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Tuesday, 23 April, 2024
होममत-विमतवैश्वीकरण खत्म हुआ तो लुभाने लगी ‘किलाबंद अर्थव्यवस्था’, लेकिन भारत को अपनी हदें पहचानने की जरूरत

वैश्वीकरण खत्म हुआ तो लुभाने लगी ‘किलाबंद अर्थव्यवस्था’, लेकिन भारत को अपनी हदें पहचानने की जरूरत

भारत वैश्विक सप्लाइ चेन से अलग नहीं हो सकता और वह ऊर्जा, हथियारों के कल-पुर्जों आदि के लिए आयात पर निर्भर रहेगा. आत्म-निर्भरता अधूरा समाधान है क्योंकि अपने में सीमित अर्थव्यवस्था अच्छा प्रदर्शन नहीं करती.

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पच्चीस साल पहले विदेशी मुद्रा की कमी से परेशान पूर्व-एशियाई देशों को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश (आइएमएफ) ने जबरन गलत दवा पिलाई थी. इंडोनेशिया जैसे देश तो मरणासन्न ही हो गए थे. इस सबके बुरे सबक सीखने के बाद क्षेत्रीय खिलाड़ियों ने कह दिया ‘अब और नहीं!’ और इसके बाद विदेशी मुद्रा के उनके भंडार लबालब भर गए. तीन दशक पहले, अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने अकाल पीड़ित भारत को की गई गेहूं आपूर्ति को भी एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया, हालांकि भारत एक याचक जैसा था.

भारत ने वियतनाम पर अमेरिकी हमले की आलोचना करने का दुस्साहस किया था. इंदिरा गांधी ने तब कहा था, ‘अब और नहीं!’ और फिर भारत हरित क्रांति के साथ आगे बढ़ता गया, और आज उसके पास इतना अतिरिक्त अनाज है जितना रिजर्व बैंक के खजाने में अतिरिक्त डॉलर भरा है.

ब्लैकमेल का सामना करने वाले देश शांति काल में परस्पर संपर्कों के फायदे की अनदेखी करके आत्म-निर्भरता में अपनी सुरक्षा तलाशने लगते हैं. यही वजह है कि पश्चिमी देश जिस तरह रूस को विमानों के कल-पुर्जों से लेकर वित्त तक की आपूर्ति को हथियार के रूप में इस्तेमाल करके व्लादिमीर पुतिन को अपना पिछलग्गू बनाने की कोशिश कर रहे हैं उसके नतीजे काफी व्यापक होंगे. पश्चिम ने अभी जो किया है वह दरअसल वैश्वीकरण के ढांचे पर मिसाइलों से हमला करने के बराबर है. थोड़ी भी हैसियत रखने वाल कोई भी देश इसका मतलब समझने की कोशिश करेगा और इसका प्रतिकार करने के उपाय सोचेगा.

भारत के लिए वह दुःस्वप्न वाला मंजर होगा जब चारों तरफ से घिर चुका रूस चीन को गले लगा लेगा, जबकि चीन और पाकिस्तान एक सैन्य धुरी बना चुके हैं. यूक्रेन को अब समझ में आ रहा है कि अधिक ताकतवर पड़ोसी की आंख में उंगली डालने पर क्या होता है, भले ही आपके नागरिक उस पड़ोसी को नापसंद करते हों. उसे सैन्य सहायता तो मिल सकती है मगर लड़ाई उसे ही लड़नी होगी. इसमें भारत के लिए क्या संदेश है यह साफ है. और चीन पर प्रतिबंधों का असर कम ही पड़ेगा.

इसके अलावा, रूस ने अपना आकर्षण भी खो दिया है. सोवियत संघ भारत का सबसे बड़ा व्यापार पार्टनर हुआ करता था लेकिन भारत अब रूस से सैन्य कल-पुर्जों और तेल के अलावा दूसरी चीजें कम ही खरीदता है. रूस भारत को अभी भी वह सब दे रहा है जो और कोई नहीं देगा. इसलिए उसके साथ रक्षा मामलों का रिश्ता अपरिहार्य है. लेकिन रूस ने यूक्रेन में जो दुस्साहस किया है वह उसे कमजोर करेगा और उसका रक्षा उद्योग अपनी बढ़त बनाकर नहीं रख पाएगा. प्रतिबंधों से परेशान उसकी अर्थव्यवस्था एक गैरभरोसेमंद सप्लायर बन जाएगी. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में उसका वीटो भी आसानी से उपलब्ध हो पाएगा, खासकर चीन के खिलाफ.

