां और खुफिया तंत्र की नाकामियां घातक साबित हो सकती हैं.

इस साल चुनावों के बाद बनने वाली सरकार को भी इस बात पर पूरा ध्यान देना होगा कि पाकिस्तान के साथ कैसे संबंध रखे जाएं. जैसा कि अमेरिकी राष्ट्रपति मेक्सिको के साथ कर रहे हैं, हम पाकिस्तान और भारत के बीच ऊंची दीवार नहीं बना सकते. हम अपनी सुरक्षा तैयारियों को तथा लोकतंत्र और जनता की रक्षा के लिए सैनिक संसाधनों को चाहे जितना बढ़ा लें, हमारे पास शत्रु से आमने-सामने बातचीत की कूटनीतिक रणनीति भी होनी चाहिए, भले ही ये बातें परस्पर विरोधाभासी लगती हों.

दरअसल, आतंकवाद के खिलाफ अपने संघर्ष में भारत निश्चय ही वैश्विक समुदाय का समर्थन जुटा सकता है, पर एक आंशिक सैनिक संघर्ष भी बिल्कुल अलग मामला होगा. वैसी परिस्थिति में हम अपने विदेशी मित्रराष्ट्रों और सहयोगियों के हमारे समर्थन में उठ खड़े होने की अपेक्षा नहीं कर सकते, भले ही हमें लगता हो कि हम न्यायोचित बातों के लिए एक सही लड़ाई लड़ रहे हैं. लड़ाई का मकाम एकाकी और निर्जन होता है. इसकी कीमत सैनिकों और आम नागरिकों को चुकानी पड़ती है. विभाजक रेखाओं और सीमाओं के दोनों तरफ के नेताओं को इस बात का अहसास होना चाहिए कि इनका जीवन उनके भरोसे हैं. यह एक महती ज़िम्मेदारी है.

(लेखिका पूर्व विदेश सचिव हैं, और वह अमेरिका में भारत की राजदूत रही हैं. )

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