scorecardresearch
Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतपराग अग्रवाल अकेले नहीं हैं, IIT में बनियों ने ब्राह्मण वर्चस्व को हिला दिया है

पराग अग्रवाल अकेले नहीं हैं, IIT में बनियों ने ब्राह्मण वर्चस्व को हिला दिया है

जन्म आधारित और शास्त्रसम्मत असमानता अगर पैसे की वजह से और पैसे की ताकत से टूटती है, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए. आईआईटी में ये होने लगा है.

Text Size:

पराग अग्रवाल के ट्विटर के सीईओ बनने पर missmalini.com की संस्थापक मालिनी अग्रवाल ने ये ट्वीट किया कि ये बनिया पावर का प्रतीक है. @missmalini ट्विटर पर एक लोकप्रिय हैंडल है, जिसके 26 लाख फॉलोवर हैं, तो जैसा कि होता है कि इस पर ढेर सारी प्रतिक्रियाएं आईं और अंत में मालिनी अग्रवाल ने अपना ट्वीट डिलीट कर लिया और ये कहते हुए माफी मांग ली कि उनका ऐसा कोई इरादा नहीं था और उन्होंने इस प्रकरण से सीखा है.

भारत में और भारतीयों के साथ जैसा कि होता है, अपनी जाति के किसी व्यक्ति की कामयाबी को उस जाति के लोग अपनी कामयाबी के तौर पर ले लेते हैं. इसलिए मालिनी अग्रवाल ने जो किया, वह बहुत भारतीय बात थी. फिर उनके ट्वीट पर इतनी उग्र प्रतिक्रियाएं क्यों आईं?

शायद इसलिए कि जाति गौरव का जैसा प्रदर्शन ब्राह्मण या ठाकुर करते हैं, वह स्वाभाविक माना जाता है. बाकी जातियां जब अपने गौरव का प्रदर्शन करती हैं, तो अटपटा लगता है. बहरहाल मालिनी अग्रवाल को पता चल गया होगा कि वे रैना या जडेजा की तरह जाति गौरव का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं कर सकतीं. वैसे भी वैश्य समुदाय के बारे में अक्सर ये माना जाता कि वे अपनी कामयाबी या संपदा का खुलकर प्रदर्शन करने से बचते हैं.

अब पेचीदा मामले पर बात करते हैं. सवाल ये है कि क्या सचमुच बनिया पावर जैसी कोई चीज है, खासकर ज्ञान और प्रोफेशनल दुनिया में. मेरा तर्क है कि बनिया पावर एक हकीकत है. बेशक बनियों ने अभी तक ज्ञान और ज्ञान से संबंधित व्यवसाय के क्षेत्र में ब्राह्मणों को पीछे न छोड़ा हो लेकिन इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं जो साबित करते हैं कि वे ब्राह्मणों को कड़ी टक्कर दे रहे हैं.


यह भी पढ़ें: यूपी-2022 के लिए सियासी पारा चढ़ते ही छुटभैया नेता सक्रिय, लोकतंत्र की मजबूती में निभाते हैं अहम भूमिका


पराग अग्रवाल की कामयाबी के मायने

पराग अग्रवाल का शिखर पर पहुंचना कोई संयोग नहीं है. पिछले दस से पंद्रह साल में आईटी और आईटी से जुड़े बिजनेस में बनिया प्रोफेशनल्स ने अच्छी कामयाबी हासिल की है. पराग अग्रवाल का शिखर पर पहुंचना शायद एक ऐसी लहर की पूर्वसूचना है जो बता रही है कि ये क्षेत्र अभी और बदलने वाला है. एक समय जिस सेक्टर में ब्राह्मणों का असीमित वर्चस्व था, वह शायद अब टूटने वाला है.

हालांकि ये कहा जाता है कि विज्ञान और टेक्नोलॉजी जाति और धर्म निरपेक्ष होती है लेकिन भारत के लिए ये सच नहीं है क्योंकि यहां ज्ञान तक हर समूह की पहुंच बराबर नहीं रही है. भारत में हुई आईटी क्रांति का नेतृत्व आईआईटी के ग्रेजुएट्स और पोस्ट ग्रेजुएट्स ने किया और उनमें ब्राह्मणों की संख्या ज्यादा थी.

