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Wednesday, 4 December, 2024
होममत-विमतमोदी-शाह के चुने 20 मुख्यमंत्रियों में से आठ को कुर्सी छोड़नी पड़ी, लेकिन यह कोई बुरी रणनीति नहीं है

मोदी-शाह के चुने 20 मुख्यमंत्रियों में से आठ को कुर्सी छोड़नी पड़ी, लेकिन यह कोई बुरी रणनीति नहीं है

विजय रूपाणी, रावत, येदियुरप्पा से पद छोड़ने को कहा गया. लेकिन इसे सिर्फ मोदी-शाह की टैलेंट तलाशने की क्षमता से जोड़कर नहीं देखा जा सकता.

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अगस्त 2016 के पहले हफ्ते में भारतीय जनता पार्टी के संसदीय बोर्ड ने गुजरात में आनंदीबेन पटेल की जगह लेने वाले नए मुख्यमंत्री का नाम तय करने के लिए दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रेसकोर्स रोड स्थित आवास पर बैठक की. उस समय अटकलें तेज थीं कि तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष अमित शाह अहमदाबाद में नई जिम्मेदारी संभालने के इच्छुक हैं. लेकिन संसदीय बोर्ड की बैठक की शुरुआत में ही मोदी ने अपने वरिष्ठ पार्टी सहयोगियों को स्पष्ट बता दिया कि वे ‘अमित शाह को छोड़कर’ अन्य किसी भी नाम पर विचार करें.

आखिरकार विजय रूपाणी के नाम पर सहमति बनी. वह शाह के शिष्य थे. दो दिन बाद औपचारिक रूप से नेता चुनने के लिए विधायक दल की बैठक से पहले अहमदाबाद में जब भाजपा के वरिष्ठ नेताओं की मुलाकात हुई, तो अमित शाह और आनंदीबेन पटेल का आमना-सामना हुआ. उस समय द हिंदू ने रिपोर्ट प्रकाशित की थी कि आनंदीबेन यह आरोप लगाते हुए ‘एकदम रुआंसी’ हो गई थीं कि पाटीदार आंदोलन को उन्हें हटाने के लिए ‘आंतरिक तौर पर इस्तेमाल’ किया गया. इसके जवाब में शाह ने कहा था कि इसमें उनकी ‘कोई भूमिका नहीं’ थी लेकिन अब वह उनके उत्तराधिकारी का फैसला करेंगे.

कुछ लोग इसे नियति का खेल मानेंने, जब रविवार को आनंदीबेन पटेल के शिष्य भूपेंद्र पटेल ने मुख्यमंत्री के रूप में शाह के शिष्य रूपाणी की जगह ली.

भूपेंद्र पटेल 2014 के बाद नरेंद्र मोदी-अमित शाह के नेतृत्व में शपथ लेने वाले भाजपा के 20वें मुख्यमंत्री होंगे. इन 20 में से आठ को सीएम की कुर्सी छोड़नी पड़ी है, और इनमें ज्यादातर ने ऐसा मजबूरी में किया. पिछले छह महीनों में रूपाणी इस्तीफा देने वाले भाजपा के चौथे मुख्यमंत्री है, और पांचवें अगर कोई इसमें असम के पूर्व मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल को शामिल करना चाहे, जिन्हें हेमंत बिस्व सरमा के लिए रास्ता बनाना पड़ा. अन्य में कर्नाटक के बी.एस. येदियुरप्पा और उत्तराखंड के त्रिवेंद्र सिंह रावत और तीरथ सिंह रावत शामिल हैं.

