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Thursday, 21 November, 2024
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जब तक मोदी का ‘विज़न’ यू-टर्न नहीं लेता, मणिपुर हिंसा दूर नहीं होगी

मई में हिंसा भड़कने के बाद से गेंद मोदी के पाले में है. लेकिन ऐसा लगता है कि उन्हें उम्मीद है कि मणिपुरियों की पीड़ा चुनावों के शोरगुल में दब जायेगी.

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मणिपुर में सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम या एएफएसपीए (Armed Forces Special Powers Act, or AFSPA) का हालिया छह महीने का विस्तार प्रक्रियात्मक और नियमित लग रहा था. आख़िरकार, इरोम शर्मिला के नेतृत्व में विरोध प्रदर्शन के बाद, 2004 से इंफाल नगर पालिका को छोड़कर, पूरे राज्य को 1999 से लगातार अशांत क्षेत्र घोषित किया गया है. राष्ट्रीय और मणिपुर दोनों स्तरों पर, राज्य की कठोर शक्ति के साधन के रूप में इसके उपयोग के खिलाफ कई कॉल्स के बावजूद AFSPA कायम है.

2022 में, गृह मंत्रालय ने सभी सात पूर्वोत्तर राज्यों में AFSPA की समीक्षा की और उन क्षेत्रों में संशोधन किए जहां यह अधिनियम लागू था. मणिपुर में, छह जिलों के 15 पुलिस स्टेशनों से अशांत क्षेत्र की अधिसूचना हटा दी गई, जिससे 16 जिलों के 82 पुलिस स्टेशनों के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों को अभी भी ‘अशांत’ के रूप में नामित किया गया है.

मार्च 2023 तक, चार पुलिस स्टेशनों के क्षेत्राधिकार को एएफएसपीए से मुक्त कर दिया गया, जिससे कुल 19 पुलिस स्टेशन ऐसे हो गए जहां एएफएसपीए लागू नहीं था. ध्यान देने वाली बात यह है कि ये सभी मैतेई बहुल इलाके हैं. मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह ने मीडिया से बात करते हुए कहा: “दूरदर्शी नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मार्गदर्शन और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के निरंतर प्रोत्साहन और समर्थन के तहत मणिपुर की सरकार राज्य की कानून-व्यवस्था में लगातार सुधार के लिए काम कर रही है.”

केंद्र सरकार द्वारा प्रदान की गई वित्तीय सहायता से, राज्य सरकार कई भूमिगत संगठनों और विद्रोही समूहों को शांति वार्ता के लिए बात करने या आत्मसमर्पण करने और मुख्यधारा में शामिल होने के लिए मनाने में सक्षम रही है. इन कार्रवाइयों के परिणामस्वरूप राज्य पुलिस बलों की बढ़ी हुई क्षमता के साथ विद्रोही गतिविधियों में कमी आई है.”

जातीय सफ़ाई की अनुमति देना

हालांकि, केवल तीन महीने बाद, मोदी का ‘विज़न’, शाह का ‘समर्थन’, पुलिस की प्रभावशीलता और शांति कायम करने के लिए उठाए गए कदम धरे के धरे रह गए. स्पष्ट प्रश्न यह है: ऐसा आशावाद एक अल्पकालिक मृगतृष्णा क्यों साबित हुआ? जातीय संघर्ष की आग भड़काने के लिए ट्रिगर के रूप में मणिपुर उच्च न्यायालय का एक फैसले ने किया, जिसमें राज्य सरकार को मैतेई समुदाय को आदिवासी का दर्जा देने का निर्देश दिया गया था.

हालांकि, अदालत का आदेश 29 मार्च को आया था, लेकिन इसे 19 अप्रैल को सार्वजनिक किया गया. जब मार्च में एएफएसपीए के तहत क्षेत्रों को कम किया गया और पांच पुलिस स्टेशन जोड़े गए, तो केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को उनकी खुफिया एजेंसियों के माध्यम से यह स्पष्ट हो गया होगा कि जातीय तनाव बढ़ेगा और हिंसा एक संभावित परिणाम होगी.

फिर भी, जब मई की शुरुआत में हिंसा भड़की, तो केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर राजनीतिक नेतृत्व ने प्रभावी रूप से अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लिया. उन्होंने इंफाल घाटी में कुकी-ज़ो कम्युनिटी के लोगों के जातीय सफाए को अनुमति देकर वे परोक्ष रूप से पक्षपातपूर्ण हो गए. इससे भी बुरी बात यह है कि स्थानीय पुलिस ने, राज्य के राजनीतिक नेतृत्व की मौन मिलीभगत से, व्यावहारिक रूप से भारी मात्रा में हथियार और गोला-बारूद मेतैइयों को सौंप दिया. लूटपाट के दौरान एक भी राउंड गोली नहीं चली और न ही किसी को चोट आई.

हिंसा भड़कने और यह जानकारी होने के बाद भी कि हजारों लूटे गए हथियार व गोला-बारूद मुख्य रूप से मैतेइयों के पास थे, 19 पुलिस स्टेशनों के अधिकार क्षेत्र से एएफएसपीए को हटाना, इन हथियारों को बरामद करने में दोनों सरकारों की ओर से गंभीरता की कमी को इंगित करती है. जो कि हिंसा को नियंत्रित करने और राजनीतिक वार्ता शुरू करने के लिए एक स्पष्ट शर्त है.