समाजशास्त्री कैरोल उपाध्याय ने अपने शोध के दौरान जब बेंगलुरू में आईटी प्रोफेशनल्स का सामाजिक डेटा जुटाया तो उन्हें 132 लोगों के जवाब मिले. उनमें से 48% ब्राह्मण थे. उनमें से 80% के पिता के पास ग्रेजुएशन या उससे ऊपर की डिग्री थी. यही नहीं, 56% तो ऐसे थे, जिनकी मां भी ग्रेजुएट या उससे ज्यादा शिक्षित थीं.

जाहिर है कि भारत की आईटी क्रांति मुख्य रूप से दूसरी या तीसरी पीढ़ी के पढ़े-लिखे सवर्णों के नेतृत्व में हुई, जिनमें बहुलता ब्राह्मणों की थी.

कैरोल उपाध्याय कहती हैं, ‘इस क्षेत्र में ब्राह्मणों की बहुलता आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि उच्च शिक्षा और संगठित क्षेत्र की नौकरियों में उनका हमेशा से वर्चस्व था, खासकर दक्षिण भारत में.’

अब हालात बदल रहे हैं. अगर हम पिछले कुछ वर्षों में आईटी आधारित प्रमुख स्टार्टअप (जिनमें कई अब बड़ी कंपनियां बन चुकी हैं) को देखें तो उनके संस्थापकों और संचालकों में उत्तर भारतीय बनिया प्रोफेशनल्स खासी संख्या में और प्रमुख भूमिकाओं में नजर आएंगे.

फ्लिपकार्ट (सचिन और बिनी बंसल), OYO रूम्स (रितेश अग्रवाल), Ola कैब्स (भावीश अग्रवाल), जोमैटो (दीपेंदर गोयल), पॉलिसी बाजार (आलोक बंसल), लेंसकार्ट (पीयूष बंसल), bOAT (अमन गुप्ता), Dream11(हर्ष जैन, भावित शेठ), अर्बन कंपनी (वरुण खेतान), लीसियस (विवेक गुप्ता) और ब्राउजरस्टैक (नकुल अग्रवाल)- ऐसी कंपनियां हैं जो अच्छा कर रही हैं और ये साबित कर रही हैं कि आईटी के क्षेत्र में वह दौर बीत गया जब क्रिस गोपालकृष्णनों और नारायणमूर्तियों का ही बोलबाला हुआ करता था.


यह भी पढ़ें: कृषि कानूनों का रद्द होना तो मलाई है, लेकिन खुरचन है इस आंदोलन की दूरगामी उपलब्धि


ज्ञान, सत्ता और ब्राह्मण वर्चस्व

ऐतिहासिक रूप से भारत में ज्ञान प्राप्ति का जाति और वर्ण की ऊंच-नीच वाली व्यवस्था के साथ जुड़ाव रहा है. परंपरागत रूप से किसान, कारीगर, पशुपालक और अछूत करार दी गई जातियों की गुरुकुल की शिक्षा तक पहुंच नहीं थी. न वे वेद पढ़ सकते थे और न ही संस्कृत. ज्ञान प्राप्ति की यह व्यवस्था धर्म शास्त्रों के अनुरूप है और इसका उल्लंघन करके अगर कोई शिक्षा या ज्ञान प्राप्त करने की कोशिश करता, तो उसके लिए शिरोच्छेद से लेकर जीभ काटने और कानों में पिघली हुई धातु डाल देने का विधान था. इस बारे में इस लेख में विस्तार से बताए जाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि इस बारे में पहले ही काफी लिखा जा चुका है. जाति व्यवस्था और ज्ञान के संबंधों में बारे में जानने के लिए ज्योतिबा फुले से लेकर डॉ. बी.आर. आंबेडकर का लिखा हुआ पढ़ सकते हैं.