एक नजर में तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह द्वारा चयनित 40 फीसदी मुख्यमंत्रियों—20 में से आठ—को हटाया जाना उनकी प्रतिभा पहचानने की क्षमता पर सवालिया निशान खड़ा करता है. यह रिकॉर्ड और भी खराब हो सकता है. 2022 में जिन सात राज्यों में चुनाव होने हैं, उनमें से छह में भाजपा के मुख्यमंत्री हैं जिन्हें इसी जोड़ी ने कुर्सी पर बैठाया है. आगे जिक्र करें तो हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के भविष्य पर भी सवालिया निशान हैं. वह 67 वर्ष की उम्र पार कर चुके हैं और जब किसान आंदोलन की बात आती है तो ऐसा लगता है कि वह इससे निपटने में नाकाम रहे हैं. 2024 के विधानसभा चुनावों में पार्टी के चेहरे के तौर पर किसी सत्तर साल के व्यक्ति को उतारने के बजाये, मोदी और शाह की जोड़ी कोई नया चेहरा तलाश सकती है.

जिस तरह यह जोड़ी पार्टी के मुख्यमंत्रियों को चुनती और हटाती रही है, उसे लेकर सवाल उठना लाजिमी ही है. इस संदर्भ में कई टिप्पणीकार भाजपा में आलाकमानवादी संस्कृति के उदय की ओर इशारा करते रहे हैं. आखिरकार रूपाणी का कसूर क्या है? प्रधानमंत्री मोदी कोविड-19 प्रबंधन के मामले में भले ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को उत्कृष्टता का प्रमाणपत्र दे रहे हों लेकिन गुजरात के मुख्यमंत्री दोषी क्यों हो गए? गुजरात कोई ऐसा एकमात्र भाजपा शासित राज्य तो है नहीं, जहां अदालतों ने सरकार के प्रति सख्त रुख अपनाया.


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रणनीति बुरी है? शायद नहीं

मई 2014 में मोदी के केंद्र में आ जाने के बाद से गुजरात के मुख्यमंत्री एक तरह से नाम के ही सीएम रहे हैं. गुजरात सीएमओ में मोदी के विश्वासपात्र के. कैलाशनाथन, जिन्हें 2014 से छह बार सेवा विस्तार मिला है, दिल्ली की सलाह पर प्रशासन चलाते हैं. क्या सत्ता विरोधी लहर को मात देने की भाजपा की व्यापक रणनीति के तहत मुख्यमंत्रियों को बलि का बकरा बनाया जा रहा है? गुजरात में 2017 के विधानसभा चुनाव से 16 महीने पहले आनंदीबेन पटेल को हटा दिया गया था; उनके उत्तराधिकारी रूपाणी 2022 के चुनाव से 15 महीने पहले हटे; उत्तराखंड चुनाव से एक साल पहले त्रिवेंद्र सिंह रावत; और फिर छह-सात महीने पहले उनके उत्तराधिकारी तीरथ सिंह को भी बाहर कर दिया गया. इस तरह कभी एक अलग पार्टी की पहचान रखने वाले भाजपा आलाकमान के कांग्रेसीकरण को लेकर तमाम सवाल भी उठ रहे हैं.

कम प्रशासनिक या विधायी अनुभव रखने वाले मुख्यमंत्रियों को कुर्सी पर बैठाना दंभ भले न हो लेकिन अति-आत्मविश्वास को तो दर्शाता ही है. हरियाणा के मनोहर लाल खट्टर और त्रिपुरा के बिप्लब देब के बाद भूपेंद्र पटेल तीसरे ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिन्हें पहली बार विधायक चुने जाने के बाद ही इतनी बड़ी जिम्मेदारी मिली है. रूपाणी जब मुख्यमंत्री बने तो उस समय पहली बार ही विधायक चुने गए थे, हालांकि वह राज्यसभा के सदस्य रहे थे. इसी तरह, आदित्यनाथ पांच बार लोकसभा सदस्य रहे, लेकिन कभी विधायक नहीं रहे. 2014 के बाद से मोदी और शाह की तरफ से कुर्सी में बैठाए गए 20 मुख्यमंत्रियों में से आठ को राज्य या केंद्र सरकार काम करने का कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं था—इसमें उपरोक्त सीएम के अलावा आदित्यनाथ, त्रिवेंद्र रावत, देवेंद्र फडणवीस (महाराष्ट्र), प्रमोद सावंत (गोवा), और पुष्कर धामी (उत्तराखंड) शामिल हैं.

