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Wednesday, 11 December, 2024
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साल 2024 में ‘INDIA’ के लिए चुनावी लड़ाई और BJP को मात देने के तीन मोर्चे

अगर विपक्ष के पास रणनीति हो और उस पर अमल करने की राजनीतिक इच्छा-शक्ति और कल्पना-शक्ति हो तो 2024 के लिए मुकाबले का मैदान अब भी खुला हुआ है.

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क्या भारतीय जनता पार्टी को लगातार तीसरी जीत से रोका जा सकता है? क्या ऐसी कोई रणनीति है जो सत्ताधारी पार्टी को साल 2024 में बहुमत का आंकड़ा छूने से रोक सके? राजनीति की गति को बारीकी से देखने वाले ज्यादातर पर्यवेक्षक और टिप्पणीकारों ने अब उम्मीद छोड़ दी है. विपक्ष के कई नेताओं का भी यही हाल है.

लेकिन मैं सहमत नहीं हूं. मैं आखिरी लम्हें के चमत्कार में विश्वास रखता हूं. मुझे यकीन है कि इंडिया गठबंधन बहुमत के आंकड़े तक पहुंच जाएगा. हिन्दी-पट्टी के तीन राज्यों में बीजेपी को मिली जीत से निकलते संकेतों की मैं अनदेखी नहीं कर रहा. नरेंद्र मोदी की सरकार के बारे में चाहे मेरा आकलन जो भी हो, मैं प्रधानमंत्री की लोकप्रियता की निशानदेही करते चुनाव पूर्व रुझानों को हल्के में नहीं ले रहा.

फिर भी, मैं इस बात से सहमत नहीं कि 2024 की बाजी में ‘शह और मात’ का फैसला हो चुका है. मैंने सबूतों के इर्द-गिर्द गढ़े इंद्रजाल को हटाकर देखने की कोशिश की है — सीखा है. बेशक हाल के चुनावों के नतीजे और सर्वेक्षणों से निकलते सबूत कह रहे हों कि बीजेपी का 2004 की तरह इस बार बड़े अंतर से हारना मुमकिन नहीं, लेकिन, सबूत इस संभावना से इनकार नहीं कर रहे कि बीजेपी 273 के आंकड़े तक नहीं पहुंच पाएगी भले ही इंडिया गठबंधन को बहुमत हासिल न भी हो. अगर विपक्ष के पास रणनीति हो और उस पर अमल करने की राजनीतिक इच्छा-शक्ति और कल्पना-शक्ति हो तो फिर 2024 के लिए ऐसे चुनावी नतीजे की संभावना बरकरार है, जहां तक आज की तारीख का सवाल है — 2024 के लिए मुकाबले का मैदान अब भी खुला हुआ है.

विपक्षी दलों के लिए ऐसी रणनीति का एक खाका यहां पेश है. आइए, 2024 के चुनावी मुकाबले के मैदान को पहला, दूसरा और तीसरा मोर्चा नाम के तीन हिस्सों में बांटकर देखें. ऐसा करने के पीछे मंशा चुनावी मैदान के इन तीन अलग अलग हिस्सों के लिए अलग-अलग दांव और पैंतरे तैयार करने की है.

चित्रण : सोहम सेन / दिप्रिंट
चित्रण : सोहम सेन / दिप्रिंट

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लड़ाई के तीन मोर्चे : दांव और पैंतरे

आइए, शुरुआत तीसरे मोर्चे से करते हैं, जहां बीजेपी चुनावी मुकाबले की कमज़ोर ताकत है. केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में बीजेपी मुकाबले में शीर्ष के दो प्रतिद्वंद्वियों में शामिल नहीं. इसमें पंजाब, कश्मीर, मिज़ोरम, नागालैंड और लक्षद्वीप को भी जोड़ दें तो मुकाबले में दांव पर लगी लोकसभी की सीटों की संख्या 120 तक पहुंच सकती है. पिछली बार बीजेपी को इस पूरे इलाके में सिर्फ 6 सीटें हाथ लगी थी — 4 सीट उसे तेलंगाना में मिली थी और 2 सीट पंजाब में. बीते 5 साल में इस इलाके में बीजेपी की पहुंच कुछ खास नहीं बढ़ी. बीजेपी को उम्मीद थी कि तेलंगाना उसके लिए अगला बंगाल साबित होगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. अगर सियासी माहौल वैसा ही रहता है जैसा आज की तारीख में है तो फिर बीजेपी के लिए इस इलाके में पंजाब में अकाली दल और तेलंगाना में बीआरएस के साथ ढंके-छिपे या फिर खुलमखुल्ला गठबंधन के बगैर अपनी पिछली 6 सीट बचाना भी मुश्किल है.

