नरेंद्र मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से ये आग्रह कर ठीक किया है कि अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के क्रीमी लेयर के बारे में 2018 के जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता मामले में संविधान पीठ के फैसले पर एक बड़ी पीठ में पुनर्विचार किया जाए. जरनैल सिंह मामले में जस्टिस रोहिंटन नरीमन लिखित फैसला एससी-एसटी समुदाय के संपन्न तबके (क्रीमी लेयर) को पदोन्नति में आरक्षण से वंचित करने के पक्ष में था.
जरनैल सिंह फैसले में गंभीर विसंगतियां थीं.
ओबीसी और एससी-एसटी को समान माना जाना
जरनैल सिंह मामले में पहले के एक फैसले की व्याख्या की गई थी. समस्या ये है कि इन फैसलों ने ओबीसी (पिछड़े वर्ग) के मुद्दे को एससी-एसटी से जोड़ दिया है– ओबीसी पर लागू क्रीमी लेयर के सिद्धांत को एससी-एसटी पर भी थोप दिया गया है. और यही त्रुटि मौजूदा बहस के केंद्र में है.
निराशाजनक बात ये है कि 2018 के मामले की सुनवाई के दौरान संविधान पीठ ने भी इस प्रकट त्रुटि पर ध्यान नहीं दिया.
संविधान पीठ ने जरनैल सिंह मामले में 2006 के एम नागराज बनाम भारत सरकार के फैसले की मिसाल दी थी. हालांकि सरकार के अटॉर्नी जनरल ने असहमति जताते हुए कोर्ट के समक्ष कहा था कि नागराज मामले में एससी-एसटी के क्रीमी लेयर को पदोन्नति में आरक्षण नहीं देने का फैसला 1992 के एक और मामले इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार में दिए गए फैसले की गलत व्याख्या पर आधारित है. उल्लेखनीय है कि 1992 के मामले में सिर्फ ओबीसी को दिए गए 27 प्रतिशत आरक्षण की संवैधानिक वैधता और इस आरक्षण से क्रीमी लेयर को वंचित रखने के सवाल पर विचार किया गया था.
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जरनैल सिंह मामले में कोर्ट ने खास तौर पर इंदिरा साहनी मामले में दिए गए फैसले का हवाला देते हुए जो दो टिप्पणियां की थीं, वो परस्पर विरोधाभासी हैं. एक तरफ तो कोर्ट ने ये कहा कि इंदिरा साहनी मामले में क्रीमी लेयर का संदर्भ सिर्फ ओबीसी तक सीमित था, जिसमें स्पष्ट कहा गया था कि ‘ये बहस सिर्फ अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के संदर्भ में है तथा अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के संदर्भ में इसकी कोई प्रासंगिता नहीं है.’ लेकिन इसी के साथ कोर्ट ने इंदिरा साहनी मामले के फैसले को ‘समानता के कहीं बड़े सिद्धांत का एक पहलू’ करार देने की भी गलती की. दोनों ही दलीलें एक साथ नहीं चल सकती हैं.
इस तरह सुप्रीम कोर्ट ओबीसी और एससी-एसटी में महत्वपूर्ण अंतर को समझने में विफल रहा है.
इंदिरा साहनी मामले समेत विभिन्न मामलों में कोर्ट स्वीकार कर चुका है कि समाज के पिछड़े तबकों के बीच अनुसूचित जातियां सर्वाधिक पिछड़ी हैं और उन्हें सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन के बारे में किसी शर्त को पूरी करने की ज़रूरत नहीं है. एससी-एसटी और ओबीसी के दावों की सुनवाई में समान मानकों को नहीं अपनाया जा सकता है.
भारत के संविधान में समानता की पर्याप्त व्यवस्था है (इसमें ये बात शामिल है कि सकारात्मक पक्षपात के कार्यक्रम सबके लिए एकसमान नहीं हो सकते), और इसलिए हाल में बीके पवित्रा बनाम भारत सरकार (2019) मामले में दो जजों की खंडपीठ ने कहा कि ‘उन संरचनात्मक परिस्थितियों पर भी गौर करने की ज़रूरत है जिनमें कि लोग पैदा हुए हैं.’
नागराज फैसले में भी इसी तरह की गलती की गई थी. एससी-एसटी को पदोन्नति में आरक्षण के प्रावधान संबंधी संविधान संशोधनों का आकलन करते हुए कोर्ट ने इंदिरा साहनी मामले में ओबीसी के लिए निर्धारित मानकों को एससी-एसटी पर भी लागू करने का काम किया था. तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ‘संबंधित संशोधन सिर्फ एससी और एसटी समुदायों के लिए हैं. ये किसी संवैधानिक अर्हता को खत्म नहीं करते, जैसे 50 प्रतिशत की अधिकतम सीमा (मात्रात्मक सीमा), क्रीमी लेयर का सिद्धांत (गुणात्मक निषेध) तथा ओबीसी और एससी-एसटी के बीच उपवर्गीकरण, जैसा कि इंदिरा साहनी मामले में तय किया गया था.’