लेकिन, इस सबके बावजूद कोई भी राज्यों में मोदी-शाह के अब तक के प्रयोगों की सफलता को कम करके नहीं आंक सकता. व्यापक तस्वीर पर नजर डालें. उन्होंने जिन 20 मुख्यमंत्रियों को चुना, उनमें से छह ने चुनाव में भाजपा का नेतृत्व किया—2017 में गुजरात में रूपाणी, महाराष्ट्र में फडणवीस, हरियाणा में खट्टर, अरुणाचल में पेमा खांडू और 2019 में झारखंड में रघुबर दास और 2021 में असम में सर्बानंद सोनोवाल. और इन छह में से केवल दो सत्ता बचाने में नाकाम रहे—फडणवीस और दास. कोई भी यह तर्क दे सकता है कि क्या लूजर्स क्लब में खट्टर की जगह फडणवीस को रखा जाना चाहिए. लेकिन महाराष्ट्र में फडणवीस के नेतृत्व में भाजपा ने जिन 150 सीटों पर चुनाव लड़ा था उनमें से 105 पर जीत हासिल की थी, वो तो शिवसेना के बदले राजनीतिक तेवरों के कारण उसे विपक्षी बेंच पर बैठना पड़ा. हरियाणा में खट्टर के नेतृत्व में चुनाव लड़ने वाली भाजपा को बहुमत नहीं मिला और अब वह सत्ता पर काबिज रहने के लिए काफी हद तक दुष्यंत चौटाला की दया पर निर्भर है. एक तरह से कहा जाए तो रघुबर दास यकीनन एकमात्र असफल प्रयोग था. ओवरऑल स्ट्राइक रेट देखिए. क्या हम चुनाव के दौरान प्रदर्शन को देखते हुए मुख्यमंत्रियों को लेकर इस जोड़ी की पसंद में खामियां निकाल सकते हैं? संभवतः नहीं. उन्होंने सोनोवाल को छोड़कर पांच मुख्यमंत्रियों को पद छोड़ने पर मजबूर किया है, लेकिन राजनीति में आखिरकार तो चुनावी नतीजे ही मायने रखते हैं. 2017 में गुजरात में आनंदीबेन पटेल को हटाने की उनकी रणनीति कारगर रही. यह देखने के लिए फिलहाल तो इंतजार ही करना होगा कि अगले साल उत्तराखंड और गुजरात में और फिर कर्नाटक में यह कितना काम करती है. जहां तक सोनोवाल को पद छोड़ने पर बाध्य किए जाने की बात है तो क्या आप हिमंत बिस्वा सरमा के आगे बढ़ाने के खिलाफ तर्क दे सकते हैं? निश्चित तौर पर यह उनकी काबिलियत के आधार पर किया गया.

जहां तक उन मुख्यमंत्रियों को स्थापित किए जाने की बात है जिनके पास कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं था, केवल फडणवीस चुनावी परीक्षा से गुजरे हैं और उन्होंने चुनावों में खराब प्रदर्शन भी नहीं किया है. ऐसे सीएम जिस तरह अपना प्रशासन चला रहे हैं, उसको लेकर अंगुली उठाई जा सकती है, लेकिन क्या अनुभवी लोग बेहतर ज्यादा प्रदर्शन कर रहे हैं? क्या हमने यह नहीं देखा कि कैसे आदित्यनाथ तमाम दिग्गज मुख्यमंत्रियों के लिए भी रोल मॉडल बन गए हैं?


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एक नई पीढ़ी को बढ़ाना

भाजपा के सकारात्मकता पहलू को देखें. मोदी और शाह नेताओं की युवा पीढ़ी को बढ़ावा दे रहे हैं. अगर नियुक्ति के समय आयु के हिसाब से ब्रेक-अप देखें तो 20 मुख्यमंत्री के बारे में डेटा इस प्रकार है :-

30-40 वर्ष—1 (खांडू, 37 वर्ष)

40-50 वर्ष—5 (फडणवीस, प्रमोद सावंत, आदित्यनाथ, धामी और बिप्लब)

50-60 साल—10 (भूपेंद्र पटेल, सरमा, जयराम ठाकुर, एन. बीरेन सिंह, तीरत रावत, त्रिवेंद्र रावत, सोनोवाल, दास, रूपानी, खट्टर)

60-70 वर्ष—4 (आनंदीबेन, येदियुरप्पा, शिवराज चौहान, बसवराज बोम्मई).

