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Monday, 18 November, 2024
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यूक्रेन युद्ध साबित कर रहा भावी लड़ाई एडवांस मिसाइलों से जीती जा सकेंगी, भारत उन्हें जल्द हासिल करे

भारतीय सेना के पास अत्याधुनिक रूसी इगला मिसाइलें हैं और अपाशे हेलिकॉप्टरों के लिए स्टिंगर मिसाइलें सीमित संख्या में है जो ज्यादा असरदार नहीं साबित होंगी.

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यूक्रेन ने अपने खारकीव इलाके पर जो जवाबी कार्रवाई 5 सितंबर को शुरू की और उसके बूते उसने अपने 6,000 वर्गकिलोमीटर क्षेत्र पर जिस तरह वापस कब्जा कर लिया उसके बाद यह कयास लगाया जाने लगा कि अब रूस की हार होने ही वाली है. लेकिन रूस के पास जो विशाल रिजर्व फौज और अब तक इस्तेमाल न की गई युद्ध क्षमता है उसके मद्देनजर उसकी निर्णायक सैन्य पराजय की संभावना नहीं दिखती, लेकिन उसे रोक तो दिया ही गया है. यह अधिक ताकतवर देश के लिए राजनीतिक हार से कम नहीं है. अगर यूक्रेन अपने खेर्सण को वापस हासिल कर लेता है तो जान-माल के बढ़ते नुकसान के कारण रूस शर्म से बचने के लिए डोनबास और क्रीमिया में सीमित जीत का सौदा कर सकता है.

ऐसे कई उदाहरण हैं जब बड़ी ताकतों को लंबी छापामार लड़ाइयों में थककर राजनीतिक हार कबूल करनी पड़ी है. वियतनाम और अफगानिस्तान इसके प्रमुख उदाहरण हैं. यूक्रेन सैन्य इतिहास में यह अनूठा उदाहरण पेश करेगा जब एक छोटे देश ने एक पारंपरिक युद्ध में बड़ी सैन्य ताकत को हराएगा. राष्ट्रीय संकल्प, रणनीति, नेतृत्व, प्रेरणा और बेहतर प्रशिक्षण जैसे तत्वों के अलावा अत्याधुनिक सैन्य तकनीक का उपयोग निर्णायक सिद्ध हुआ.

भवनों आदि के इलाकों को छोड़कर दूसरी जगहों पर भीषण करीबी युद्ध नहीं हुआ है. लड़ाई जिताने वाले टैंकों, विमानों, हमलावर हेलिकॉप्टरों, और तोपों को काफी हद तक नाकाम कर दिया गया है. लड़ाइयों के नतीजे ‘प्रिसीजन गाइडेड म्यूनिशन’ (पीजीएम) तय कर रहे हैं जिन्हें विमानों, हेलिकॉप्टरों, ड्रोनों, जमीन पर तैनात वेपन सिस्टम से दागा जाता है. इन वेपन सिस्टम को प्रभावी साइबर तथा इलेक्ट्रॉनिक युद्ध से अप्रभावित रहने वाले कमांड, कंट्रोल, संचारतंत्र, कंप्यूटर, खुफिया तथा टोही व्यवस्था, ‘टार्गेट एक्वीजीशन ऐंड रीकनासां (सी4आइस्टार) सिस्टम का सहारा हासिल होता है. सैन्य तकनीक पर अभी भी मनुष्य की मदद और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस वेपन के समर्थन से चलने वाली वेपन सिस्टम का वर्चस्व कायम है. पूर्णतः स्वायत्त आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस वेपन सिस्टम को आने में अभी दो दशक लग सकते हैं.

यूक्रेन युद्ध में तीसरी से लेकर पांचवीं पीढ़ी के टैंक-रोधी गाइडेड मिसाइलों (एटीजीएम), ड्रोनों, मनुष्य द्वारा ढोए जा सकने वाले एअर डिफेंस वेपन सिस्टम्स (मैनपैड) ने बड़ी भूमिका निभाई है. यहां मैं इन वेपन सिस्टम्स के संदर्भ में भारतीय सेना की मौजूदा क्षमताओं का विश्लेषण करने की कोशिश करूंगा.


