भारत अब दो तरह के मुख्यमंत्रियों का देश बन गया है. एक वे हैं जो क्षेत्रीय दलों के उभरते सितारे हैं और हर चुनाव के साथ राजनीति पर अपनी पकड़ मजबूत कर रहे हैं. दूसरी तरह के मुख्यमंत्री वे हैं जो दो बड़े राष्ट्रीय दलों के अस्थायी प्रादेशिक चेहरे हैं और जिनकी हुकूमत अपने पार्टी आलाकमान के फैसले पर ताश के महल की तरह ढह जाटी है.
निरंतर उत्कर्ष की ओर बढ़ते अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी, और जगन मोहन रेड्डी सरीखे मुख्यमंत्रियों के साथ-साथ कांग्रेस और भाजपा के कमजोर होते मुख्यमंत्री भी हैं जिन्हें आलाकमान जरूरत पड़ने पर हटा कर ज्यादा ‘फायदेमंद’ चेहरे को सामने ले आता है.
उत्तराखंड के त्रिवेंद्र सिंह रावत और कर्नाटक के बी.एस. येदियुरप्पा से लेकर गुजरात के विजय रूपाणी और अब पंजाब के अमरिंदर सिंह तक को राजनीतिक मजबूरियों के चलते या मनमर्जी से दरकिनार करने या हटा देने में राष्ट्रीय दलों के शीर्ष नेतृत्व को कोई हिचक नहीं होती, जबकि येदियुरप्पा या अमरिंदर सरीखे नेता दबदबा रखते हैं, और अमरिंदर ने तो मोदी लहर में भी कांग्रेस को चुनाव जितवाया.
इनकी तुलना दूसरी तरह के मुख्यमंत्रियों से कीजिए, जो क्षेत्रीय दलों के कर्ताधर्ता हैं, जैसे पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी, दिल्ली के केजरीवाल, आंध्र प्रदेश के जगन रेड्डी, तमिलनाडु के एम.के. स्टालिन. इन सबकी धीरे-धीरे एक राष्ट्रीय छवि और हैसियत बन रही है, जो मोदी की भाजपा को कड़ी टक्कर दे सकते हैं और प्रबल चुनौती के रूप में उभर भी रहे हैं.
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आलाकमान के हुक्मनामे
बड़ा सवाल यह है कि क्या चुनाव से पहले मुख्यमंत्री का चेहरा सामने लाना महत्वपूर्ण है, और क्या वोट उस चेहरे के लिए या पार्टी के लिए या मोदी या गांधी परिवार के रूप में पार्टी सुप्रीमो के लिए ही डाले जाते हैं? इन सवालों के जवाब आसान नहीं हैं, और जवाब प्रायः व्यापक राजनीतिक परिस्थिति अथवा प्रदेश-केंद्रित स्थिति पर निर्भर करते हैं.
लेकिन यह तो साफ है कि दोनों राष्ट्रीय पार्टियां, कांग्रेस और भाजपा आलाकमान के हुक्मनामे को ही तरजीह देती दिख रही हैं, और मुख्यमंत्रियों का बस इस्तेमाल करना चाहती हैं. ये पार्टियां राज्यों के लिए लोकलुभावन वादों और कामकाज की पंचवर्षीय योजना पर अमल करती हैं. इनका मूल सूत्र यह है कि चुनाव से पहले एक ऐसा चेहरा पेश करो जो जीत दिला सकता हो, और वह सरकार बना ले तो उसके कामकाज पर नज़र रखो, और अगर वह एक थाती से ज्यादा एक बोझ साबित हो रहा/रही हो तो अगले चुनाव से ठीक पहले फिर लोकलुभावन राजनीति का सहारा लेते हुए उसे बदल डालो.
भाजपा ने लगातार तीन मुख्यमंत्रियों— रावत, येदियुरप्पा, और रूपाणी— को हटा दिया. इस बीच कांग्रेस ने पंजाब में अमरिंदर सिंह को हटाकर चरणजीत सिंह चन्नी को गद्दी सौंप दी. और अब वह राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कुर्सी की लड़ाई से निबटने में व्यस्त है. रावत और रूपाणी भले छोटे राजनीतिक कद वाले रहे होंगे लेकिन अमरिंदर सिंह और येदियुरप्पा को राजनीतिक और चुनावी लिहाज से कम कद्दावर कैसे माना जा सकता है. लेकिन कांग्रेस और भाजपा में कमान तो आलाकमान के हाथों में ही है और ताकतवर नेता भी उसकी मर्जी के मोहताज हैं.
