आज की तारीख में जो लोग भी जिस भी रूप में सत्ताओं के दमन या अत्याचार के शिकार हैं, उनके लिए यह याद करना खासा प्रेरणास्पद हो सकता है कि अपने वक्त के बेहद मशहूर व मकबूल शायर पं. बृजनारायण चकबस्त ने (जो उर्दू में आधुनिक कविता स्कूल के संस्थापकों में से एक थे और जिनकी आज जयंती है) देश के स्वतंत्रता संघर्ष में भाग लेते हुए दमनकारी गोरी सत्ता को यह लिखकर खुली चुनौती दी थी कि जुबां को बंद करें या मुझे असीर करें, मिरे खयाल को बेड़ी पिन्हा नहीं सकते.
उनके बारे में बात करनी हो तो दो हस्तियों के शब्द उधार लिये जा सकते हैं. इनमें पहली हस्ती हैं चकबस्त की रचनाओं के संग्रह ‘सुबह-ए-वतन’ के संपादक शशिनारायण ‘स्वाधीन’, जिन्होंने लिखा है कि चकबस्त अल्लामा इकबाल के दोस्त तो थे ही, उनसे कम बड़े शायर भी नहीं थे. लेकिन जिंदगी उनके लिए छोटी पड़ गयी. स्वाधीन की मानें तो चकबस्त उर्दू शायरी के भविष्य थे, उनमें गजब की सांस्कृतिक निष्ठा थी और उर्दू फारसी पर उनका समान अधिकार था.
दूसरी हस्ती हैं चकबस्त के एक और दोस्त तत्कालीन मशहूर वकील तेजबहादुर ‘सप्रू’, जिन्हें पूरे जीवन अफसोस रहा कि इकबाल और चकबस्त जैसे महानुभावों को अपना समय कानून व कविता के बीच बांटना पड़ा.
कश्मीर की जमीन से था संबंध
बहरहाल, इकबाल और चकबस्त में एक और चीज मिलती थी: दोनों का संबंध कश्मीर की जमीन से था. चकबस्त के कश्मीरी मूल के सारस्वत ब्राह्मण पुरखे 15वीं शताब्दी में उत्तर भारत में आ बसे थे. उनके पिता पं. उदितनारायण, जो स्वयं भी कवि थे, उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में डिप्टी कलेक्टर हुआ करते थे. गौरतलब है कि अंग्रेजी राज में डिप्टी कलेक्टर वह सर्वोच्च पद था, जो किसी भारतीय को मिल सकता था.
फैजाबाद में ही 19 जनवरी, 1882 को चकबस्त का जन्म हुआ लेकिन पांच साल बीतते-बीतते पिता नहीं रहे तो अपनी मां के साथ उन्हें लखनऊ चले जाना पड़ा. वहीं कश्मीरी मोहल्ले में रहते हुए उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कैनिंग कालेज से कानून की पढ़ाई पूरी की. 1905 में विवाह, 1906 में पत्नी की मृत्यु और 1907 में पुनर्विवाह उनके जीवन की इससे पहले की घटनाएं हैं.
जल्दी ही वे लखनऊ के सफल वकीलों में गिने जाने लगे और साहित्य के उन दिनों के एक बहुचर्चित मामले में उन्होंने शहर के प्रसिद्ध कवि दयाशंकर कौल ‘नसीम’ का बचाव किया. नसीम पर आरोप था कि वे झूठ-मूठ ही खुद को ‘गुलबकावली’ का रचयिता बताते हैं.
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लेकिन वकालत की सफलता उन्हें बांधकर नहीं रख सकी और वे स्वतंत्रता संघर्ष व उर्दू साहित्य के विशद अध्ययन में व्यस्त हो गये. फिर तो उन्होंने स्वराज के आंदोलन समेत अपने वक्त के कई राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों में खुलकर भागीदारी की. समाज सुधार के आंदोलनों में उनकी दिलचस्पी इस तथ्य से समझी जा सकती है कि कश्मीरी ब्राह्मणों के समुदाय में पहली बार आगरा में एक विधवा विवाह हुआ तो उन्होंने उसकी प्रशंसा में अपनी ‘बर्के-इस्लाह’ शीर्षक रचना में लिखा:
गम नहीं दिल को यहां दीन की बरबादी का.
बुत सलामत रहे इंसाफ की आजादी का.
उनका मानना था कि यह इंसाफ की आजादी देश की आजादी के बिना किसी भी देशवासी को मयस्सर नहीं हो सकती थी. इसलिए उन्होंने अपना संकल्प घोषित करते हुए यह भी लिख डाला :
तलब फिजूल है कांटों की फूल के बदले. न लें बहिश्त, मिले होम रुल के बदले.
इतना ही नहीं: चिराग कौम का रोशन है अर्श पर दिल के. इसे हवा के फरिश्ते बुझा नहीं सकते.
इस बीच मिर्जा गालिब, मीर अनीस और आतिश की कविताओं से बेहद प्रभावित चकबस्त और इकबाल की दोस्ती इस सीमा तक जा पहुंची थी कि इकबाल मुंबई में मालाबार हिल्स पर रहने वाली अपनी प्रेमिका अतिया फैजी (राजा धनराजगीर के सेक्रेटरी अंकल फैजी की बहन) से मिलने जाते तो भी बिना चकबस्त के न जाते. बताते हैं कि वहां धनराज महल में शाम की महफिलें जमतीं तो चकबस्त झूम-झूमकर अपने कलाम सुनाते. जिंदगी और मौत को परिभाषित करने वाला चकबस्त का यह दार्शनिक शेर तो उनकी जन्मभूमि फैजाबाद में उसके फैजाबाद न रह जाने के बाद भी बहुत लोकप्रिय है:
जिन्दगी क्या है अनासिर में जहूरे तरतीब. मौत क्या है इन्हीं अजजां का परीशाँ होना.