बहरहाल, इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात ये है कि भारत में मुसलमान शासकों और फिर ब्रिटिश शासन के मिलाकर लगभग सात सौ साल के लंबे अंतराल के बावजूद ज्ञान पर जाति आधारित नियंत्रण कायम रहा. मुसलमान शासकों का मकसद सिर्फ अपनी सत्ता कायम रखना था और हिंदुओं की सामाजिक व्यवस्था में हस्तक्षेप करने से उन्होंने परहेज किया. गांव और कस्बे जैसे चलते थे, चलते रहे. उन्होंने भारतीय समाज व्यवस्था को नहीं छेड़ा. अंग्रेजों ने शुरुआती दौर में समाज सुधार की कुछ कोशिशें कीं. जैसे सती प्रथा का उन्मूलन, विधवा विवाह की मंजूरी, सभी जातियों के लिए शिक्षा के दरवाजे खोलना, सभी जातियों को नौकरियों और सेना में भर्ती करना आदि. लेकिन 1857 में जब इन सबके खिलाफ विद्रोह हो गया, तो उन्होंने भी समाज सुधार वगैरह में हाथ डालना बंद कर दिया.

इसका नतीजा ये हुआ कि सैकड़ों साल से जो वर्ग प्रभावशाली थे और शिक्षा तक जिनकी पहुंच थी, उनका शिक्षा पर दबदबा अंग्रेजों के शासन में भी बना रहा. अंग्रेजी शिक्षा और फिर सरकारी नौकरियों में ब्राह्मण सबसे ज्यादा आए. शिक्षा और नौकरी के सिलसिले में विदेश जाने वालों में भी ज्यादातर वही रहे.

भारत के प्रमुख समाजशास्त्री आंद्रे बेते ने रजनी कोठारी द्वारा संपादित किताब Caste and Indian Politics में तमिलनाडु में जाति की राजनीति के बारे में लिखा है, ‘1892 और 1904 के बीच यहां से इंडियन सिविल सर्विस में 16 कैंडिडेट सफल हुए, उनमें से 15 ब्राह्मण थे, 128 में से 93 जिला मुंसिफ ब्राह्मण थे. यही नहीं, 1914 में मद्रास यूनिवर्सिटी के निकले 650 ग्रेजुएट्स में से 452 ब्राह्मण थे.’ इस आंकड़े को दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग यानी मंडल कमीशन ने भी अपनी रिपोर्ट में शामिल किया है. इससे पता चलता कि ब्रिटिश शासन में ब्राह्मणों के वर्चस्व को कोई चुनौती नहीं मिली.


यह भी पढ़ें: मोदी सरकार के राज में बिल पास करने की फैक्ट्री बन गई है संसद, विपक्षी सांसदों का निलंबन इसे साबित करता है


इंजीनियरिंग की शिक्षा और जाति

इंजीनियरिंग एजुकेशन में भी प्रारंभ से ही ब्राह्मण वर्चस्व रहा है. हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र की प्रोफेसर अजंता सुब्रमण्यन ने अपने शोध Caste of Merit में इस बारे में विस्तार से लिखा है, ‘इंजीनियरिंग को शुरुआती दौर में कारीगरी और श्रम से जुड़ा माना जाता था और इनका ज्यादा प्रयोग निजी क्षेत्र में होता था. ब्रिटिश भारत में इसे क्लासरूम में सीखा जाने वाले ज्ञान मान लिया गया और ये सरकारी सर्विस में जाने का माध्यम बन गया. शुरुआत में इंजीनियर अंग्रेज हुआ करते थे. बाद में सस्ते इंजीनियरों की जरूरत और भारतीय राष्ट्रवादियों के दबाव के कारण इंजीनियरिंग में भारतीयों, खासकर उच्च वर्णीय लोगों को भी प्रवेश मिला.’

कारीगर और श्रम करने वाली जातियों में तकनीकी ज्ञान ज्यादा था लेकिन जब बात इंजीनियरिंग एजुकेशन की आई तो उसमें साक्षर सवर्ण जातियों को ही स्थान मिला.

आजादी के बाद, विज्ञान और तकनीकी शिक्षा के नए केंद्र स्थापित करने के क्रम में खड़गपुर (1951), बंबई (1958), मद्रास (1959) और दिल्ली (1961) में आईआईटी की स्थापना की गई. इनके लिए विदेशों से सहयोग लिया गया और बड़ी संख्या में विदेशों से टीचर भी बुलाए गए. इन संस्थानों को अपार धन दिया गया और फीस काफी सस्ती रखी गई.