इंडिया गठबंधन के लिए बीजेपी के विरुद्ध ‘‘घेरा कसकर पांव रोक देने की’’ रणनीति अपनाना इस इलाके के लिए ठीक रहेगा. इन राज्यों में बीजेपी विरोधी गठबंधन कायम करने की ज़रूरत नहीं. नज़र उन सीटों पर रखनी होगी, जहां बीजेपी अपना खाता खोलने की जुगत लगा सकती है, जैसे केरल के तिरुवनंतपुरम या कन्याकुमारी और तमिलनाडु के कोयम्बटूर में. विपक्षी दल और नागरिक समाज लक्ष्यभेदी चुनाव-अभियान चलाकर तथा ज़रूरत जान पड़ने पर इंडिया गठबंधन के साथी दलों के बीच थोड़ा-बेस वोट-बदल करवा कर इस इलाके में बीजेपी को घेरे में कस सकते हैं. इसके अलावा ये भी ध्यान रखना होगा कि बीजेपी के साथ मौजूदा या फिर भावी गठबंधन में शामिल होने वाले दलों की संख्या में बढ़ोतरी ना हो. चुनावी लड़ाई के इस पहले मोर्चे पर बीजेपी को जस की तस की हालत में रोक रखना मुश्किल नहीं.

लड़ाई के मैदान का दूसरा मोर्चा बनता है उन 223 सीटों से, जहां बीजेपी सबसे दमदार खिलाड़ी है और उसे अगले तीन महीने में अपनी जगह से हिला पाना मुश्किल है. ये 223 सीटें अपने ज्यादातर में हिन्दी-पट्टी के राज्यों — उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, राजस्थान और दिल्ली में हैं. इस कड़ी में गुजरात, असम, जम्मू और साथ ही साथ, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, गोवा जैसे छोटे-छोटे राज्यों को भी जोड़ लें तो मानचित्र पर वह पूरा इलाका उभर आएगा जहां अभी बीजेपी का डंका बज रहा है. इस इलाके में बीजेपी का स्ट्राइक रेट पिछली बार 85 प्रतिशत था और पार्टी ने 223 में से 190 सीटें जीती थी. साल 2019 के बाद इस इलाके में हुए विधानसभा के चुनावों के नतीजे और ओपिनियन पोल बताते हैं कि बीजेपी का दबदबा यहां अब भी बरकरार है, लेकिन यहां हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि बीजेपी को इस इलाके में सीटें झाड़ू-बुहार अंदाज़ में जीतनी होंगी. अगर उसके स्ट्राइक-रेट में हल्की सी भी कमी आती है, मिसाल के लिए स्ट्राइक रेट 85 से खिसक कर 75 प्रतिशत पर भी आ जाए तो पार्टी के बहुमत के समीकरण बिगड़ सकते हैं. ज़ाहिर है, फिर विपक्ष के लिए संभावना है.

इस इलाके में बीजेपी के विरुद्ध विपक्ष के लिए ‘कैंचीमार पैंतरा’ अपनाना ठीक रहेगा. इसमें विपक्ष को अपना ध्यान बिल्कुल बाज की तरह चुनिंदा सीटों पर लगाना होगा. मिसाल के लिए गुजरात को बीजेपी का गढ़ माना जाता है, लेकिन यहां कांग्रेस जनजातीय इलाके की 4 सीटों को अपना निशाना बना सकती है. राजस्थान में कांग्रेस को सूबे के उत्तर-पूर्वी इलाके में लगभग छह सीटें और दक्षिणी इलाके में एक-दो सीटें मिल सकती हैं बशर्ते वह भारतीय आदिवासी पार्टी से गठजोड़ कर ले. उत्तर प्रदेश की चुनावी लड़ाई विपक्ष के लिए बेशक मुश्किल है, लेकिन सपा-रालोद-कांग्रेस का गठजोड़ लगभग दो दर्जन सीटें खींच सकता है. इन राज्यों में विपक्ष के लिए बीजेपी से वोट झटक कर निकालना ज़रूरी नहीं, बस इतना करना है कि हाल के विधानसभा चुनावों में जितने वोटर उसके पाले में थे, उन्हें दूर छिटकने से रोकना है और ऐसा बस कुछ ही सीटों पर करना है. अपवाद के लिए उत्तर प्रदेश को छोड़ दें तो लड़ाई के इस दूसरे मोर्चे पर भी विपक्ष के लिए कोई महागठबंधन बनाना ज़रूरी नहीं; वक्ती ज़रूरत को देखते हुए स्थानीय स्तर पर चुन-छांटकर गठबंधन बना लेना काफी होगा. अगर चुनावी लड़ाई के मैदान के दूसरे मोर्चे पर दांव पर लगी 223 सीटों में से 50 सीटों को भी विपक्ष अपने निशाने पर लेता है तो बीजेपी से वह 20-25 सीट झटक सकता है.