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सुरक्षा कवच देने का उसका वादा बीती हुई बात बन जाएगी. एक विकल्प यह है कि पश्चिमी देशों के खेल में शामिल होकर उनके नियम-कायदों का पालन करे, चाहे उन्हें गैर-पश्चिमी देशों पर लागू करने में कितना भी भेदभाव क्यों न किया जाए. लेकिन भारत कभी भी एक ऐसा ‘श्वेत नहीं बनेगा. नस्लवाद और साम्राज्यवाद के लंबे अनुभव, अपने आकार और सांस्कृतिक स्वायत्तता के कारण वह उन नियमों को शायद ही मंजूर करेगा जो कहीं और तय किए गए हैं और जिन्हें भेदभाव के साथ लागू किया जाता हो; और वह वैश्विक प्रतिबंधों का उल्लंघन करने वाले परमाणु कार्यक्रमों को सीमित करने पर राजी नहीं होगा. फिर भी, तटस्थ कूटनीतिक रुख बनाए रखना कठिन होगा.

इसके जवाब में बस आत्म-निर्भरता ही एक उपाय नज़र आता है. यह अधूरा समाधान है क्योंकि अपने में सीमित अर्थव्यवस्था अच्छा प्रदर्शन नहीं करती. इसके अलावा, डॉलर का कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है. सप्लाइ चेन गायब नहीं होने वाला है. देश ऊर्जा के लिए आयात पर निर्भर रहने वाला है. और तमाम बड़े अंतरराष्ट्रीय संस्थानों पर पश्चिम का दबदबा है. कोई देश तभी आत्म-निर्भर बन सकता है, जब वह उत्तरी कोरिया ही बनने का फैसला कर ले. हरेक प्रमुख वेपन सिस्टम को देशी बनाने की पहल बहुत शानदार लग सकती है लेकिन वह जरूरत से ज्यादा पैर फैलाने जैसा होगा. आयात बंद हो जाए और घरेलू उत्पादन न हो पाता हो तब हम हम कहीं के नहीं रहेंगे. इसके अलावा, लगभग सभी देसी वेपन सिस्टम में आयात का अहम योगदान होता ही है.

‘तेजस’ विमान का इंजिन जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी बनाती है, नौसेना के जहाज में यूक्रेन से आया इंजिन लगता
है, आदि-आदि.

इस सबका मकसद देसी टेक्नोलॉजी की ‘इंडिया स्टैक’ जैसी पहल के, जिस पर डिजिटल एप्लीकेशन्स तैयार किए जाते हैं, महत्व को कमतर बताना नहीं है. ये एप्लीकेशन्स हैं— एकीकृत पेमेंट इंटरफेस, मोबाइल से लेकर समुद्री जहाजों तक तमाम चीजों के लिए अमेरिकी ‘जीपीएस’ का नया घरेलू विकल्प, आदि. अगर गणतंत्र के संस्थान मजबूत बने रहते हैं तो डेटा का स्थानीयकरण भी मंजूर है. मैनुफैक्चरिंग में, नया संदर्भ प्रमुख उद्योगों के देसीकरण के लिए उत्पादकता से जुड़ी प्रोत्साहन स्कीम के कमजोर तर्क को सहारा देता है, बशर्ते वास्तविक तत्व पर ज़ोर दिया जाए और उसे उपयुक्त स्वरूप दिया जाए. मु

द्दा बचाव तैयार करने और इस तरह की रणनीति की सीमाओं से अवगत रहने का है. प्रतिबंधों का 2014 से जवाब देते हुए रूस ने ‘किलाबंद अर्थव्यवस्था’ बनाने की कोशिश की लेकिन कमजोर बना रहा. चुनिन्दा एकीकरण का विकल्प आपसी निर्भरता बनाने पर बेहतर काम कर सकता है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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