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टैंक-रोधी गाइडेड मिसाइल

टैंक 100 साल से ज्यादा समय से युद्ध क्षेत्रों पर राज करते रहे हैं. उनकी तकनीक दूसरी पीढ़ी के ‘सेमी-ऑटोमेटिक कमांड टु लाइन ऑफ साइट’ (साकलोस) गाइडेड टैंक-रोधी वेपन्स के साथ आधुनिक होती गई है. कम्पोजिट/एक्सप्लोसिव रीएक्टिव आर्मर, इलेक्ट्रॉनिक/काइनेटिक जवाबी कार्रवाई और खुले ऑपरेटोरों को निशाना बनाने में किया जाता है. यूक्रेन युद्ध में जेवलीन और न्यू जेनरेशन लाइट एंटी टैंक वेपन (एनएलएडब्लू) जैसी टैंक-रोधी मिसाइलों के इस्तेमाल से काफी फर्क पड़ा है. 1,000 से ज्यादा रूसी टैंक नष्ट किए जा चुके हैं. ये मिसाइलें इलेक्ट्रॉनिक और काइनेटिक जवाबी हमलों को नाकाम करती हैं, टैंक के कमजोर शिखर को निशाना बनाती हैं और किसी खुले ऑपरेटर को इन पर नज़र रखकर इन्हें निर्देशित नहीं करना पड़ता.

भारतीय सेना के पास दूसरी पीढ़ी के 6,000 टैंक-रोधी मिसाइल लांचरों का बड़ा भंडार है. थलसेना के पास मिलन टी-2, मिलन के लिए ‘फैगोट लांचर’ (फ्लेम), कोंकुर्स और कोरनेट मिसाइलें मौजूद हैं. हरेक ‘बीएमपी’ के पास कोंकुर्स मिसाइल लांचर मौजूद हैं. टी-90 टैंक 9एम119एम मिसाइलों से लैस हैं, जिन्हें मुख्य तोप से दागा जा सकता है. ‘अपाशे’ को छोड़ बाकी सारे हमलावर हेलिकॉप्टर—मसलन एमआई 25/35 और रुद्र—दूसरी पीढ़ी की मिसाइलों से लैस हैं. ये सभी मिसाइलें स्थिर लक्ष्यों में से 90 फीसदी को नष्ट करने की क्षमता रखती हैं. लेकिन इन सबकी निरंतर निगरानी रखने के लिए ऑपरेटर को खुले में आना पड़ता है. ये मिसाइलें सीधे क्षैतिज दिशा में हमला करती हैं, जिन्हें टैंकों की सुरक्षा सिस्टम नाकाम कर देती है. इस कारण युद्ध में ये 25-30 फीसदी तक ही प्रभावी हो पाती हैं. इसलिए टैंकों को ही तरजीह दी जाती है.

इजरायल से तीसरी तथा पांचवीं पीढ़ी के ‘दागो और भूल जाओ’ टॉप अटैक’ करने वाले स्पाइक एटीजीएम लांचर कुछ सीमित संख्या में आयात किए गए हैं. नाग मिसाइल कैरियर या ‘नामिका’—(संशोधित बीएमपी2) आधारित देसी नाग एटीजेएम—भी कुछ संख्या में टोही तथा सपोर्ट बटालियनों में शामिल किए गए हैं. इन अत्याधुनिक सिस्टम्स की संख्या इतनी कम है कि उनसे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला.