1973 तक आईआईटी में कोई आरक्षण नहीं था. इस साल वहां एससी और एसटी के लिए 22.5% सीटें रिजर्व की गईं. 2008 में जाकर आईआईटी में 27% ओबीसी आरक्षण लागू हुआ. लंबे समय तक किसी भी तरह का आरक्षण न होने के कारण ये संस्थान सवर्ण वर्चस्व का केंद्र बन चुके थे और जब आरक्षण लागू हुआ भी तो इन संस्थानों ने बेमन से और आधे-अधूरे तरीके से ही उन्हें लागू किया. शिक्षक पदों पर आरक्षण लागू करने को लेकर आईआईटी अब भी काफी प्रतिरोध दिखाते हैं.

2003 में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, आईआईटी में एससी-एसटी आरक्षण आधा ही लागू किया जा रहा था. एनडीए शासन के दौरान आईआईटी दिल्ली के डायरेक्टर की अध्यक्षता में बनी एक कमेटी ने आईआईटी में शिक्षक पदों की नियुक्ति में आरक्षण लागू न करने की सिफारिश की. विरोध के बाद, सरकार ने कहा कि ये सिफारिश लागू नहीं की जाएगी.


यह भी पढ़ें: वंशवादी राजनीति के लिए गांधी परिवार पर निशाना साधने वाले मोदी अपनों के मामले में नरम क्यों पड़ गए


ब्राह्मण वर्चस्व को बनिया समुदाय की चुनौती

आरक्षण की व्यवस्था के बावजूद, आईआईटी पर ब्राह्मण वर्चस्व कायम रहता, अगर 1990 के दौर में लागू उदारीकरण के बाद आईआईटी में बनिया कैंडिडेट की बड़े पैमाने पर आमद न होती. बनिया पावर आईआईटी में अब एक हकीकत है.

जेईई एडवांस के 2020 के रिजल्ट को देखें तो सात अलग-अलग जोन के 35 टॉपर्स में 12 कैंडिडेट ऐसे हैं, जिनके सरनेम- अग्रवाल, गुप्ता, डालमिया, जैन, केजरीवाल- को देखने से ही जाहिर हो जाता है कि वे बनिया समुदाय से हैं. ये तब है जबकि सभी लोग सरनेम नहीं लगाते. यानी बनियों की संख्या यहां और भी ज्यादा हो सकती है. कम से कम 30% टॉपर्स तो बनिया हैं ही.

2019 में भी, 35 जोनल टॉपर्स में से 10 कैंडिडेट के सरनेम बनियों के हैं. रुड़की जोन में तो पांच टॉपर्स में से 4 बनिए थे.

क्या ये आंकड़ा किसी निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए काफी है? शायद नहीं, इस बारे में दरअसल और आंकड़ों की जरूरत है. लेकिन नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) बहुत गुपचुप तरीके से काम करती है और सभी कैंडिडेट की मेरिट लिस्ट वेबसाइट पर नहीं डालती. इसलिए इस बारे में आकड़ा संग्रह करना आसान नहीं है.

अगर दूसरे स्रोत की बात करें तो भारत की प्रमुख कोचिंग संस्थानों के विज्ञापनों में टॉपर्स की लिस्ट को देखा जा सकता है. रिजल्ट आने के बाद कोचिंग इंस्टिट्यूट टॉपर्स के नाम और रैंक विज्ञापनों में दिखाते हैं, ताकि और स्टूडेंट्स कोचिंग में आएं.

इन विज्ञापनों के अध्ययन के आधार पर मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि बनियों का इंजीनियरिंग एडमिशन में दबदबा अब एक स्थापित तथ्य है. वैसे ये जानना भी दिलचस्प होगा कि 2019 (कार्तिकेय गुप्ता) और 2021 (मृदुल अग्रवाल) के जेईई एडवांस के टॉपर्स वैश्य समुदाय से हैं. इसके साथ इस तथ्य को भी देखना चाहिए कि उत्तर भारत, खासकर कोटा के लगभग सभी प्रमुख कोचिंग इंस्टिट्यूट के मालिक वैश्य हैं. कोटा फैक्ट्री बनियों की है.