यह डेटा नेताओं की उस समय की उम्र पर आधारित है जब उन्हें मोदी और शाह की तरफ से पहली बार मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया था; यह उनकी मौजूदा उम्र नहीं दर्शाता है.

आइए यह डेटा इस नजर से देखें कि मोदी-शाह जब मुख्यमंत्री पद के लिए उम्मीदवारों को तलाश रहे थे तो भाजपा नेताओं के किस आयु वर्ग ने उनका ध्यान सबसे ज्यादा खींचा. उनकी तरफ से चुने गए 20 मुख्यमंत्री को आयु वर्ग के लिहाज से तीन पसंदीदा समूहों में रखा जा सकता है, इसमें 53-56 साल और 59-61 साल के ब्रैकेट में छह-छह मुख्यमंत्री आते हैं और 44-46 साल के ब्रैकेट में पांच. आदित्यनाथ और फडणवीस 44 वर्ष के थे जब मोदी और शाह ने उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए चुना, जबकि सावंत और धामी 45 वर्ष के थे, और बिप्लब देब 46 वर्ष के थे. हेमंत बिस्व सरमा और जयराम ठाकुर 52 वर्ष के थे, सोनोवाल 53 और त्रिवेंद्र रावत, तीरथ सिंह और बीरेन सिंह 56 वर्ष के थे. बहरहाल, किसी भी स्थिति में विभेद की कुछ गुंजाइश तो बनी ही रहती. तर्क दिया जा सकता है कि मणिपुर में मोदी-शाह के पास विकल्प बेहद सीमित ही थे क्योंकि बीरेन सिंह ने चुनाव से पहले कांग्रेस के प्रति अपनी निष्ठा को बदलकर भगवा पार्टी का दामन थाम लिया था और वह पार्टी के विस्तार के लिए पूर्वोत्तर राज्य में उनकी एकमात्र उम्मीद थे. पेमा खांडू के बारे में भी यही तर्क दिया जा सकता है, क्योंकि अरुणाचल प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी बनाने के लिए वह रातों-रात तीन दर्जन से अधिक विधायकों के साथ भाजपा के खेमे में आ गए थे. 59-61 साल के ब्रैकेट में भूपेंद्र, चौहान, रूपाणी, दास, खट्टर और बोम्मई आदि छह नेता शामिल हैं.

ये उदाहरण इस बात को दर्शाते हैं कि कैसे मोदी और शाह राज्यों में नेताओं की एक नई पीढ़ी को आगे बढ़ा रहे हैं. हालांकि, यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि उनमें से कितने उनकी उम्मीदों पर खरे उतरते हैं. लेकिन वे कम से कम कोशिश तो कर रहे हैं. पांच मुख्यमंत्रियों को बदले जाने के पीछे एक और संदेश भी अंतर्निहित है: वो यह कि मोदी भक्ति ही मुख्यमंत्रियों की कुर्सी बचाए रखने के लिए पर्याप्त नहीं है. अगर अमित शाह की तरफ कराए आंतरिक सर्वेक्षणों से पता चला कि कोई मुख्यमंत्री पार्टी पर बोझ बनता जा रहा है तो भाजपा आलाकमान के खिलाफ वह इस पर काबिज नहीं रह पाएगा.

वैसे राज्यों में मोदी-शाह के प्रयोग अब तक तो कारगर होते ही दिख रहे हैं, लेकिन इस पर अंतिम लगनी अभी बाकी है. अगले साल प्रस्तावित विधानसभा चुनाव एक बड़ी अग्निपरीक्षा साबित होंगे.

(व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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