भारतीय सेना अब ‘आत्मनिर्भरता’ की नीति के आधार पर ‘भविष्य के युद्ध देसी साधनों से लड़ने’ को प्रतिबद्ध है. ‘डीआरडीओ’ तीसरी से लेकर पांचवीं पीढ़ी तक के कई एटीजीएम नाग परियोजना के अंतर्गत विकसित करने में जुटा है. ‘प्रोस्पीना’ जमीन पर मार करने वाली दागो और भूल जाओ वाली एटीजीएम है, जो चार किमी तक मार करने की ‘टॉप अटैक’ क्षमता रखती है. इसे ‘नामिका’ पर भी चढ़ाया जा सकता है. 12 ‘नामिका’ सेना में शामिल किए जा चुके हैं.

हेलिना/ध्रुवस्त्र हेलिकॉप्टर से दागी जाने वाली मिसाइल है, जो 7-10 किमी तक मार कर सकती है. थलसेना और स्पेशल फोर्सेस के लिए मनुष्य द्वारा ढोयी जाने वाली ‘एमपीएटीजीएम’ मिसाइलों का परीक्षण चल रहा है. ‘स्टैंडऑफ’ एटीजीएम ‘हेलिना’ का संवर्द्धित संस्कारण है और इसकी रेंज 20 किमी है जिसे देसी ड्रोन की मदद से इस्तेमाल किया जाएगा. ‘सेमी-एक्टिव मिशन होमिंग’ (सामहो) एटीजीएम को ट्यूब से दागा जाता है लेकिन इसे टैंक की तोप से भी दागा जा सकता है. भारत की विशाल कंपनी लार्सन ऐंड टूब्रो ने मिसाइल बनाने वाली यूरोपीय बहुराष्ट्रीय कंपनी एमबीडीए के साथ संयुक्त उपक्रम बनाया है जो पांचवीं पीढ़ी की एटीजीएम बनाएगा.

मेरे ख्याल से, देश में बनी तीसरी से पांचवीं की पीढ़ी की एटीजीएम को कारगर नतीजे देने लायक संख्या में सेना में शामिल करने में अभी तीन से पांच साल तक लग सकते हैं. तब तक भारतीय सेना को दूसरी पीढ़ी की एटीजीएम पर निर्भर रहना होगा, जो यूक्रेन में फर्क ला देने वाली तीसरी से पांचवीं की पीढ़ी की एटीजीएम के मुक़ाबले 25-30 फीसदी कम प्रभावी हैं.

हथियारबंद ड्रोन

यूक्रेन ने टैंकों, युद्धक वाहनों, तोपों और दूसरे वेपन सिस्टम्स को नष्ट करने के लिए निगरानी और टोही ड्रोनों के अलावा कई तरह के हथियारबंद ड्रोनों और दूसरे गोला-बारूद का इस्तेमाल किया. तुर्की के ‘बेरक्तर टीबी2’ ड्रोन काफी असरदार साबित हुए हैं. लेकिन ये ड्रोन उत्पादन और आयात के लिए बहुत ख़र्चीले हैं. दूसरे गोला-बारूद सबसे सस्ते विकल्प हैं. अमेरिका ने यूक्रेन को 700 ‘स्विचब्लेड’, 700 ‘फीनिक्स घोस्ट’ और दूसरे ऐसे ड्रोन दिए हैं. एक ‘स्विचब्लेड’ ड्रोन की कीमत 10,000 डॉलर है, जबकि जेवलीन एटीजीएम की कीमत इससे आठ गुना ज्यादा 78,000 डॉलर है और अमेरिकी रीपर ड्रोन 3.2 करोड़ डॉलर का है. ‘बेरक्तर टीबी2’ ड्रोन 50 लाख डॉलर का है. यूक्रेन ने ‘डीजेआई मेविक 3’ जैसे 6,000 सस्ते ड्रोन भी इस्तेमाल किए.