इन तथ्यों पर अभी अकादमिक तरीके से काम होना है. आईआईटी में ब्राह्मण वर्चस्व पर Caste of Merit समेत कई किताबें आ चुकी हैं. आईआईटी मे ब्राह्मण वर्चस्व टूटने और बनियों की दखल बढ़ने पर रिसर्च और किताबें लिखे जाने का समय आ गया है.

इस बदलाव की कुछ वजहें ये हो सकती हैं:

1. आईआईटी एडमिशन में सामाजिक बदलाव 2002 और फिर 2005 में एग्जाम पैटर्न में आए परिवर्तन के बाद हुआ है. हो सकता है कि इन दो बातों में कोई संबंध हो. इस बारे में और अध्ययन की जरूरत है.

2. 1990 से पहले भारत में शहरी मध्य वर्ग का निर्माण मुख्य रूप से सरकारी नौकरियों के माध्यम से हो रहा था. इन नौकरियों में सवर्णों और उनमें भी ब्राह्मणों का वर्चस्व था. उदारीकरण के बाद, मध्य वर्ग के निर्माण का केंद्र बदलकर निजी क्षेत्र की नौकरियां और एंटरप्रिन्योरशिप हो गईं. हो सकता है कि अर्थव्यवस्था में आए इस बदलाव ने बनियों को शहरी क्षेत्र में मजबूत किया और इस वर्ग ने भविष्य में तरक्की करने के उद्देश्य से इंजीनियरिंग एजुकेशन को अपना लिया.

3. कोचिंग का इंजीनियरिंग एडमिशन में महत्व निर्विवाद है. कोचिंग अब छठी और सातवीं क्लास से शुरू हो रही है. आर्थिक संपन्नता और शिक्षा पर निवेश करने की समझ के कारण ये संभव है कि बनिया समुदायों के बच्चे ज्यादा संख्या में कोचिंग लेने आ रहे हैं.

4. आईटी का प्रोफेशनल बनना और आईटी को आधार बनाकर बिजनेस करना दो अलग बातें हैं. हो सकता है कि इनमें से जो दूसरा क्षेत्र है, उसमें बनियों ने अपना दबदबा आसानी से कायम कर लिया हो.

5. पूंजी दरअसल तीन तरह की होती है– आर्थिक (रुपया, पैसा, जायदाद), सांस्कृतिक (संस्कार, पहचान आदि) और सामाजिक (जान-पहचान, नेटवर्क). इन तीनों में से अगर कोई एक पूंजी किसी के पास है, तो बाकी दो पूंजी वह हासिल कर सकता है.

फ्रांसीसी समाज विज्ञानी पियरे बॉर्द्यू ने इनमें से सांस्कृतिक और सामाजिक पूंजी को ज्यादा महत्व दिया है. भारत के संदर्भ में भी एक समय तक ये दो पूंजी ज्यादा अहम हुआ करती थी. लेकिन उदारीकरण के बाद, ऐसा लगता है कि अगर किसी के पास आर्थिक संपदा है तो वह न सिर्फ सांस्कृतिक बल्कि सामाजिक पूंजी भी आसानी से हासिल कर सकता है. ऐसा लगता है कि बनियों ने अपनी आर्थिक पूंजी से वह सब हासिल कर लिया जो जाति श्रेष्ठता के कारण अब तक ब्राह्मणों को ही हासिल थे.

मेरा मानना है कि आर्थिक पूंजी के दम पर बनियों ने ज्ञान के मंदिर के गर्भगृह से ब्राह्मणों को बेदखल करना शुरू कर दिया है. जरूरी नहीं है कि ये टकराव की शक्ल ले. ये काम सहमति से भी संभव है.

आखिर राजनीति में मोढ घांची (तेल विक्रेता समुदाय के) नरेंद्र मोदी और जैन व्यापारी समुदाय के अमित शाह ने पंडित नेहरू और पंडित पंत का दौर खत्म कर ही दिया और मोहन भागवत इस बदलाव का मार्गदर्शन कर ही रहे हैं.

इसके बावजूद, जन्म आधारित और शास्त्रसम्मत असमानता अगर पैसे की वजह से और पैसे की ताकत से टूटती है, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


यह भी पढ़ें: कृषि कानूनों को वापस लेकर मोदी ने सावरकर के हिंदुत्व की रक्षा की है


 

share & View comments