मौजूदा चिंताओं का केंद्र यूरोप है, क्योंकि ट्रंप और उनकी सरकार को यूरोपीय देशों से खास नाराजगी लगती है. ज़ेलेंस्की केस के बाद यूरोपीय नेताओं ने कागज़ों पर तो मजबूती दिखाने की बात कही है, लेकिन इतिहास को देखते हुए ज्यादा उम्मीद करना गलत होगा. दशकों तक अमेरिका की सुरक्षा के भरोसे रहने के कारण खासकर पश्चिमी यूरोप के देश बात करने में तो माहिर हो गए हैं, लेकिन खर्च करने में नहीं.
यह भी समझना जरूरी है कि यूरोप की भौगोलिक स्थिति क्या है. जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन जैसे ताकतवर देश रूस से काफी दूर हैं, जो इस क्षेत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा माना जाता है. जब तक रूस पूर्वी यूरोप पर कब्जा नहीं करता, वह पश्चिमी यूरोप के लिए सीधा खतरा नहीं बन सकता.
यही कारण है कि ये देश सिर्फ बातचीत कर रहे हैं, लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठा रहे. उनकी पहली प्रतिक्रिया एक शिखर सम्मेलन आयोजित करना थी, जो महज औपचारिक चर्चा का एक और दौर साबित हुआ.
दूसरी प्रतिक्रिया यह रही कि यूरोपीय नेता वॉशिंगटन दौड़ पड़े ताकि ट्रंप को समझा सकें. फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों पहले ही अमेरिका जा चुके हैं, और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर उनके बाद जाने वाले थे. लेकिन यह भी एक निरर्थक कोशिश ही है. ट्रंप को समझाना लगभग नामुमकिन है, क्योंकि उन्हें अपने ज्ञान की कमी का अहसास नहीं है और वे असीम आत्मविश्वास में डूबे रहते हैं.
बेशक, अगर यूरोपीय शक्तियां वास्तव में गंभीर हैं, तो उनके पास अपने रूस की समस्या से निपटने की पूरी क्षमता है. रूस की अर्थव्यवस्था जर्मनी की तुलना में आधी है और फ्रांस, ब्रिटेन और यहां तक कि इटली से भी छोटी है.
रूस के पड़ोसी देश भी उतने कमजोर नहीं हैं जितना आमतौर पर माना जाता है. रूस की जीडीपी करीब 2 ट्रिलियन डॉलर है, जबकि मध्य यूरोप और बाल्टिक क्षेत्र की कुल जीडीपी लगभग 2.2 ट्रिलियन डॉलर है, हालांकि ये कई छोटे देशों में बंटे हुए हैं. स्कैंडिनेवियाई देशों की अर्थव्यवस्था भी इसमें 1 ट्रिलियन डॉलर जोड़ती है. हालांकि धन ही अकेला पैमाना नहीं होता, लेकिन रूस के मध्य यूरोपीय पड़ोसी उतने कमजोर नहीं हैं जितना आमतौर पर समझा जाता है.
रूस के साथ सीमा साझा करने वाले देशों ने रूसी वर्चस्व का दौर झेला है और उन्हें याद भी है, इसलिए वे इसे रोकने के लिए पूरी तरह तैयार हैं. यही कारण है कि पोलैंड जैसे ताकतवर देश रूसी खतरे को लेकर अधिक आक्रामक रुख अपना रहे हैं.
स्कैंडिनेविया, मध्य यूरोप और बाल्टिक देशों के रक्षा बजट में भारी इजाफा हुआ है. हालांकि रूस अब भी इन सबसे ज्यादा रक्षा खर्च करता है, लेकिन इसका बड़ा हिस्सा यूक्रेन में उसकी महंगी और रुकी हुई जंग को जारी रखने में चला जाता है.
हालांकि, समस्या यह है कि सुरक्षा गठबंधन बनाना हमेशा कठिन होता है. इसलिए, अपनी व्यक्तिगत और सामूहिक क्षमता के बावजूद, पश्चिमी और पूर्वी यूरोपीय देशों के लिए मजबूत गठबंधन बनाना मुश्किल रहेगा, खासकर शांति के समय.
