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Friday, 15 November, 2024
होममत-विमतUP, MP, गोवा, उत्तराखंड- BJP की कमांड और कंट्रोल सिस्टम क्यों बिखरती दिख रही है

UP, MP, गोवा, उत्तराखंड- BJP की कमांड और कंट्रोल सिस्टम क्यों बिखरती दिख रही है

अगर भारत के सबसे लोकप्रिय नेता मोदी और सर्वाधिक कुशल राजनीतिक रणनीतिकारों में से एक अमित शाह के नेतृत्व वाली पार्टी राज्यों में अंतर्कलह में घिरी दिख रही है, तो कुछ गड़बड़ ज़रूर है.

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उत्तराखंड में एक दिलचस्प राजनीतिक लड़ाई देखने को मिल रही है- मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत और उनके पूर्ववर्ती त्रिवेंद्र सिंह रावत के बीच. मौजूदा मुख्यमंत्री ने कुंभ मेले के दौरान फर्जी कोविड-19 परीक्षण घोटाले के लिए अपने पूर्ववर्ती पर दोष मढ़ने की कोशिश करते हुए कहा था कि ये सब उनके पद संभालने से पहले हुआ था और उन्होंने इसकी जांच के आदेश दिए हैं. इस पर न्यायिक जांच की मांग करते हुए त्रिवेंद्र सिंह ने शनिवार को पलटवार किया: ‘मैं विशेष जांच दल (एसआईटी) के खिलाफ नहीं हूं…लेकिन लोगों का अदालत पर अधिक विश्वास है.’

तीन महीने पहले तक मुख्यमंत्री रहे व्यक्ति के इस तरह पुलिस जांच पर भरोसा नहीं करने से निश्चय ही उत्तराखंड के पुलिसकर्मियों के सम्मान को चोट पहुंचती है. लेकिन यह कॉलम राज्य पुलिस या केंद्रीय जांच एजेंसियों पर नेताओं के भरोसे में कमी के बारे में नहीं है. यह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में निरंतर बढ़ती कलह के बारे में है, जिसका भौगोलिक विस्तार होता जा रहा है- उत्तर प्रदेश से लेकर कर्नाटक, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, गोवा और त्रिपुरा तक.


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कुछ तो गड़बड़ है

कर्नाटक को देखें तो येदियुरप्पा को अपदस्थ करने का अभियान तभी शुरू हो गया था जब उन्होंने राज्य की कांग्रेस-जद (एस) सरकार को हटाया था. मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने कहा कि अगर भाजपा आलाकमान चाहे तो वह इस्तीफा देने के लिए तैयार हैं. अगर उन्हें लगता था कि ऐसा करने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या गृह मंत्री अमित शाह खुलकर उनके समर्थन की घोषणा कर सकेंगे, तो शायद वह दिल्ली के मूड को ठीक से नहीं पढ़ पाए. ऐसी कोई घोषणा नहीं हुई. यहां तक कि भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने भी कर्नाटक में सत्ता परिवर्तन के बारे में लंबे समय से जारी अटकलों पर विराम लगाने के लिए कोई दोटूक बयान नहीं दिया है.

येदियुरप्पा एक चतुर राजनेता हैं, उन्हें शीर्ष नेताओं की चुप्पी की गूंज सुनाई देनी चाहिए. कर्नाटक के प्रभारी भाजपा महासचिव अरुण सिंह राज्य नेतृत्व में बदलाव की संभावना से इनकार कर सकते हैं लेकिन येदियुरप्पा और उनके विरोधी दोनों जानते हैं कि खामोशी अक्सर शब्दों से ज्यादा बोलती है.

राजस्थान में पूर्व मुख्यमंत्री और राज्य में भाजपा की एकमात्र जननेता वसुंधरा राजे एकला चलो की तैयारी करती दिख रही हैं, यदि राज्य इकाई में उनके विरोधियों का समर्थन कर रहे पार्टी आलाकमान ने अपनी रणनीति में बदलाव नहीं किया.