यह तो पहले से स्पष्ट है कि कांग्रेस में एक ताकतवर आलाकमान ढांचा हमेशा मौजूद रहा है, जहां गांधी परिवार को छोड़कर हर कोई एक सीमा के बाद ताकत विहीन हो जाता है. लेकिन जिस मुख्यमंत्री ने आपको उन मात्र तीन राज्यों में से एक में चुनाव जिताया जिनमें आज आप सत्ता में है, और जबकि आप अपने बूते वोट हासिल करने में असमर्थ दिख रहे हों, तब उसे हटा देना कुछ अलग ही मामला है. बाकी दो राज्यों, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अशोक गहलोत और भूपेश बघेल की गद्दी डगमग ही है और वे इंतजार कर रहे हैं कि आलाकमान की नज़र न जाने कब टेढ़ी हो जाए. जब मोर्चा लेकर चुनाव जिताने वाले मुख्यमंत्री को चलता किया जा सकता है, तब चुनाव के बाद कुर्सी की भारी खींचतान के बाद उस पर बिठाए गए नेता कब तक भरोसे से बैठे रह सकते हैं?
भाजपा मोदी से लेकर शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह, वसुंधरा राजे आदि, और अब योगी आदित्यनाथ के नाम लेकर अपने ताकतवर प्रादेशिक नेताओं की मिसाल देती रही है लेकिन ऐसा लगता है कि अब वह अपने मुख्यमंत्रियों को कुर्सी के खेल में उलझाकर संतुष्ट है. तीन मुख्यमंत्रियों की विदाई के बाद शायद हरियाणा के मनोहर खट्टर ‘उस’ फोन का इंतजार करते दिन काट रहे हैं. चौहान भी इस बार अपनी गद्दी के लिए पार्टी के आला नेताओं के शुक्रगुजार हैं इसलिए उन्हें कर्नाटक के बासवराज बोम्मई की तरह उनके इशारे पर ही चलना होगा.
भाजपा के दो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और हिमन्त बिसवा सरमा फिलहाल मजबूत दिखते हैं लेकिन योगी का भविष्य अगले साल होने वाला चुनाव तय करेगा, और सरमा को भी अति आत्मविश्वास नहीं पालना चाहिए. आखिर उनकी पूर्ववर्ती सर्वानंद सोनोवाल को दूसरी बार गद्दी नहीं सौंपी गई जबकि भाजपा ने उनके कार्यकाल में ही चुनाव जीता.
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भारी अंतर
भाजपा और कांग्रेस के आज अधिकतर मुख्यमंत्रियों के हाथ से अपनी जमीन और सत्ता खिसक रही है, चुनावी दृष्टि से न सही मगर राजनीतिक दृष्टि से तो खिसक ही रही है.
दूसरी ओर वे मुख्यमंत्री हैं, जो क्षेत्रीय दलों के नेता हैं. ममता बनर्जी ने अपने राज्य में शक्तिशाली भाजपा को पैर जमाने नहीं दिया, बल्कि एक छोटे क्षेत्रीय दल की नेता के नाते उन्होंने कहीं ज्यादा बड़ा कद बना लिया है. केजरीवाल भी ऐसे नेता हैं जिन्होंने अपनी जमीन मजबूती से थाम राखी है और मोदी के खिलाफ मुखर रहे हैं.
आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी काफी बेहतर काम कर रहे हैं, जिसकी तस्दीक हाल में हुए स्थानीय चुनावों ने भी की है. तमिलनाडु में स्टालिन ने मुख्यमंत्री के रूप में अपने कामकाज से सबको आश्चर्य में डाला है और सत्ता में उनके पहले 100 दिन उनकी सफलता की कहानी कह रहे हैं.
क्षेत्रीय दलों के मुख्यमंत्री राजनीतिक और चुनावी दृष्टि से मजबूत होते जा रहे हैं, उनका कद भी बड़ा हो रहा है जबकि राष्ट्रीय दलों के मुख्यमंत्री उनकी तुलना में फीके नज़र आ रहे हैं. ममता और जगन सरीखे मुख्यमंत्री जिस तरह अपने बूते ताकतवर नेता के रूप में उभर रहे हैं और अमरिंदर जैसे नेता जिस तरह हाशिये पर पहुंच रहे हैं वह इस भारी अंतर को उजागर कर रहा है.
(रूही तिवारी @RuhiTewari के विचार निजी है.)
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