लेकिन, सच पूछिए तो उनकी काव्य प्रतिभा की जड़ें उनकी राष्ट्रीयता की भावना में ही हैं. हां, वे इस भावना और इससे जुड़ी चेतना के साथ अपनी कविताओं की शक्ल में ‘तहजीब के दरख्तों के तवील सायों’ को भी जोड़ गये हैं. उनके समकालीनों ने उन्हें इसके लिए बहुत सराहा है कि भले ही उन्हें अपने लखनवी होने पर गर्व था, उनके निकट जहालत के गुरूर के हाथों मुल्क की बरबादी ही अफसोस का सबसे बड़ा वायस थी:
गुरूरो जहल ने हिन्दोस्तां को लूट लिया. बजुज निफाक के अब खाक भी वतन में नहीं.
देश प्रेम की इसी धुन में उन्होंने आगे चलकर पारम्परिक उर्दू कविता के मानकों को दरकिनार कर अपने पाठकों को भाव प्रधान कविता का सर्वश्रेष्ठ रूप दिया. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ट्रांसवाल में शासकों से दुखी भारतीयों की दशा सुधारने के प्रयत्नों में लगे हुए थे तो चकबस्त ने ‘फरियादे कौम’ की रचना की. यह रचना छोटी पुस्तिका के रूप में छपी जिस पर गांधी जी का नाम इस प्रकार दिया गया था:
महात्मा मोहनदास करमचंद गांधी की सेवा में/निसार है दिले शायर तेरे करीने पर/किया है नाम तेरा नक्श इस नगीने पर.
इससे पहले पं. विशन नारायण दर की याद में लिखी उनकी नज्म ‘नजराना-ए-रूह’ प्रसिद्ध हो चुकी थी. लखनऊ में कश्मीर के नवयुवकों की सभा के 8वें अधिवेशन में उन्होंने अपनी नज्म ‘दर्दे दिल’ पढ़ी तो कहते हैं कि सारे नवयुवकों का दर्द उनकी आंखों में छलक आया था. 3 सितम्बर, 1911 को महामना मदनमोहन मालवीय और उनके समर्थक हिंदू विश्वविद्यालय के लिए चंदा मांगने लखनऊ आए और इस अवसर पर एक बड़ा अधिवेशन हुआ तो चकबस्त की नज्म ‘कौमी मुसद्दस’ ने समां बांध दिया था. एक समय कई पुराने नेता कांग्रेस से अलग हुए तो चकबस्त ने एक शीर्षकहीन नज्म रची:
आंसुओं से अपने जो सींचा किये बागे वतन,
बेवफाई के उन्हें खिलअत अता होने को हैं.
मादरे नाशाद रोती है कोई सुनता नहीं,
दिल जिगर से भाई से भाई जुदा होने को हैं.
कौम की लड़कियों से खिताब करते हुए तो वे अपनी भावनाओं को यह कहने से भी नहीं रोक पाये:
हम तुम्हें भूल गये उसकी सजा पाते हैं. तुम जरा अपने तईं भूल न जाना हरगिज.
खाके हिन्द, गुलजार ए नसीम, रामायण का एक सीन (मुसद्दस), नाल ए दर्द, नाल ऐ यास और कमला (नाटक) चकबस्त की अन्य प्रमुख रचनाएं हैं. उन्होंने मुख्य रूप से नज्में रची हैं, हालांकि गजलों के मश्क को वे मजहब-ए-शायराना कहते थे और मसनवी रचने के साथ उनकी लेखनी से 50 गजलें भी निकलीं. उर्दू के गद्य में भी उन्होंने अपने हाथ आजमाए हैं. उनकी कई रचनाएं मीर अनीस के मर्सियों की याद भी दिलाती हैं.
कम उम्र में हो गया देहांत
लेकिन जैसा कि स्वाधीन के शब्दों में पहले भी कह आए हैं, उम्र ने चकबस्त के साथ बड़ी नाइंसाफी की. 12 फरवरी, 1926 को वे रायबरेली रेलवे स्टेशन के निकट अचानक गिर पड़े तो फिर कभी नहीं उठे. कुछ ही घंटों बाद उन्होंने अंतिम सांस ले ली. तब वे सिर्फ 44 वर्ष के थे. 1983 में उनकी जन्मशती आई तो उनका गद्य-पद्य का समग्र साहित्य ‘कुल्लियाते चकबस्त’ नाम से कालिदास गुप्ता ‘रजा’ के संपादन में प्रकाशित हुआ.
उनकी जन्मस्थली फैजाबाद (अब अयोध्या) में स्थित उनके घर के आधे हिस्से में अब एक स्कूल संचालित होता है, जबकि आधे हिस्से में उनसे नजदीकी का दावा करने वाले कुछ लोग रहते हैं. लेकिन न स्कूल और न ही उनके नजदीकी लोगों को उनकी स्मृतियों और विरासत के संरक्षण से कोई लेना-देना है. उनकी स्मृतियों को संजोने का इस शहर में सिर्फ एक उपक्रम है, वह लाइब्रेरी जिस पर मीर अनीस के साथ उनका नाम भी चस्पा है, लेकिन उसका हाल भी कुछ अच्छा नहीं है.
(संपादन : इन्द्रजीत)
(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के पूर्व संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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