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Friday, 3 May, 2024
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दलितों के खिलाफ योग्यता की दलील देना उनका अपमान करने के समान है

एनसीआरबी की रिपोर्ट में ‘अपमान’ को शामिल किए जाने से दलित विरोधी अत्याचारों के संबंध में एक नया दृष्टिकोण मिल सकेगा और इससे हमें दलित सशक्तिकरण के विमर्श को आगे ले जाने में मदद मिलेगी.

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राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की 2017 के आंकड़ों पर आधारित नवीनतम रिपोर्ट की सर्वाधिक दिलचस्प विशेषताओं में से एक है दलितों के खिलाफ विभिन्न अपराधों का वर्गीकरण, जिसमें कि अब अपमान को भी शामिल कर लिया गया है.

बहुचर्चित रहे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 में अपमान और सामाजिक बहिष्कार की अवधारणा को विस्तार से समझाया गया है. खासकर जाति के संदर्भ में, अपमान की कई परतें होती हैं.

दलित समुदाय की पर्याप्त स्वीकृति नहीं होने की वजह है– संवेदना का नितांत अभाव. यही अंततः अपमान और बहिष्कार का कारण बनता है. दलितों का अपमान भारत में रोज़मर्रा की बात है. इसके जरिए सामाजिक पदानुक्रम में उन्हें उनकी ‘औकात’ बताने की कोशिश की जाती है.

योग्यता का अपमान

जब अपमान की बात आती है, तो आइए देखें कि कैसे नौकरियों में अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लोगों के साथ भेदभाव होता है.

अहम फैसले लेने वाले पदों, जो कि मायने रखते हैं, में दलितों का प्रतिनिधित्व बहुत ही कम है. नौकरशाही, थिंक टैंक, मीडिया, न्यायपालिका और अकादमिक क्षेत्रों में ऊंचे स्तरों पर अभी तक दलितों की पर्याप्त भागीदारी नहीं नज़र आती है.

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वर्ष 2018 की एक रिपोर्ट में कहा गया है: ‘थोराट और एटवेल के 2010 के एक अध्ययन में पाया गया कि समान योग्यता वाले एससी और उच्च जाति के आवेदकों (प्रत्येक लगभग 4800) में से एससी आवेदकों को साक्षात्कार के लिए बुलाए जाने की संभावना 67 प्रतिशत कम थी. इससे भी ज़्यादा चिंता की बात है कम योग्यता (स्नातक) वाले उच्च जाति के आवेदकों को उनसे अधिक योग्यता (पोस्ट-ग्रेजुएट) वाले एससी उम्मीदवारों के मुकाबले कहीं अधिक अनुपात में इंटरव्यू के लिए बुलाया जाना.’ इससे ज्यादा अपमानजनक और क्या हो सकता है? यदि आप अनुसूचित जाति के हैं, तो अधिक कुशल और सक्षम होने के बाद भी आपको इंटरव्यू कॉल आने की संभावना कम है. इस स्थिति के बावजूद, योग्यता संबंधी दलील को सामाजिक रूप से वंचित समुदायों के लोगों के खिलाफ बाकायदा अपमान के साधन के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है.


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हमारे कॉलेज के दिनों में, योग्यता की अवधारणा एक खास पृष्ठभूमि के छात्रों के अपने ही समूह में सीमित रहने पर बाध्य होने की वजह थी. उन दिनों की एक घटना की याद अब भी मेरे जेहन में ताजा है. एक वाद-विवाद प्रतियोगिता में मैंने अपनी बात अंग्रेजी में रखी थी. इस पर ऊंची जाति के एक छात्र की टिप्पणी थी: ‘अब हमें इन नीचों को अंग्रेजी में भी सुनना पड़ेगा?’ उस उम्र में, मेरे लिए इस बयान की गंभीरता को समझना मुश्किल था. लगातार ये सुनना अपमानजनक लगता था कि ‘तुम्हें पढ़ने और कड़ी मेहनत करने की आवश्यकता नहीं है, तुम्हारा इंतजाम हो जाएगा क्योंकि तुम्हें आरक्षण जो मिला हुआ है’.

टीना डाबी और कनिष्क कटारिया (दोनों यूपीएससी सिविल सर्विसेज परीक्षा के टॉपर) जैसे लोगों के सामने आने से दलितों पर थोपा जाने वाला कलंक काफी हद तक असरहीन हो गया है.

फिर भी, जानबूझ कर या अनजाने में किए जाने वाले रोज-रोज के अपमान से एसी/एसटी समुदाय के लोग आहत होते हैं और उनमें से अधिकांश को इस मानसिक पीड़ा को हमेशा ढोना पड़ता है.

