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Thursday, 25 April, 2024
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मंदी से बचना है तो सरकारी नौकरियों के खाली पदों को भरे सरकार

देश का जो सबसे कमज़ोर तबक़ा है, उसकी क्रयशक्ति में इजाफा केवल मनरेगा जैसी में योजनाओं में ख़र्चा बढ़ाकर किया जा सकता है. शिक्षा और स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च भी बढ़ाना होगा.

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भारत की अर्थव्यवस्था मंदी की तरफ़ बढ़ रही है. मई के अंत में आर्थिक विकास पर जारी हुई रिपोर्ट्स ने इस बात को साबित कर दिया था कि भारत अब दुनिया की सबसे ‘तेज़ी से विकसित होती अर्थव्यवस्था’ नहीं रहा. बाक़ी की कसर ऑटोमोबाइल सेक्टर में मंदी और देश के सफल बिजनेसमैन में शुमार ‘कैफ़े काफ़ी डे’ के संस्थापक बीजी सिद्धार्थ की आत्महत्या की ख़बरों ने पूरा कर दिया.

अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर देखा जाए तो जिस तरह से रुपए की क़ीमत डॉलर, पाउण्ड और यूरो के मुक़ाबले लगातार गिर रही है, उससे यह साफ़ ज़ाहिर है कि भारत की अर्थव्यवस्था मंदी की कगार पर है. स्थिति ख़राब होते देख वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस करके आने वाली स्थिति से निपटने के लिए उठाए जा रहे क़दमों से अगवत कराया है, और इसके साथ ही सरकार ने रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया से एक लाख छिहत्तर हज़ार करोड़ रुपए का रिज़र्व भी ले लिया है. यह अलग बात है कि वित्तमंत्री ये नहीं बताया है कि उस पैसे का सरकार क्या करेगी?

बड़े अर्थशास्त्रियों ने छोड़ा पद

पिछले पांच साल से जिस तरह से एक-एक करके बड़े अर्थशास्त्री सरकार का साथ छोड़कर चले गए, उससे भी पता चल रहा था कि अर्थव्यवस्था में सब कुछ अच्छा नहीं चल रहा है. सरकार का साथ छोड़कर जाने वालों में रघुराम राजन, अरविन्द सुब्रमण्यम, ऊर्जित पटेल, विरल आचार्य से लेकर प्रो. अरविन्द पनगड़िया तक का नाम शामिल है. इन सब में प्रो. अरविन्द पनगड़िया का जाना ज़्यादा महत्वपूर्ण इसलिए था क्योंकि इनके गुरू प्रो. जगदीश भगवती को इस सरकार का आर्थिक मामलों में मार्गदर्शक माना जाता है. चूंकि उनकी उम्र हो चली है, इसलिए उनके शिष्य अरविन्द पनगड़िया ने सरकार के सलाहकार की भूमिका निभाई. मोदी सरकार ने पिछले पांच वर्षों में स्किल इंडिया जैसी कई योजनाएं लागू कीं, जिनका विचार जगदीश भगवती और अरविन्द पनगड़िया की किताबों से ही लिया गया था. प्रो. पनगड़िया सरकार से इस्तीफ़ा देकर वापस पढ़ाने अमेरिका चले गए हैं.

इस लेख में इस बात की समीक्षा करने की कोशिश की गयी है कि ऐसे कौन से कारण हैं, जिसकी वजह से मंदी जैसे हालत बन रहे हैं और आर्थिक मंदी का असर क्या हो सकता है.

आर्थिक मंदी आने का प्रभाव

देश में आर्थिक मंदी आने का मतलब है कि नई नौकरियां नहीं पैदा होंगी और बेरोज़गारी बढ़ेगी. मंदी आने पर कम्पनियों की बिक्री कम हो जाती है, जिससे उत्पादन से लेकर हर स्तर पर लगे कर्मचारियों की छंटनी होती है, जो कि बेरोज़गारी को और बढ़ा देती है. ये एक दुष्चक्र की तरह काम करती है क्योंकि बेरोजगारी से लोगों की खरीदने की क्षमता कम हो जाती है. भारत में पिछले पांच साल से रोज़गार का संकट तेज़ी से बढ़ रहा था, उसका कारण मंदी को ही बताया जा रहा है. हालांकि इस विषय में जब भी प्रधानमंत्री से सवाल पूछा गया तो उन्होंने ‘पकौड़ा बेचने,’ जैसे सतही उदाहरण देकर मामले को टालने की कोशिश की.