इस रणनीति को अपनाने से इंडिया गठबंधन को लड़ाई के मुख्य मोर्चे पर नज़र टिकाने में मदद मिलेगी जहां लोकसभा की कुल 200 सीटें दांव पर लगी हैं और जहां बीजेपी ने पिछली बार तो बहुत दमदार प्रदर्शन किया था, लेकिन इस बार उसके पैर रपट सकते हैं. इसके अलग-अलग कारण हैं. मिसाल के लिए महाराष्ट्र और बिहार में सियासी उठा-पटक बीच सरकार की नई तस्वीर उभरी है, नए गठबंधन सामने आए हैं और इसमें इंडिया गठबंधन के लिए मौके बने हैं. पश्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक में 2019 के बाद चुनाव हुए हैं और बीजेपी को करारी शिकस्त मिली. किसान आंदोलन ने हरियाणा में सियासी माहौल बदल दिया है. ओड़िशा में बीजेडी इस बार बीजेपी को लोकसभा की सीटें उस उत्साही भाव से उपहार के रूप में देने को तैयार नहीं होगी जैसा उसने 2019 में किया था. इस कड़ी में सिक्किम, मणिपुर, मेघालय जैसे राज्य और लद्दाख, चंडीगढ़, पुडुचेरी जैसे संघ शासित प्रदेश भी जोड़ सकते हैं. बीजेपी ने गठबंधन के साथी दलों के साथ मिलकर 2019 में इस पूरे इलाके की 147 सीटों में से 107 सीटें जीती थीं.


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चुनावी लड़ाई के इस मुख्य मोर्चे पर विपक्ष को धक्कामार शैली में दो-दो हाथ करने होंगे. आमने-सामने की इस लड़ाई विपक्ष को हमला इतना तेज़ करना होगा कि सत्ताधारी पार्टी को अपने कब्जे की भरपूर ज़मीन छोड़नी पड़े. इस इलाके में इंडिया गठबंधन को पूरमपूर और कारगर तालमेल के साथ काम करना होगा — सिर्फ सीटों के बंटवारे के फॉर्मूले पर पहुंचने भर से काम नहीं चलने वाला. बिहार और महाराष्ट्र में महागठबंधन कायम करने की ज़रूरत है (यानी महाराष्ट्र में वंचित बहुजन अघाड़ी और बिहार में सीपीआई-एमएल को साथ लेकर चलना होगा) बंगाल में कांग्रेस-टीएमसी की आपसी झगड़ों से ऊपर उठते हुए सीपीएम के साथ एक अनौपचारिक किस्म की समझ कायम करनी होगी. कांग्रेस के लिए नई सियासी ताकतों (मिसाल के लिए कर्नाटक में छिटक का दूर जा खड़े हुए जेडीएस) के साथ छोटा गठबंधन बनाना या उनके साथ सुलह करनी होगी. कांग्रेस को ऐसा ही हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में करना होगा और ओड़िशा में विपक्ष के लिए मौजूद ज़मीन पर अपने पांव जमाने होंगे. इसके साथ ही इंडिया गठबंधन के सभी नेताओं को इस पूरे इलाके में पुरजोर चुनाव-अभियान चलाना होगा. अगर इंडिया गठबंधन पूरे तालमेल के साथ इस इलाके में मैदान में उतरे तो बीजेपी को इन राज्यों में 30-40 सीट गंवानी पड़ सकती हैं.

अगर हम यही मानकर चलें कि चुनावी लड़ाई के इन तीन मोर्चों पर बीजेपी को सीटों का घाटा कम होने जा रहा है तो भी गणित यही बनता दिख रहा है कि बीजेपी के हाथ से कम से कम 50 सीटें (0+20+30) जा सकती हैं और इस तरह बीजेपी की झोली में 253 सीटें रहेंगी यानी बहुमत के आंकड़े से 20 सीटें कम. अगर भाग्य ने साथ दिया तो फिर बीजेपी के लिए अपने गठबंधन के साथियों के खीसे में आई सीटों के सहारे इस कमी की भरपाई करना मुश्किल होगा क्योंकि उसके साथी दलों की संख्या कम है. ज़रूरी नही कि उभरने वाली तस्वीर हू-ब-हू ऐसी ही हो, लेकिन आज की तारीख में ऐसी संभावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता.

और, अब आखिर की ज़रूरी बात यानी ज़िक्र उन शर्तों और हालात का जिनके रहते ऊपर बताई गई तस्वीर का शक्ल लेना मुमकिन होगा. लेख में यह मानकर चला गया है कि चुनाव से पहले के आने वाले चंद महीनों में बीजेपी का वोट शेयर नाटकीय ढंग से नहीं बढ़ेगा — ऐसा कुछ खास नहीं होगा कि जिन लोगों ने विधानसभा चुनाव में विपक्ष को वोट डाला वे बड़ी संख्या में छिटक कर बीजेपी को वोट डालेंगे जैसा 2019 के चुनाव में हुआ था. हमारी यह मान्यता तभी कारगर होगी जब विपक्ष बीजेपी के लिए मैदान एकदम से खुला नहीं छोड़ता और इंडिया गठबंधन एक मजबूत और सुसंगत विकल्प बनकर उभरता है तथा देश के लिए एक ऐसा एजेंडा लाता है जो आकर्षक और विश्वसनीय हो.

क्या यह एक अंसभव आस है? मैं इसका जवाब आप पर छोड़ता हूं.

(योगेंद्र यादव भारत जोड़ो अभियान के राष्ट्रीय संयोजक और स्वराज इंडिया के संस्थापकों में से एक हैं और राजनीतिक विश्लेषक हैं. उनका एक्स हैंडल @_YogendraYadav है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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