समानता का सिद्धांत नहीं है क्रीमी लेयर
अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत सरकार (2008) मामले में सुप्रीम कोर्ट की एक अन्य संविधान पीठ ने कहा था कि ओबीसी पर सरकारी विश्वविद्यालयों के साथ सरकारी सहायता प्राप्त निजी विश्वविद्यालयों में भी क्रीमी लेयर के सिद्धांत को लागू किया जाना चाहिए. भारत के मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन ने ज़ोर देकर कहा था कि क्रीमी लेयर का सिद्धांत एससी-एसटी पर लागू नहीं होता है क्योंकि ये मात्र पिछड़े वर्ग की पहचान करने से जुड़ा सिद्धांत है, न कि कोई समानता का सिद्धांत. जरनैल सिंह मामले के फैसले में इसका उल्लेख करते हुए कहा गया है कि अशोक कुमार मामले में फैसला ‘अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जातियों के बारे में नहीं बल्कि ओबीसी के बारे में था’ और इसमें मुख्य न्यायाधीश बालाकृष्णन के विचारों से भी असहमति जताई गई है.
यानी यहां भी एक विरोधाभास है. एक तरफ तो इसमें एससी-एसटी क्रीमीलेयर के संबंध में मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन के विचार से असहमति है क्योंकि अशोक कुमार मामले में फैसला मुख्यत: ओबीसी के आरक्षण से संबंधित था, दूसरी तरफ यह इंदिरा साहनी मामले के फैसले की व्याख्या के आधार पर एससी-एसटी क्रीमी लेयर को आरक्षण से बाहर रखे जाने को स्वीकृति देता है. जरनैल सिंह मामले में जस्टिस नरीमन इस विसंगति से निपटने में नाकाम रहे.
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इसके अलावा, जस्टिस नरीमन ने केरल राज्य बनाम एनएम थॉमस (1976) मामले में क्रीमी लेयर को आरक्षण से बाहर रखने के जस्टिस कृष्णा अय्यर के विचार का भी सहारा लिया है. इससे ये सवाल उठता है कि क्या किसी एक जज का विचार इतना अहम है कि उसे ‘संवैधानिक पीठ क्रीमी लेयर को बाहर रखने के लिए’ इस्तेमाल कर सकती है. यदि ऐसा है तो फिर क्रीमी लेयर को वंचित नहीं करने पर मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन का विचार भी उतना ही महत्वपूर्ण है. इस दुविधा का समाधान किया जाना चाहिए.
क्रीमी लेयर संबंधी दलील
भारत में आरक्षण के विरोधियों का मानना है कि एससी-एसटी के लिए दशकों से जारी आरक्षण ने एक ‘क्रीमी लेयर’ निर्मित किया है और समय आ गया है कि इस संपन्न तबके के वंशजों को नौकरियों में आरक्षण से वंचित किया जाए.
पर ये सही दलील नहीं है. सदियों का भेदभाव और अहितकर छवि, तथा अवसरों से वंचित रखे जाने जैसे नकारात्मक प्रभाव सिर्फ इस बात से दूर नहीं हो जाते हैं कि किसी ने कार खरीद ली या शहर में उसका अपना घर है.
हार्वर्ड सिविल राइट्स-सिविल लिबर्टीज़ लॉ रिव्यू में अपने विस्तृत लेख में प्रोफेसर खियारा एम ब्रिजेस ने उन प्रतिकूल परिस्थितियों का जिक्र किया है जिनका अमेरिका के संपन्न वर्ग के अश्वेतों को सामना करना पड़ता है. इन परिस्थितियों के आधार पर प्रोफेसर ब्रिजेस ‘उत्तर-नस्लवाद’ की विचारधारा को खारिज कर देते हैं. उल्लेखनीय है कि इस विचारधारा के तहत नस्ली आधार पर संचालित सकारात्मक पक्षपात के कार्यक्रमों का इसलिए विरोध किया जाता है कि इससे सिर्फ संपन्न अश्वेत ही लाभांवित होते हैं.