कोई भी सैन्य गठबंधन तब तक कारगर नहीं होता जब तक उसमें एक ऐसा स्पष्ट नेता न हो जो बाकी देशों से कहीं अधिक शक्तिशाली हो. नाटो इसलिए सफल हो सका क्योंकि अमेरिका बाकी सभी से कहीं अधिक ताकतवर था, भले ही फ्रांस जैसे देशों ने इसकी आलोचना की हो. आमतौर पर बराबर शक्ति वाले देशों के बीच शांति काल में गठबंधन बनना दुर्लभ ही होता है.
फ्रांस नेतृत्व की भूमिका निभाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन उसमें इच्छाशक्ति अधिक और क्षमता कम दिखती है. जर्मनी और ब्रिटेन जैसे अन्य देश इस भूमिका के लिए पर्याप्त रूप से सक्षम नहीं हैं और वे इसकी खास इच्छा भी नहीं रखते. यही कारण है कि फ्रांस और जर्मनी के बीच संभावित परमाणु साझेदारी की बढ़ती चर्चाएं शायद महज बातों तक ही सीमित रह जाएं.
क्या सहयोगी इंतिजार कर सकते हैं?
इंडो-पैसिफिक क्षेत्र पर इसका प्रभाव और भी ज्यादा गंभीर हो सकता है क्योंकि चीन के खिलाफ संतुलन बनाने वाला गठबंधन खड़ा करना यहां और भी मुश्किल होगा. यहां शक्ति संतुलन की खाई ज्यादा गहरी है, इतिहास में इसका कोई समानांतर उदाहरण नहीं मिलता, और संभावित साझेदार एक-दूसरे से भौगोलिक रूप से काफी दूर हैं. यूरोप के पास कम से कम खतरे से निपटने की क्षमता तो है, भले ही राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी हो, लेकिन इंडो-पैसिफिक में न तो पर्याप्त क्षमता है और न ही पूरी तरह संगठित रणनीति, भले ही कुछ हद तक राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखती हो.
यूरोप की मुश्किलें उसे भारत और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के लिए एक सीमित साझेदार बनाती हैं. रूस, जो अब भी भारत के लिए भावनात्मक रूप से पसंदीदा देश है, इस चर्चा का हिस्सा भी नहीं होना चाहिए क्योंकि रणनीति में भावनाओं का कोई स्थान नहीं होता. सच्चाई यह है कि रूस की अर्थव्यवस्था भारत की आधी है, और उसकी तकनीक अब भी शीत युद्ध काल के स्तर पर है, जो भारत की भविष्य की जरूरतों के लिए उपयुक्त नहीं है.
अब सवाल यह है कि अमेरिका के साझेदार और सहयोगी—चाहे वे इंडो-पैसिफिक में हों या यूरोप में—क्या तब तक टिक पाएंगे जब तक अगला अमेरिकी प्रशासन अपनी नीतियों में सुधार नहीं करता?
हालांकि, एक सकारात्मक पक्ष भी ध्यान रखना चाहिए—अमेरिका तुरंत अपने सभी समझौतों और प्रतिबद्धताओं से खुद को अलग नहीं कर सकता. उदाहरण के लिए, कनाडा अमेरिकी मिसाइल रक्षा प्रणाली का अहम हिस्सा है और उसके पास कई ऐसे रडार हैं जो NORAD सिस्टम के तहत काम करते हैं. इसी तरह, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया में अमेरिका की महत्वपूर्ण खुफिया सुविधाएं हैं. दुनिया भर में फैले अमेरिकी सैन्य ठिकाने उसकी आतंकवाद विरोधी रणनीति के लिए जरूरी हैं.
ज्यादा संभावना इस बात की है कि अमेरिका अपने गठबंधनों को पूरी तरह खत्म नहीं करेगा, बल्कि उन्हें कुछ हद तक कमजोर कर देगा—कम से कम अस्थायी रूप से. और यह सिर्फ इसलिए भी हो सकता है क्योंकि ये गठबंधन इतने जटिल हैं कि ट्रंप भी इन्हें एक झटके में तोड़ नहीं सकते.
राजेश राजगोपालन जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (JNU), नई दिल्ली में इंटरनेशनल पॉलिटिक्स के प्रोफेसर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @RRajagopalanJNU है. ये उनके निजी विचार हैं.
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