मेरे एक दोस्त हैं हिलाल अहमद. मेरी तरह वे भी दिप्रिंट के स्तंभकार हैं. उन्होंने अपनी मेज पर तीन तस्वीरें सजा रखी हैं. एक तस्वीर काबा-शरीफ की है, आपको ये याद दिलाती हुई कि हिलाल पांचों वक्त के नमाजी हैं. बगल में एक स्केच चे ग्वेरा की है चूंकि हिलाल अहमद का मार्क्सवादी विचार-परंपरा से गहरा जुड़ाव है. और, तीसरी तस्वीर महात्मा गांधी की है, उनके आचार विचार से मिली प्रेरणा का सबूत.
इसमें कुछ अटपटा लगता है न? अटपटेपन का भी मामला सुंदरता की तरह है, वह अक्सर देखने वाले की आंखों में हुआ करता है. किसी बंगाली परिवार में रामकृष्ण परमहंस और उसके ठीक बगल में लेनिन की तस्वीर के अतिरिक्त कोई और तस्वीर दिखायी दे तो हमें ये इतना विचित्र क्यों नहीं लगता? दरअसल हमारे समाज ने मुसलमान के लिए कुछ बने बनाये खांचों के बाहर कोई पहचान के विकल्प छोड़े नहीं हैं.
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दुविधा के दो छोर
रविवार के दिन फरवरी में हुए दंगों के बाबत उमर खालिद की गिरफ्तारी हुई तो ये सवाल मेरे मन में उमड़ा. आप नौजवान हैं, जाहिर है मिजाज़ से बागी हैं. साथ में आप हिन्दुस्तानी हैं और मुसलमान भी. क्या आप यह सब एक साथ हो सकते हैं, बिना अपनी पहचान या अपने मिजाज़ से समझौता किये? यह काम ब्राह्मण के लिए आसान है, मराठा या दलित के लिए भी मुमकिन है लेकिन मुसलमान के लिए? आज नई पीढ़ी के लाखों पढ़े-लिखे भारतीय मुसलमानों का मन-मानस इस दुविधा से बिंधा हुआ है.
अपने युनिवर्सिटी के दिनों में मैंने कई नौजवान मुसलमानों को इस दुविधा के एक या दूसरे सिरे पर खड़े होकर अपने लिए एक दमघोंटू विकल्प चुनते देखा है. वो इतिहास जो उन्होंने बनाया ही नहीं उसी का बोझ ढोने को बाध्य और हरचंद अपने ही मुल्क से वफादारी का सबूत पेश करते चलने की जरूरत के मद्देनज़र किसी नौजवान मुसलमान के सामने बस दो ही विकल्प हुआ करते थे- या तो उसे अपना मुस्लिमपना भूल जाना होता था या फिर अपने बगावती तेवर से तौबा कर लेनी होती थी.
मेरी जान-पहचान के ज्यादातर वामपंथी मुस्लिम साथियों ने पहला रास्ता चुना. वे नास्तिक बन गये, अपने परिवार और समुदाय से नाता तोड़ लिया, किसी सेक्युलर और कॉस्मॉपॉलिटनी मिजाज की जगह पर अपने लिए ठिकाना ढूंढ़ा. बाद में जिंदगी के किसी मोड़ पर उनमें से कुछ साथियों को अहसास हुआ कि दरअसल वे बहुत अकेले रह गये हैं और अब भी उन्हें मुसलमान ही माना जा रहा है. इससे अलग कुछ और भी थे. उन्होंने दूसरा रास्ता चुना- अपने बगावती तेवर को भीतर ही भीतर दबा दिया, ‘अच्छा’ और आस्थावान मुस्लिम बनकर जिंदगी गुजारने की राह पर चल निकले और अपना करिअर बनाया. हां, गाहे-ब-गाहे उन्हें आईने के सामने अपने अक्स से नजरें चुरानी की जहमत भी उठानी होती थी.
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तीसरा रास्ता
उमर खालिद ऐसी क्रूर नियति की जद से उबर चुकी शख्सियत का नाम है. संयोग कहिए कि मैंने उमर खालिद को उस घड़ी जाना जब उनका नाम राजद्रोह के मामले में आ चुका था और इस मामले के बदौलत उनका नाम मशहूर शख्सियतों में शुमार हुआ था. तब तक मैं ये जान चुका था कि मामला निहायत फर्जी है और ऐसे कोई सबूत नहीं हैं जिनकी बिनाह पर उमर खालिद या फिर कन्हैया कुमार को उन नागवार भारत-विरोधी नारों के साथ जोड़ा जा सके. लेकिन तब भी विद्रोही तेवर के इस धुर वामपंथी नौजवान को लेकर मेरे जेहन में एक खटका लगा रहता था.
