आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत की बातों को कभी हल्के में नहीं लेना चाहिए. और उस समय तो कतई नहीं, जब केंद्र में या किसी राज्य में बीजेपी की सरकार हो. किसी को भ्रम हो सकता है, लेकिन राजनीति को करीब से देखने वाले हर शख्स को पता होता है कि ये सरकारें दरअसल आरएसएस की होती हैं.
इसलिए जब 2015 में मोहन भागवत ने कहा कि ‘एक समिति बनाई जानी चाहिए जो यह तय करे कि कितने लोगों को और कितने दिनों तक आरक्षण की आवश्यकता होनी चाहिए. उन्होंने कहा कि ऐसी समिति में राजनीतिकों से ज्यादा ‘सेवाभावियों’ का महत्व होना चाहिए.’ आरएसएस की पत्रिका पांचजन्य और ऑर्गनाइजर को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि ‘संविधान में सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग पर आधारित आरक्षण नीति की बात है, तो वह वैसी हो जैसी संविधानकारों के मन में थी. वैसा उसको चलाते तो आज ये सारे प्रश्न खड़े नहीं होते. उसका राजनीति के रूप में उपयोग किया गया है.’
दरअसल संघ भारत में सवर्ण हिंदुओं और उनमें भी ब्राह्मणों को शिखर में रखने वाली सामाजिक व्यवस्था को कायम रखने के लिए बनाई गई संस्था है. वह भारत को उस ‘स्वर्णिम’ दौर में वापस ले जाना चाहता है, जब जाति व्यवस्था को सत्ता की मान्यता थी. लेकिन 1950 के बाद से भारत संविधान से चल रहा है जो अस्पृश्यता का निषेध करता है और वंचित जातियों को अनुच्छेद 15(4) और 16(4) के तहत विशेष संरक्षण और आरक्षण देता है.
तमाम जातियों का बराबरी पर आ जाना संघ के प्रोजेक्ट को कमजोर करता है. इसलिए संघ हमेशा से संविधान की और आरक्षण की समीक्षा की बात करता रहा है. अटल बिहारी वाजपेयी के शासन काल में बाकायदा एक संविधान समीक्षा आयोग भी बना था और उसने अपनी रिपोर्ट भी दी थी. लेकिन अगली सरकार ने उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया. केंद्र सरकार के मंत्री भी गाहे-ब-गाहे संविधान को बदलने की बात करते रहे हैं.
लेकिन इस बार लोकसभा में बीजेपी का प्रचंड बहुमत है और आरएसएस आरक्षण की व्यवस्था को बदलने के लिए और इंतजार करने को तैयार नहीं था. इसलिए ही सवर्ण आरक्षण का विचार सामने आया.
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लेकिन जब आरएसएस की मंशा लोकसभा और राज्यसभा में पूरी हो रही थी तो विपक्ष को ये बात समझ में ही नहीं आई कि सरकार संविधान की मूल भावना के खिलाफ काम कर रही है. विपक्ष को मुख्य एतराज इस प्रकार था- ‘मोदी सरकार सवर्ण आरक्षण बिल पर गंभीर होती तो इसे पिछले 56 महीने में लाती और सही रूप से चर्चा कराती, संसद की सेलेक्ट कमेटी में बिल भेजा जाता, गरीब सवर्ण आरक्षण के लिए आयोग बनता और फिर प्राप्त आंकड़ों को सामने रख कर इस बिल को संसद में पास कराया जाता.’
दरअसल यह विभिन्न दलों के राजनेताओं को भ्रम है कि सवर्ण आरक्षण पर सरकार ने जल्दीबाजी या बिना सोचे समझे बिल पेश कर दिया. या तो वे भ्रम में हैं या फिर खुद भी वही चाहते हैं जो आरएसएस और बीजेपी चाहती है.
अब इस बात में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है कि सवर्ण आरक्षण विधेयक की पूरी योजना संघ मुख्यालय में बनाई गई थी और केंद्र सरकार ने सिर्फ लिखी हुई स्क्रिप्ट पर अमल कर दिया. 7 तारीख को बिल बना और इसके 72 घंटे के अंदर संविधान में वो बदलाव कर दिया गया, जो संविधान के मूल आधारों में एक है.
संघ के थिंकटैंक ने इस बिल के जन्म से उसके भविष्य की पूरी पटकथा लिख कर उसपर महीनों तक चिंतन मनन करके मोदी सरकार को कहा होगा कि इसे कैसे पारित कराया जाए.
इसे चौंकाने वाले अंदाज में इसलिए पारित कराया गया ताकि एक तो इससे मोदी की ‘माचोमैन’ छवि और मजबूत होगी और दूसरे कि संविधान के मूल भावना के विरोधी इस बिल पर किसी को चर्चा करने और चर्चा करने के बाद इसके तमाम संविधान विरोधी दोष सामने ना आ सकें और फिर बिल को पेश और पास कराने में सरकार को संविधान विरोधी होने के आरोप का सामना ना करना पड़ जाए.
अर्थात छन कर जो तथ्य और प्रमाण इस बिल को संविधान विरोधी सिद्ध करते उसके लिए मोदी जी ने दूसरे दलों को सोचने और समझने का समय ही नहीं दिया.
सवर्ण आरक्षण का यह पूरा फार्मूला संघ का था, जिसके कई लक्ष्य हैं
1- एक तो इससे जातिगत आरक्षण व्यवस्था को नकारती एक नयी व्यवस्था स्थापित होगी
2- इसे ही संवैधानिक जातिगत आरक्षण का उचित और सफल विकल्प सिद्ध करके संवैधानिक आरक्षण की व्यवस्था की जगह लाने का मार्ग प्रशस्त्र होगा.
3- नाराज सवर्ण लोगों का तुष्टीकरण करके एससी/एसटी विधेयक से उनके अंदर उपजी नाराजगी दूर करना.
4.- सबसे महत्वपूर्ण यह कि हार्दिक पटेल जैसे हर वर्ग के क्षेत्रीय क्षत्रपों के आधार को यह संदेश देना कि सरकार ने उनको भी इस 10 प्रतिशत आरक्षण में शामिल करके उनकी मांगों को मान लिया है.
संघ की पेश इस मिसाईल से जाट आरक्षण, गुर्जर आरक्षण,पटेल आरक्षण जैसे तमाम मुद्दों को समाप्त करके इन जातियों को साधा जा सकता है.
आश्चर्य की बात है कि छोटी छोटी पार्टियाँ जैसे सपा,बसपा, टीएमसी इत्यादि तो संघ की इस चाल को समझ ना सकीं बल्कि देश पर सबसे अधिक राज करने वाली काँग्रेस भी संघ के इस झाँसे में आ गयीं और संविधान विरोधी आरक्षण व्यवस्था का समर्थन करके उसे संसद में पारित करा दिया.
दरअसल यह पूरी सोची समझी चाल संघ की थी और कार्यपद्धति मोदी की.
अफसोस कि तेजस्वी यादव, असदुदूदीन ओवैसी और डीएमके-एआईएडीएम के अतिरिक्त अन्य पार्टी के नेता इस चाल में बहुत आसानी से फंस गए. वे यह भूल गए कि संविधान की मूल भावना में आरक्षण वर्षों से दबी अपृश्य और सामाजिक रूप से कमजोर जातियों को समाज में अधिकार और बराबरी पर लाने का माध्यम है, ना कि गरीबी उन्मुलन के लिए प्रयोग किया जाने वाला कोई कार्यक्रम.
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार हैं.)