भारत में ‘क्रीमी लेयर’ की बहस अमेरिका में उत्तर-नस्लवाद की बहस जैसी ही है और इसलिए उसी तरह इसकी भी विवेचना होनी चाहिए. इसकी शुरुआत क्रीमी लेयर के बारे में नागराज और जरनैल मामलों में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों पर पुनर्विचार से होनी चाहिए.
(लेखक ने हार्वर्ड लॉ स्कूल से एलएलएम की पढ़ाई की है और राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, दिल्ली के सेमिनार कोर्स ‘कानून, राजनीति और सामाजिक परिवर्तन’ में पढ़ाते हैं. यह उनके निजी विचार हैं)
भारतीय संविधान ने भारतीय संविधान का यानि खुद का *रक्षक* माननीय सर्वोच्च न्यायालय को नियुक्त किया है। *विनोद दुआ * यानि द वायर , द प्रिन्ट मीडिया जो नीचता के भी अंतिम स्टेज में आजीवन रहा है,* मी टू * का अभियुक्त भी है , माननीय सुप्रीम कोर्ट मतलब संबिधान व्याख्याकार न्यायालय के फैसले पर सवाल खड़ा कर रहा है ? उसकी इस अक्षम्य गलती के लिए उसे current shock की सजा देना बहुत ही जरूरी है ।
Jab tak hamare Desh mein jatiyan rahegi tab tak hamara Desh Vikas nahin kar sakta aur aur Aarakshan ke upar rajniti karne ki koi jarurat nahin hai jab samaj Ko Sahi Disha dene ki jarurat hai samaj Ko shikshit karne a ki avashyakta hai
Aarkshan htao desh bchao
जाति धर्म आधारित आरक्षण व्यवस्था और योजनाओं को उचित ठहराना मुर्खतापूर्ण होगा और आरक्षण समर्थक नेता देश को बर्बाद कर रहे हैं और मीडिया पैसा खाकर या डर से उनका साथ दे रही है।
That is y representation of all section is must
एससी एसटी आरक्षण में क्रीमीलेयर सिस्टम लागू करने से एससी एसटी के लिए निर्धारित आरक्षण प्रतिशत में कोई अंतर नहीं आएगा यानी एससी एसटी का आरक्षण प्रतिशत बरकरार रहेगा यानी एससी एसटी के लिए आरक्षित सीटें एससी एसटी को ही मिलेगी। केवल इतना सा अंतर आएगा कि एससी एसटी के निचले स्तर के गरीबों के लिए नौकरी में कंपीटीशन थोड़ा कम हो जाएगा और अपेक्षाकृत गरीब एससी एसटी के लोगों के नौकरी के चांस ज्यादा बढ जाएंगे।
परन्तु एससी एसटी के 80% गरीब लोग इतने भोले हैं कि इनके आरक्षण का सबसे ज्यादा फायदा अकेले लेने वाला 20% संपन्न एससी एसटी वर्ग अपने 80% गरीब वंचित तबके के लोगों को क्रीमीलेयर के नाम ऐसे उल्टा भड़काकर उनका हिस्सा लगातार अकेले हड़पने की अपनी साजिश का इनसे ही समर्थन करवा रहा है। एससी एसटी आरक्षण का लाभ उठाने में अबतक वंचित रहे सर्वाधिक गरीब एससी एसटी लोगों को क्रीमीलेयर सिस्टम से ही नौकरियां और लाभ मिल सकता है।
हां फर्स्ट ग्रेड की नौकरियों को एससी एसटी के क्रीमीलेयर सिस्टम से मुक्त रखा जा सकता है। परन्तु चतुर्थ श्रेणी फोर्थ ग्रेड से लेकर सैकिंड ग्रेड तक की नौकरियों तो क्रीमीलेयर सिस्टम लागू करके इस वर्ग के ज्यादा से ज्यादा लोगों को सरकारी नौकरियां देकर ऊपर उठने का मौका देना चाहिए
लेखक का सम्मान करता हूं परन्तु यहाँ असहमत हूँ, जैसा कि बताया उन्होंने सिर्फ कार खरीदने या शहर में घर होना पर्याप्त नहीं ।।
दरअसल obc या general cat. से तो बाद में असुविधा उत्पन्न हो रही st/sc वर्ग को जबकि पहले तो इस वर्ग के सम्पन्न लोग ही अपने वर्ग के गरीब तबके को ऊपर नहीं आने दे रहे , यदि कोई पहले से आरक्षण का लाभ लेकर बड़े पद पर या आर्थिक समृद्धि पा चुका है तो वो उसका प्रयोग कर अपनी संतानों को आगे बढ़ा रहा ना कि अपने वर्ग के लोगो को सहायता कर रहा ।।
If this is not implemented, then the benefit of reservation will NEVER EVER reach the real needy ones.