गोवा में मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत को तब शर्मिंदगी झेलनी पड़ी जब उनके स्वास्थ्य मंत्री ने राज्य के एक अस्पताल में कथित रूप से ऑक्सीजन की कमी से हुई मौतों की उच्च न्यायालय द्वारा जांच कराए जाने की मांग की. जबकि उनके ऊर्जा मंत्री ने बुनियादी ढांचे के विकास की मंजूरी नहीं मिलने की बात छेड़ कर यही काम किया.

मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने विरोधियों के निरंतर बैठकें करने और बारंबार नेतृत्व परिवर्तन की संभावनाओं से इनकार को लेकर निश्चय ही आशंकाओं में जी रहे होंगे.

उत्तर प्रदेश में कोविड आपदा के कुप्रबंधन को लेकर पार्टी सांसदों और विधायकों के हमलों का निशाना बने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने लगता है कि सत्ता पर अपनी मजबूत पकड़ को तोड़ने की कोशिशों को फिलहाल नाकाम कर दिया है. शनिवार को प्रधानमंत्री मोदी के विश्वस्त सहयोगी एके शर्मा को उत्तर प्रदेश भाजपा का 17वां उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया जो कि राजनीति के लिए नौकरी छोड़ने वाले ताकतवर पूर्व आईएएस अधिकारी के लिए कोई बड़ी उपलब्धि नहीं कही जाएगी. हालांकि योगी आदित्यनाथ के लिए ये शायद एक लंबे आंतरिक संघर्ष की शुरुआत भर हो.


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बिखराव के संकेत

आखिर भाजपा में हो क्या रहा है? क्यों अनुशासित मानी जाने वाली पार्टी अचानक राज्यों में विभाजित दिखती है? क्यों भाजपा की कमांड और कंट्रोल की प्रणाली ध्वस्त होती दिख रही है? यहां आयरिश कवि डब्ल्यूबी यीट्स की द सेकंड कमिंग की पंक्तियां याद आती हैं: ‘बड़े होते आवर्त्त में गोल-गोल चक्कर काटता बाज़/अपने स्वामी को सुन नहीं सकता/चीज़ें बिखर रही हैं/केंद्र के वश के बाहर/केवल अराजकता छाई है संसार में.’

संयोग से यीट्स ने इसे एक सदी पहले तब लिखा था जब स्पेनिश फ्लू ने दुनिया में तबाही मचा रखी थी. मैंने इससे पहले यूपीए-2 सरकार में अराजक स्थिति का वर्णन करने के लिए इन पंक्तियों को उद्धृत किया था. आज की भाजपा के संदर्भ में इसका इस्तेमाल शायद अतिरंजना लगे क्योंकि मोदी और शाह की सर्वोच्च सत्ता के लिए कोई चुनौती नहीं है. केंद्र सब कुछ काबू में रख सकता है, बशर्ते वो ऐसा करना चाहे. और तब ‘अराजकता’ शायद केवल उन लोगों को प्रभावित करे जो बाज़ के स्वामी को सुनने से इनकार करते हों.

लेकिन केंद्रीय नेतृत्व राज्यों में बाज़ों को नियंत्रित करने के लिए संघर्षरत दिखता है, खासकर ये इस बात से जाहिर होता है कि भाजपा के संकटमोचकों को कैसे देश के अलग-अलग हिस्सों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं: भूपेंद्र यादव के गुजरात के दो दौरे, बीएल संतोष के यूपी, कर्नाटक, गोवा और त्रिपुरा के दौरे और पिछले सप्ताहांत अरुण सिंह का तीन दिनों का बेंगलुरू प्रवास. और पश्चिम बंगाल भाजपा में संकट के बारे में जितना कम कहा जाए उतना अच्छा.


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चार समस्याएं

राज्यों में भाजपा के इस संकट के चार छोर हैं.