भारत खुफियागीरी, निगरानी, टोही कामों के लिए 2000 से इजरायली ‘सर्चर 1 और 2’ ड्रोनों का इस्तेमाल कर रहा है. इनके बाद ‘हेरोन’ ड्रोन आए, जो अत्याधुनिक, लंबी दूरी तय करने वाले, देर तक ऊंची उड़ान भरने वाले निशस्त्र ड्रोन हैं. भारतीय सेना में फिलहाल 90 हेरोन सेवा दे रहे हैं. वायुसेना ने मुख्य रूप से दुश्मन की हवाई सुरक्षा सिस्टम को दबाने के लिए कुछ ‘हारोप कामिकेज़’ ड्रोन इजरायल से आयात किए हैं.

भारत के पास अब तक उत्कृष्ट सामरिक सशस्त्र ड्रोन नहीं हैं, हालांकि हमने मौजूदा निशस्त्र हेरोन ड्रोनों को सशस्त्र ड्रोनों में बदलने की परियोजना शुरू की है. अमेरिका से 30 ‘एमक्यू 9बी प्रिडेटर स्काई/सी गार्डियन’ सशस्त्र ड्रोनों की खरीद के 3 अरब डॉलर के सौदे की प्रगति के बारे में परस्पर विरोधी खबरें मिल रही हैं.

सामरिक लक्ष्यों के लिए ‘प्रिडेटर’ जैसे लंबे समय तक टिकने वाले आधुनिक ड्रोन चाहिए, लेकिन भारतीय सेना के लिए टैंक आदि नष्ट करने, सैनिकों के मिशन के लिए सबसे अच्छे होंगे बड़ी संख्या में कामिकेज ड्रोन या ल्वाइटर हथियार. भारत का निजी क्षेत्र सॉफ्टवेयर में महारत के कारण इस जरूरत को पूरा कर सकता है और उसे रक्षा मंत्रालय से ऑर्डर मिले हैं. हालांकि इस बारे में काफी सनसनीखेज खबरें और अटकलें सामने आ रही हैं लेकिन अभी तक सेना के काम के ड्रोन नहीं बनाए गए हैं.

पिछले दो दशकों में, डीआरडीओ ने विभिन्न तरह के ‘यूएवी’ विकसित किए हैं लेकिन मैदान में परीक्षण के स्तर तक अभी कोई नहीं पहुंचा है.

आदमी द्वारा ढोई जानी वाली मिसाइल

‘मैनपैड’ मिसाइलों ने रूसी वायु सेना को आसमान से शब्दशः भगा दिया है. कंधे पर रखकर दागी जाने वाली ये मिसाइलें विमानों और हेलिकॉप्टरों के खिलाफ बहुत प्रभावी रही हैं. एस-300/400 और पेट्रियट/थाड जैसी आधुनिक वायु सुरक्षा सिस्टम्स बेहद महंगी हैं और क्रूज मिसाइलों के मुख्य निशाने पर रहती हैं. कम महंगी ‘मैपैड’ मिसाइलों को लांच किए जाने से पहले पता लगाना मुश्किल होता है औए वे युद्ध क्षेत्र की सभी कमजोर क्षेत्रों पर छा जाती हैं. अमेरिका द्वारा दी गईं 1400 स्टिंगर मिसाइलें ही यूक्रेन की हवाई सुरक्षा का आधार थीं.

भारतीय सेना के पास अत्याधुनिक रूसी इगला मिसाइलें हैं और अपाशे हमलावर हेलिकॉप्टरों के लिए स्टिंगर मिसाइलें सीमित संख्या में है. लेकिन ‘मैनपैड’ मिसाइलों की संख्या इतनी कम है वे ज्यादा असरदार नहीं साबित होंगी, जैसा कि यूक्रेन में हुआ है.

जाहिर है, भारतीय सेना के पास तीसरी से पांचवीं पीढ़ी की एटीजीएम, सशस्त्र ड्रोन, और ‘मैनपैड’ मिसाइलों की कमी है. इन्हें अपने यहां विकसित करना या बाहर से हासिल करना बेहद जरूरी है. अगले दशक के लिए, ये वेपन सिस्टम्स ही युद्ध में जीत दिलाने में मददगार होंगी, जो निर्णायक भूमिका निभाएंगे.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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