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मोदी सरकार को मंदी का अहसास देर से हुआ क्योंकि इसके शुरुआती सालों में अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमत काफ़ी कम हो गयी थी. भारत सरकार ने उसके सापेक्ष घरेलू बाज़ार में तेल (पेट्रोल, डीज़ल) की क़ीमत कम नहीं की. इससे सरकार को ख़ूब मुनाफ़ा होता रहा.आलम यह था कि भारत से ख़रीदकर नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका अपने यहां सस्ता पेट्रोल और डीज़ल बेच रहे थे, जबकि भारत में उसकी क़ीमत ज़्यादा थी. अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में अब कच्चे तेल की क़ीमत बढ़ गयी है, इसलिए सरकार को मुनाफ़ा होना कम हो गया है.


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मंदी आने का कारण

अर्थव्यवस्था में मंदी आने के तमाम कारण हैं, लेकिन इसके पीछे पहला कारण केंद्र सरकार द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार पर किए जाने खर्च में कटौती है. नरेंद्र मोदी सरकार ने आते ही आर्थिक सुधार के नाम पर सरकार द्वारा इन मदों में किए जाने वाले ख़र्चों में काफ़ी कटौती की, जिससे आम लोगों के पास पैसे की कमी हुई. शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र भारत में बड़ी संख्या में रोज़गार भी पैदा करते हैं, इसलिए वहां सरकारी खर्च घटने से बेरोज़गारी भी बढ़ी.

नोटबंदी को आर्थिक मंदी के लिए प्रमुख तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है. सरकार ने जिस तरह से अचानक से देश की 85 प्रतिशत करेंसी को अवैध घोषित कर दिया था, उससे रीयल स्टेट सेक्टर पूरी तरह से टूट गया, जो कि बहुत बड़ी संख्या में लोगों को रोज़गार देता है. इसके अलावा आम जनता से सरकार ने पैसा बैंकों में जमा करवा दिया, जिससे भी लोगों की क्रय शक्ति में गिरावट आयी. इसका उत्पादन पर प्रभाव पड़ा, और छंटनी शुरू हुई.

देश की जनता नोटबंदी के असर से निकल नहीं पायी थी कि सरकार ने जीएसटी लागू कर दी, जिसकी वजह से छोटे-छोटे व्यापारियों का अच्छा-खासा पैसा जीएसटी भरने के नाम पर सरकार के पास चला गया. जीएसटी के माध्यम से अर्थव्यवस्था में एक बार फिर इंस्पेक्टर राज की वापसी हो गयी, जिसका भी मंदी लाने में काफ़ी योगदान है. कारोबार करना अब पेचीदा हो गया है. जिस तरीक़े से पिछले कुछ सालों में ईडी और इनकम टैक्स डिपार्टमेंट ने छापे डाले है, वह इंसपेक्टर राज की वापसी की ही कहानी कहता है. कैफ़े काफ़ी डे के मालिक का सुसाइड नोट यह बताता है कि किस तरह से इन्स्पेक्टर राज की वापसी हुई है.

अर्थव्यवस्था के खस्ताहाल होने का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण देश के बैकों में रखे आम जनता के पैसे को लेकर हज़ारों की संख्या में बड़े व्यापारियों का विदेश भाग जाना भी है. नीरव मोदी, विजय माल्या, संदेसरा बंधु तो मात्र कुछ एक उदाहरण हैं, ऐसे व्यापारियों की लिस्ट लम्बी है..

मंदी से निपटने के क़दम कारगर क्यों नहीं

मंदी से निकलने का एक रास्ता निवेश, खासकर विदेशी निवेश को बढ़ाना है. सरकार ने विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए पर्यावरण संरक्षण क़ानूनों और श्रम क़ानूनों में बदलाव भी किया. लेकिन निवेश लाने में अपेक्षित सफलता नहीं मिली है. इसका एक कारण सरकार की विश्वसनीयता में कमी होना भी है, क्योंकि सरकार पारदर्शिता पर ध्यान नहीं दे रही है. आर्थिक वृद्धि से लेकर बेरोज़गारी के आकड़ों में जिस तरह से फेरबदल की बात सामने आयी, उससे विदेशी निवेशकों का सरकार पर विश्वास कम हुआ है. हाल ही में आरटीआई कानून में किए गए संशोधन से पारदर्शी अर्थव्यवस्था के तौर पर भारत की साख घटी है.


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मंदी से निकलने का सबसे महत्वपूर्ण रास्ता लोगों की क्रय शक्ति को बढ़ाना है. इसका एक उपाय बड़ी संख्या में सरकारी नौकरियों में ख़ाली पड़े पदों को भरकर निकल सकता है, लेकिन सरकार यह करने को तैयार नहीं क्योंकि उसे ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ चाहिए. लेकिन इन सब तरीक़ों का फ़ायदा केवल मध्य वर्ग को मिल सकता है. देश का जो सबसे कमज़ोर तबक़ा है, उसकी क्रयशक्ति में इजाफा केवल मनरेगा जैसी में योजनाओं में ख़र्चा बढ़ाकर किया जा सकता है, जिसे प्रधानमंत्री ‘असफलता की इमारत’ बता चुके हैं.

(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं .ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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