इनमें सबसे ऊपर है पार्टी के क्षेत्रीय क्षत्रपों की दावेदारी जो अपने राजनीतिक अस्तित्व के खातिर आलाकमान के कहे पर चलने से इनकार करते हैं. येदियुरप्पा और राजे इसी श्रेणी में हैं, जो अपने राजनीतिक उत्तराधिकारियों के लिए जगह बनाने के आलाकमान के इशारों पर ध्यान नहीं देते.

दूसरी समस्या पार्टी आलाकमान के करीबी वरिष्ठ भाजपा नेताओं की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं की है जो सोचते हैं कि उनका समय आ गया है- उदाहरण के लिए गुजरात में सीआर पाटिल तथा मध्य प्रदेश में नरोत्तम मिश्रा और कैलाश विजयवर्गीय.

तीसरी श्रेणी राजनीतिक दलबदलुओं की है जो सत्ता में हिस्सेदारी चाहते हैं, कि जिसके लिए उन्होंने अपनी वफादारी बदली थी. 2017 में कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए सुदीप रॉय बर्मन त्रिपुरा में मुख्यमंत्री बिप्लब देब को चुनौती दे रहे हैं. गोवा के स्वास्थ्य मंत्री विश्वजीत राणे, जो मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत के लिए परेशानियां खड़ी कर रहे हैं, कांग्रेस से आयातित नेता हैं. एएच विश्वनाथ, जिन्हें लगता है कि येदियुरप्पा में सरकार चलाने लायक ‘जोश’ या ‘ताकत’ नहीं है, जनता दल (सेक्युलर) से भाजपा में आए हैं.

संकट का चौथा पहलू उन लोगों की घर वापसी का है जो बेहतर पुरस्कार या सुरक्षा की उम्मीद में भाजपा में शामिल हो गए थे- यानि पश्चिम बंगाल के मुकुल रॉय और राजीव बनर्जी जैसे नेता.

इन चारों श्रेणियों के अवज्ञाकारियों के कारण राज्यों में भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बनती दिख रही है.

यहां एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि ऐसा अभी क्यों हो रहा है, खासकर ये देखते हुए कि महामारी प्रबंधन को लेकर संभवत: खराब हुई छवि के बावजूद मोदी देश के सबसे लोकप्रिय नेता बने हुए हैं. ऐसा नहीं है कि मोदी-शाह के दौर से पहले बीजेपी में अंदरूनी कलह नहीं थी. लेकिन आज ये जिस स्तर पर है उसे देखकर हैरानी होती है, खासकर मोदी के पहले कार्यकाल में अंदरूनी कलह की अभाव से तुलना करने पर.

क्या ऐसा इसलिए है कि लोकप्रिय क्षेत्रीय क्षत्रप या अन्य नेता भी विधानसभा चुनावों में हार और खराब प्रदर्शन से गलत सबक ले रहे हैं कि मोदी अपने दम पर उन्हें चुनाव नहीं जिता सकते, भले ही राष्ट्रीय स्तर पर खुद उनके लिए कोई चुनौती नहीं हो? इसलिए उन्हें अपना हित खुद देखना होगा! क्या ऐसा इसलिए है कि सत्ता, न कि वैचारिक विश्वास, भाजपा में उनकी राजनीति को परिभाषित करती है? इसलिए जब तक वे सत्ता कायम रखने या प्राप्त करने के मामले में पार्टी के लिए प्रासंगिक हैं, तब तक सौदेबाजी के साधन के रूप में असंतोष या विद्रोह जायज है. या ऐसा इसलिए है क्योंकि वे पार्टी नेतृत्व को कमजोर पाते हैं, खासकर महामारी में शासन का कमज़ोर पक्ष उजागर होने के बाद?

इन सवालों का कोई आसान जवाब नहीं हैं. लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अगर भारत के सबसे लोकप्रिय नेता और सर्वाधिक कुशल राजनीतिक रणनीतिकारों में से एक मोदी और शाह के नेतृत्व वाली पार्टी राज्यों में अंतर्कलह में घिरी दिखती है तो केंद्रीय नेतृत्व इसकी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता.

(व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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