कुकी-ज़ो की ओर से, यह बताया गया है कि संघ, राज्य और लगभग तीस कुकी विद्रोही समूहों (दिसंबर 2022 में शामिल दो समूहों सहित) के बीच 2008 में हस्ताक्षरित त्रिपक्षीय समझौता, जिसे सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशंस के रूप में जाना जाता है, अब मुख्य रूप से कागज़ों पर ही मौजूद है. जबकि निर्दिष्ट शिविरों में कैडरों की उनके हथियारों सहित छिटपुट संयुक्त जांच की जा रही है, हिंसा के चल रहे चक्र में उनकी भागीदारी के संकेत हैं.

शरण प्रदान करने वाले शिविरों में, शिविर को गुप्त रूप से छोड़ना और मैतेई के खिलाफ हिट-एंड-रन हमलों को अंजाम देना बहुत आसान है, जो शायद अपनाई जाने वाली रणनीति है. चूंकि संचालन पर रोक अभी भी जारी है, सरकार समझौते से बंधी है और शिविरों के खिलाफ अभियान शुरू नहीं कर सकती है.


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दलीय हितों को प्राथमिकता दी गई

कठिन आंतरिक सुरक्षा स्थितियों में, कठोर शक्ति की वैध भूमिका हिंसा को नियंत्रण में लाना है, जिससे राजनीतिक बातचीत हो सके. संघर्ष में शामिल किसी भी पक्ष के पक्ष में एकतरफा समाधान राज्य की कठोर शक्ति का पक्षपातपूर्ण तरीके से उपयोग करके नहीं थोपा जाना चाहिए. ऐसा दृष्टिकोण गुजरात में मुस्लिम समुदाय के साथ काम कर सकता है, लेकिन हथियारों का सहारा लेने का इतिहास रखने वाले कुकी आदिवासियों के साथ इसके सफल होने की उम्मीद करना एक भ्रम है, जैसा कि मणिपुर में हिंसा के चल रहे चक्र से पता चलता है.

राज्य सरकार और उसके पुलिस बलों की पक्षपात समाप्त किए बिना और लूटे गए हथियारों और गोला-बारूद को बरामद किए बिना हिंसा पर काबू नहीं पाया जा सकता है. ये दोनों उपाय राज्य सरकार को बर्खास्त करने और पूरे राज्य में AFSPA के विस्तार की मांग करते हैं.

जबकि हथियारों की बरामदगी कथित तौर पर सेना, असम राइफल्स, केंद्रीय अर्धसैनिक बल (सीपीएमएफ) और संयुक्त कमान की देखरेख में चल रही स्थानीय पुलिस के साथ शुरू हो गई है, 19 पुलिस स्टेशन क्षेत्रों का अस्तित्व व्यावहारिक रूप से सेना के लिए पहुंच के बाहर है और असम राइफल्स लूटे गए हथियारों के लिए पर्याप्त छिपने की जगह उपलब्ध कराता है. कुकी की ओर, उनके निर्दिष्ट शिविर सुरक्षित आश्रय प्रदान करते हैं. जाहिर है, उन्होंने बहुत कम मात्रा में हथियार और गोला-बारूद बरामद किया है, जिसे ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ जैसा कहा जा सकता है. हालांकि, रिकवरी की प्रक्रिया को सक्रिय करने के लिए, जिसके लंबे समय तक चलने की उम्मीद है, एक आवश्यक शर्त केंद्र का शासन लागू करना है.

हालांकि, सत्ता में भाजपा सरकार को बर्खास्त न करके, केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय हितों पर पार्टी हितों को प्राथमिकता दी है, यह अच्छी तरह से जानते हुए कि मणिपुर की स्थिति लंबे समय से चले आ रहे आदिवासी मुद्दों, विशेष रूप से मिज़ोस, नागा और इसी तरह के जातीय मुद्दों से जुड़ी हुई है खासकर म्यांमार में सीमा पार समूह, जिनमें से कुछ ने मिजोरम और मणिपुर में शरण ली है.

इसलिए, जब तक मोदी का दृष्टिकोण मणिपुर में हिंसा से निपटने के मामले में यू-टर्न नहीं लेता, सामान्य स्थिति की दिशा में प्रगति की संभावना नहीं है. मई में हिंसा भड़कने के बाद से गेंद काफी हद तक प्रधानमंत्री के पाले में है. लेकिन ऐसा लगता है कि उन्हें उम्मीद है कि मणिपुरियों की पीड़ा राज्य और राष्ट्रीय चुनावों के शोरगुल में दब जाएगी. यदि ऐसा मामला है, तो यह शासन-कला के व्यवहार में अदूरदर्शिता का एक निंदनीय और अत्यधिक शोचनीय कार्य हो सकता है.

(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (सेवानिवृत्त) तक्षशिला संस्थान में निदेशक, रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम; पूर्व सैन्य सलाहकार, राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय हैं. उसका एक्स हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त किए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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