मैंने अपनी जिंदगी में ऐसे कई क्रांतिकारी नौजवान देखे हैं. उनका आदर्शवाद और त्याग-बलिदान मुझे आकर्षित करता था लेकिन उनकी विचारधारा को जान कर माथा ठनक जाता था. सो, ऐसे में उमर खालिद को जानना एक सुखद आश्चर्य की तरह था. खालिद जुनूनी तो है लेकिन फितरतन हड़बड़िया कत्तई नहीं. मशहूर है लेकिन उसके पैर जमीन पर जमे रहते हैं. उसने पढ़ाई खूब की है लेकिन असल की दुनिया से उसका जुड़ाव खूब अच्छी तरह बना हुआ है, स्वप्नदर्शी है तो साथ में व्यावहारिक भी है.
खालिद उन ‘क्रांतिवीरों’ में नहीं जो भारतीय राजसत्ता को हिंसा के रास्ते पलट देने का दिवास्वप्न देखते हैं. वह लोकतांत्रिक राजनीति के आड़े-तिरछे रास्तों पर चलने की चाहत से भरा हुआ मुसाफिर है. जाति और जेंडर (लिंग) के सवालों से जूझने को हर वक्त तत्पर वह वामधारा की एक ऐसी शख्सियत है जिसे मैं भविष्य में एक बड़े नेता के रूप में उभरता देखना चाहता हूं.
लेकिन इन बातों से अलग एक और ही खासियत है उमर खालिद में जिसने मेरा ध्यान खींचा है- वह अपनी मुस्लिम पहचान के साथ आपसे मुखातिब होने को तत्पर है लेकिन सिर्फ मुस्लिम नामक बाड़े में बंद होने से इनकार करता है. उसके पिता जमात-ए-इस्लामी से जुड़े हैं. ऐसे में ये बात बड़ी मायने रखती है कि उसने न तो उनकी नकल पर मुस्लिम फंडामेटलिज्म की राह चुनी और न ही बाप की प्रतिक्रिया में उलटा अपनी मुस्लिम पहचान से पीछा छुड़ाने की राह चुनी.
मेरे दोस्त हिलाल की तरफ खालिद कोई पांचों वक्त की नमाज अदा करने वाला आस्थावान मुसलमान नहीं है. उसकी संगिनी, उसकी बौद्धिक और राजनीतिक हमराही, बंगाली हिन्दू है. उमर खालिद पस्मांदा (पिछड़ी जाति) मुसलमानों की बात करता है जो मुस्लिम अभिजन को चिढ़ाने के लिए काफी है. और ऊपर से वामपंथी है. यानि एक ऐसा नौजवान है जिससे मुस्लिम समुदाय की राजनीति दूर से ही किनारा कर लेती है.
इन बातों के बावजूद उमर खालिद बड़ी बेबाकी से अपने मुस्लिम होने के अहसासात के बारे में बोलता है. सरकारी दस्तावेजों जैसे सच्चर समिति की रिपोर्ट में मुसलमानों की जिस दयनीय दशा का जिक्र है, उसके बारे में उमर खालिद खुलकर बोलता है. वह वंचना के शिकार अन्य समुदायों दलित, आदिवासी, ओबीसी तथा महिलाओं आदि की दयनीय दशा से मुस्लिम समुदाय की वंचना की स्थिति को जोड़कर देखता-समझता है. वो संविधान-प्रदत्त अधिकारों के मुहावरे में बोलता है, ठीक वैसे ही जैसे कि किसी अन्य समुदाय का नेता बोलेगा. लेकिन वह खासतौर से एक ऐसे भेदभाव के खिलाफ बोलता है जो मुसलमानों के साथ उनके मुस्लिम होने के कारण किया जा रहा है और जो अन्य वंचित समुदायों और गरीबों के साथ होने वाले भेदभाव से अलहदा है. वो भेदभाव भरे नागरिकता कानून के अग्रणी मोर्चे पर रहा लेकिन इस आंदोलन में उसने मुस्लिम सांप्रदायिक संगठनों से दूरी बनाए रखी. वह साहस और संकल्प भरे स्वर में बोलता है.
