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Friday, 22 November, 2024
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रूस-यूक्रेन युद्ध पर तीन तरीके से हो सकता है विचार- शुरुआत ‘खराब छवि वाले’ पुतिन से

पुतिन की महत्वाकांक्षाएं भले परवान न चढ़ीं हों, लेकिन मैकाइंडर ने जर्मनी और रूस के बीच वास्तव में ‘बफर’ जोन’ बनाने का जो सुझाव दिया था, वह आज भी प्रासंगिक बना हुआ है

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यूक्रेन युद्ध पर तीन पहलुओं से विचार किया जा सकता है. पहला तो जाहिर है कि व्लादिमीर पुतिन एक बुरे शख्स हैं जिन्होंने एक स्वतंत्र को देश को रहस्यपूर्ण ढंग से एक देश न माते हुए उस पर हमला कर दिया है. उन्होंने पश्चिमी खेमे में शामिल होने के इच्छुक यूक्रेनियों का गलत आकलन किया और सामरिक गलती कर बैठे. इसका मतलब यह हुआ कि अब उन्हें हमले को और खतरनाक रूप से तेज करना पड़ेगा और/या अपने घर में मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा. जो भी हो, उनके देश और उसकी अर्थव्यवस्था को—जिसे पश्चिमी देशों ने अछूत घोषित कर दिया है— कठिन भविष्य का सामना करना पड़ेगा. कोई भी विवेकपूर्ण नेता अपनी जनता को ऐसी दुरावस्था में डालना नहीं चाहेगा.

दूसरा पहलू भू-राजनीति से जुड़ा है जिसके लिहाज से इन घटनाओं को आंका जा सकता है. तीन दशक पहले जब सोवियत संघ का विघटन हुआ था, हेनरी किसिंगर और बिग्न्यु ब्रेज़ेंस्की सरीखे जानकारों ने ने कहा था कि इस विघटन का अर्थ यह नहीं है कि रूस से सामरिक खतरा खत्म हो गया. वास्तव में, वे 1904 में ब्रिटिश साम्राज्यवादी भूगोलशास्त्री हलफोर्ड मैकिंडर द्वारा दिए गए इस सिद्धांत को आगे बढ़ा रहे थे कि पृथ्वी दो हिस्सों में बंटी है. एक हिस्सा यूरेशियाई ‘हार्टलैंड’ है जिसमें पूर्वी यूरोप और अंतर्देशीय एशिया शामिल है; और दूसरा हिस्सा समुद्र से घिरे अमेरिका जैसे भूभाग का है जो नौसैनिक ताकत पर निर्भर हैं. आज के संदर्भ में प्रासंगिक बात उनकी यह है कि उन्होंने स्वतंत्र देशों की एक पट्टी बनाने का सुझाव दिया था, जो जर्मनी और रूस के बीच वास्तव में ‘बफर’ जोन’ का काम करे.

पश्चिमी ताकतों ने पिछले तीन दशकों में इस सुझाव की अनदेखी की और यूरोपीय संघ तथा ‘नाटो’ का पूरब की ओर विस्तार करके रूस के दरवाजे तक पहुंचा दिया. वास्तव में, वे चाहती हैं कि यूरेशियाई ‘हार्टलैंड’ ताकत यानी रूस पुराने सोवियत संघ की तरह उन्हें चुनौती देने की स्थिति में न रह जाए. पुतिन ने चेतावनी दी थी कि उनके देश पर दबिश न बढ़ाई जाए. अपने एक अहम भाषण में उन्होंने यूरेशियाई ‘हार्टलैंड’ के विचार का खास तौर से जिक्र किया था, और रूस के पश्चिम में रूसी प्रभाव क्षेत्र बनाना चाहते थे. पिछले कुछ महीनों से किसिंगर रूस और पश्चिमी देशों के बीच तटस्थ देशों का ‘बफर ज़ोन’ बनाए रखने पर ज़ोर दे रहे थे, लेकिन उसका कोई असर नहीं हो रहा था. अब आगे यह हो सकता है कि युद्ध इस शर्त पर खत्म हो कि यूक्रेन (और बेलारूस) को बफर ज़ोन घोषित किया जाए, जो रूस चाहता रहा है. देखने वाली बात यह होगी कि रूस के खिलाफ प्रतिबंध इस तरह के समझौते के बाद भी जारी रहेंगे या नहीं. अगर वे जारी रहते हैं तो इसका अर्थ यह होगा कि रूस की घेराबंदी करने की भू-राजनीतिक मंशा कायम है.


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तीसरा पहलू सभ्यतागत विचारों से जुड़ा है जिनके चश्मे से यूरोपीय नव दक्षिणपंथ और उसके कई रूपों के विकास पर नज़र डाली जा सकती है. हंगरी जैसे देशों में सत्ता उन दलों ने हासिल कर ली है जो प्रभावी उदारवादी लोकतांत्रिक विचार को चुनौती देते रहे हैं, और दूसरी जगहों पर भी जर्मनी, फ्रांस, और स्वीडन में स्थानीय-राष्ट्रीय दृष्टिकोण वाले दलों के जरिए आकर्षण बटोर रहे हैं. इस चुनौती के लिए वैचारिक आधार एकदम भिन्न बौद्धिक परंपरा से मिलता है जिसमें वैकल्पिक विमर्श एक सदी पहले रूसी, जर्मन, और फ्रांसीसी दर्शनिकों, इतिहासकारों, और पत्रकारों ने तय किया था, जिनमें से कुछ ने अपनी पहचान नाजियों और यूरोपीय फासीवाद के साथ जोड़ ली थी.

ये लेखक उदारवाद, समतावाद, और व्यक्तिगत स्वाधीनताओं पर ज़ोर देने वाले ‘मानवाधिकारों’ की अवधारणाओं पर सवाल उठाते है, और इसकी जगह समाज के प्रति सामुदायिक दृष्टि, हिंसा के उपयोग, राष्ट्रीय महानता या नियति, और नेता की व्यक्तिपूजा के पक्ष में तर्क प्रस्तुत करते हैं. वे ‘राष्ट्रीय लोकलुभावनवाद के विद्रोह’ की बात करते हैं और सार्वभौमिक मूल्यों को ‘भिन्नता का विनाश’ बताकर खारिज करते हैं, और स्थानीय-राष्ट्रवाद की वकालत करते हैं जो वास्तविक दुनिया से मुक्त हो. और यह सब मजबूत भविष्य की खातिर किया जाता है.

भारत में इस सबकी प्रतिध्वनि स्वतः गूंज रही है. इसे विचारों और रुझानों में (तथ्यों से बेपरवाह दावों में) सुना जा सकता है, जो व्यक्तिगत अधिकारों को प्राथमिकता देने वाले उदार लोकतंत्र की मौजूदा संवैधानिक व्यवस्था को चुनौती देते हैं. लेकिन पुतिन खुद ऐसे लेखकों को उदधृत करने के माध्यम बने हों और उनके विचारों को रूस को विश्व विकास का स्वायत्त केंद्र बनाने के अपने लक्ष्य के लिए इस्तेमाल कर रहे हों. फिर भी, उनके भाषणों में यूरेशियाई और दूसरी अवधारणाओं का जिक्र होता है और वे रूस के इतिहास को यूक्रेन के इतिहास के बरअक्स रखते हैं, जो ‘केवल तथ्यों’ से आगे भी जाते हैं. उनकी महत्वाकांक्षाएं भले परवान न चढ़ीं हों, लेकिन मैकिंडर की विश्वदृष्टि और बड़ी वैचारिक चुनौतियां कायम हैं.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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