अपमान का सामना

भारत में दलितों द्वारा वर्षों तक झेले जाने वाले संस्थागत उत्पीड़न के दुष्प्रभाव से संबंधित अकादमिक संसाधनों का अभाव है. अमेरिका के समान अपने यहां भी वर्षों के सामाजिक भेदभाव से होने वाली क्षति का विस्तृत अध्ययन किया जाना चाहिए.

जैसी कि आशंका थी, मुख्यधारा के टिप्पणीकारों ने ‘अपमान’ को अपराध की एक श्रेणी के रूप में शामिल किए जाने को भाव नहीं दिया. पर गृह मंत्रालय के इस कदम की सराहना की जानी चाहिए क्योंकि दलितों से संबंधित अध्ययनों पर इसका दूरगामी प्रभाव पड़ेगा. ये पहल और स्टैंडअप इंडिया जैसी योजनाओं के तहत दलित उद्यमियों को संरक्षण और मार्गदर्शन दिए जाने जैसे प्रावधान दलितों के आत्मविश्वास को बढ़ाने में सहायक होंगे.

नई दिल्ली में जनपथ पर हाल में निर्मित डॉ. आंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर में प्रवेश करते ही हमें एक गरिमा भाव का अहसास होता है. इस केंद्र के बीचोंबीच अपने पैर पर पैर रखे आंबेडकर की विशाल प्रतिमा को देखने पर हमें स्वामित्व का, भारत के दिल में हमारे लिए कुछ ठोस होने के भाव का अहसास होता है. दशकों तक भारतीय अंतर्राष्ट्रीय केंद्रों के दरवाजे जानबूझकर बंद रखने वाले अभिजात वर्ग को निश्चय ही इस लोकतंत्रीकरण से डर लगा होगा.

आंबेडकर सेंटर दलित बुद्धिजीवियों के बीच विशेष रूप से लोकप्रिय है जो इस प्रणाली का हिस्सा बन रहे हैं और ये सुनिश्चित कर रहे हैं कि यह अधिक खुला और पारदर्शी बने. यही होता है अपमान का सामना करने का तरीका. उन्हें नई दिल्ली के आईआईसी और आईएचसी जैसे केंद्रों में जाकर उपेक्षापूर्ण नज़रों को झेलने की ज़रूरत नहीं है.


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स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार दलितों को अपनी आवाज़ को उठाने के लिए संस्थागत समर्थन मिला है. अब दलितों को महज एक राजनीतिक वस्तु मात्र नहीं माना जाता और उनकी बातों को सुना जा रहा है. वो दिन दूर नहीं जब दलित अनारक्षित निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लड़ेंगे और राजनीतिक दलों के पास उनकी मांगों को नजरअंदाज करने का विकल्प नहीं रह जाएगा.

एनसीआरबी की रिपोर्ट में ‘अपमान’ को शामिल किए जाने से दलित विरोधी अत्याचारों के संबंध में एक नया दृष्टिकोण मिल सकेगा और इससे हमें दलित सशक्तिकरण के विमर्श को आगे ले जाने में मदद मिलेगी.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक पटना विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं. वह भाजपा की युवा शाखा भारतीय जनता युवा मोर्चा की बिहार राज्य कार्यकारी समिति के सदस्य भी हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

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2 टिप्पणी

  1. Bakwas post.. Aur iske lie khud dalit aur sarkar jimmedar h.. Sarkar dalito ko mazboot nahi.. Majboor bana rahi h.. Kabiliyat ka jaat paat se koi lena dena nahi h.. Per jb 90% wala ko reject kar ke 40%wale ko doctor banaya jata h.. To Kabiliyat per sawal uthega hi.. Aap economically weak ko help karo.. Une aage badao.. Per mehnat ka paimana hi agar kam kar dia.. To Kabiliyat ni Aa sakti… Ekalavya bhi bheel jaati ka tha.. Per uski mehnat ne use us samay ke upper cast se bhi jyada value dia h.. Sarkar mehnat ke paimane ko hata kar.. Une aage Lane ke lie aur bhi jo kabil h Une hata ri h.. Tb sawl to uthega hi.. Aap khud boliye… 90%wala maximum science pada hga ya 40% wala… Aap jb hospital jaoge to doctors se ummid kya hogi… Kya aap ye dekhenge ki wo category ka h ya ye dekhoge ki wo kabil h ya nhi… Kabiliyt mehnat se aati h… Baisakhi se nhi

  2. क्या मान-अपमान सिर्फ दलित का ही होता है?
    क्या इन संवैधानिक संरक्षित जातियों के शिवा स्वर्ण का कोई मान-अपमान नहीं होता?
    इस शुद्र ओर मलेच्छ संविधान को जला कर खाख कर देना चाहिए।

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