मुझे वो मंजर याद है जब उमर खालिद के आह्वान पर हजारों हजार मोबाइल फोन टार्च की शक्ल में जल उठे थे और उमर खालिद के होठों से नारा बुलंद हुआ था- हम क्या मांगे, आजादी..भूख से आजादी..आंबेडकरवाली आजादी…
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त्रासदी को छिपाता एक और प्रहसन
तो दोस्तों, ऐसा है उमर खालिद: युवा, आदर्शवादी, क्रांतिकारी तेवर, गैर समझौतापरस्त और हिन्दुस्तानी! और, इन सारी बातों के साथ-साथ हरचंद मुसलमान भी! यही बात है जो उसे आज युवाओं का आदर्श बनाती हैं, खासकर शिक्षित मध्यवर्गीय भारतीय मुसलमानों की नई पीढ़ी का आदर्श. ये नई पीढ़ी कठमुल्लों और मुसलमानों के नाम पर सियासत कर रहे नेताओं के चंगुल से निकलने के लिए छटपटा रही है, मुसलमान मुहल्लों की बाड़ाबंदी में जीने की मजबूरी से तंग आ चुकी है, अपने समुदाय की चली आ रही रुढ़ छवियों के चंगुल से आजाद होने को आतुर है.
लेकिन नई पीढ़ी का आदर्श बनता वही उमर खालिद गिरफ्तार कर लिया गया है. याद कीजिए कि उसपर कैसे हास्यास्पद आरोप मढ़े गये हैं. उमर खालिद को यूएपीए कानून के तहत गिरफ्तार किया है जो आतंक-निरोधी सर्वाधिक सख्त कानूनों में एक है. जिस उमर खालिद को 2018 से ही पुलिस के संरक्षण में रहना पड़ा है (एक पुलिसकर्मी लगातार उसकी ‘रक्षा’ के निमित्त हमेशा साथ होता है) और शायद इलेक्ट्रॉनिक्स की नई युक्तियों के सहारे उसपर निगरानी भी रखी जा रही हो, उसके बारे में दिल्ली पुलिस आपको ये विश्वास दिलाना चाहती है कि उसने देश की राजधानी दिल्ली में हिंसा का व्यापक षड्यंत्र रचा और अंजाम दिया.
आप वामपंथियों पर और चाहे जो भी आरोप मढ़ दें लेकिन उनपर सांप्रदायिक हिंसा का आरोप नहीं लगा सकते. लेकिन पुलिस चाहती है, आप ये मानकर चलें कि उमर खालिद पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) का साथी-समाजी है जबकि सच्चाई ये है कि उमर खालिद ताउम्र ऐसे ही सांप्रदायिक संगठनों के खिलाफ रहा है. दिल्ली पुलिस चाहती है, आप यकीन कर लें कि उमर खालिद ने 8 जनवरी को एक गुप्त बैठक की और योजना बनायी कि ट्रंप के दिल्ली दौरे के वक्त दिल्ली में हिंसा भड़क उठे जबकि असलियत ये है कि उस वक्त तक किसी को ये तक पता नहीं था कि ट्रंप भारत दौरे पर आने वाले हैं! उमर खालिद अगर कोई ‘यादव’ या फिर ‘येचुरी’ होता तो ऐसे आरोपों की हंसी उड़ायी जाती और कहा जाता कि दिल्ली पुलिस को कोई ऐसी कहानी परोसनी चाहिए जो लोगों के गले उतर सके. लेकिन, इस बात का क्या कीजिएगा कि उमर खालिद तो मुसलमान है!
अगर आप नौजवान हैं, क्रांतिकारी तेवर के हैं, मुसलमान हैं तो फिर उमर खालिद की गिरफ्तारी का आप क्या अर्थ निकालेंगे? अब आप ये तो नहीं कर सकते ना कि नौजवान ही ना रहें. शायद आप युवा के स्वाभाविक बगावती मिजाज़ से भी समझौता नहीं कर सकते और आप ये तो निश्चित ही नहीं चाहेंगे कि अपनी मुस्लिम पहचान से मुंह मोड़ लें, वो भी डर के मारे. जो आप ये सब नहीं करते तो फिर आपके पास विकल्प ही क्या बचता है?
हो सकता है, उमर खालिद की गिरफ्तारी उसके लिए व्यक्तिगत त्रासदी ना हो. जैसा कि लोकमान्य तिलक ने कहा था, शायद सच यही हो कि आजाद रहने के बजाए जेल की कोठरियों में बंद होने से उसकी आवाज़ ज्यादा गूंजे. ऐसा हो सकता है की वह इस कैद के चलते देश का नायक बनकर उभरे, जिसका वो हकदार भी है. लेकिन, त्रासदी ये है कि उमर खालिद की गिरफ्तारी से भारतीय मुसलमानों की एक पूरी युवा पीढ़ी के लिए गरिमामय और लोकतांत्रिक तरीके से अपनी आवाज उठाने का दरवाजा मानो बंद हो गया है. दरअसल यह त्रासदी उमर खालिद के साथ नहीं, भारत के स्वधर्म के साथ घटित हुई है.
(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी है)
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