रक्षा मंत्रालय ने 6 अगस्त को एक प्रेस विज्ञप्ति में घोषणा की कि 31 जुलाई को भारत और चीन के कोर कमांडरों की 12वें दौर की वार्ता के फलस्वरूप गोगरा क्षेत्र से सेनाओं की वापसी हो रही है. समझौते के अनुसार, ‘दोनों पक्षों ने इस क्षेत्र में अग्रिम मोर्चों पर तैनाती को चरणबद्ध, समन्वित और आपसी परीक्षण के तरीके से खत्म कर दिया है. वापसी की प्रक्रिया दो दिनों, 4 और 5 अगस्त 2021, में पूरी की गई. दोनों तरफ की सेनाएं अब अपने-अपने स्थायी अड्डों पर लौट आई हैं. दोनों पक्षों ने उस क्षेत्र में जो अस्थायी ढांचे और संबंधित सुविधाएं तैयार की थीं उन्हें तोड़ दिया गया है और उनकी आपसी जांच कर ली गई है. उस क्षेत्र की जमीन को दोनों पक्षों ने पूर्ववत स्थिति में ला दिया है.’
लेकिन इस बार वैसी धूम नहीं मचाई गई और न प्रक्रिया का सीधा प्रसारण किया गया, जैसा 11 फरवरी 2021 को पैंगोंग सो के उत्तरी तथा दक्षिणी तटों से सेनाओं की वापसी के समझौते के समय किया गया था. ऐसा क्यों हुआ, इस बारे में अटकलें लगाने की जरूरत नहीं है. पैंगोंग त्सो के उत्तर में फिंगर 4 से 8 तक की ‘जमीन, और गश्ती के अधिकार गंवाने, और कैलास रेंज पर अपनी पकड़ छोड़ने को लेकर तीखी आलोचनाओं से सावधान हुई मोदी सरकार ने फिर से लीपापोती की नीति अपना ली. उपरोक्त छोटी-सी प्रेस विज्ञप्ति कुछ बताने से ज्यादा बहुत कुछ छिपाती है. इस मसले पर चीन की चुप्पी उसकी आत्मतुष्टि को ही उजागर करती है. यह चीन की शर्तों पर आकार लेती राजनीतिक सहमति के भी संकेत देती है.
मोदी सरकार का बयान यह परोक्ष संकेत देता है कि गोगरा में अप्रैल 2020 से पहले की स्थिति बहाल कर दी गई है. मैं यहां यह जांच करने की कोशिश कर रहा हूं कि बफर जोन के निर्माण, गश्ती के अधिकार खोने और सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास में बाधा उत्पन्न होने के फलस्वरूप हमें वास्तव में कितनी कीमत चुकानी पड़ी है.
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चांग चेनमो सेक्टर का रणनीतिक महत्व
चांग चेनमो सेक्टर यानी गोगरा, हॉट स्प्रिंग्स और कोंगका ला में 1959 वाली दावा रेखा और वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) आकर एक हो जाती हैं. कोंगका ला में ही 21 अक्तूबर 1959 को चीनी सेना ‘पीएलए’ ने हमारे सीआरपीएफ के 20 जवानों को घेर कर 10 को मार डाला था और 7 को युद्धबंदी बना लिया था. 1962 के भारत-चीन युद्ध में चीन ने इस इलाके पर कब्जा कर लिया था मगर युद्ध खत्म होने के बाद खुद ही वहां से पीछे हट कर वह 1959 की दावा रेखा पर चला गया था.
इस क्षेत्र का रणनीतिक महत्व यह है कि यहां अक्साई चीन तक जाने के तीन रास्ते निकलते हैं. एक रास्ता पूरब की ओर कोंगका ला से लानक ला तक जाता है और इसके बीच से तिब्बत-शिंजियांग हाइवे 219 गुजरता है. दो रास्ते कुग्रांग नदी से उत्तर की ओर जाते हैं, जो चांगलुंग नाला (पीपी 17 और 17ए) और 30 किमी ऊपर जियानान दर्रे (पीपी 15 और 16) से गलवान नदी के ऊपरी क्षेत्र की ओर जाते हैं. इन रास्तों का इस्तेमाल करके गलवान नदी घाटी के करीब 70-80 किमी क्षेत्र को काट दिया जा सकता है. 1962 में हमने चांगलुंग नाला से होते हुए साम्ज़ुंग्लिंग पहुंचे थे और गलवान पोस्ट स्थापित किया था.
पिछले दशक में, भारत ने इस क्षेत्र में एलएसी तक काफी तेजी से सड़कें बनवाईं. चीन ने इन सड़कों को अक्साई चीन के लिए खतरे के रूप में देखा. इस खतरे को रोकने के लिए वह चांगलुंग नाला और जियानान दर्रे से होकर 1959 की दावा रेखा को पार करके कुग्रांग नदी के ऊपरी क्षेत्र में पहुंच गया ताकि हम कुग्रांग नदी घाटी क्षेत्र में गोगरा से आगे न बढ़ पाएं और गलवान नदी के उत्तरी क्षेत्र में न पहुंच पाएं. इसी तरह, हमें पूर्वी रास्ते का उपयोग करने से रोकने के लिए पीएलए ने कोंगका ला और हॉट स्प्रिंग्स क्षेत्र (गूगल के नक्शे में इसे गलती से गोगरा बताया गया है) में घुसपैठ की.
दूरी के लिहाज से घुसपैठ चांगलुंग नाला में केवल 3 किमी, और पीपी 15 और 16 के इलाके में केवल 4 किमी क्षेत्र में की गई. लेकिन इलाके की दुर्गम स्थिति की वजह से हमें 30-35 किमी लंबी और 4-5 किमी चौड़ी कुग्रांग नदी घाटी और कोंगका ला में पहुंचने से रोक दिया गया.
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वास्तविकता क्या है
चीन का सैन्य मकसद सीमावर्ती सड़कों और इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास को रोकना था ताकि अक्साई चीन और गलवान नदी घाटी को कोई खतरा न पहुंचे.
इस क्षेत्र को लुकुंग से जोड़ने वाली 100 किमी लंबी संकरी सड़क का लाभ लेकर अपनी बढ़त लेने के लिए हम इस क्षेत्र में जवाबी कार्रवाई करने की स्थिति में नहीं थे. टकराव बढ़ने की स्थिति में पूरे चांग चेनमो सेक्टर की रक्षा करना मुश्किल हो जाता है क्योंकि वहां जाने वाली सड़क को सोगात्सलु/मारसिमीक ला/फोबरांग में काटा जा सकता है. अगर इस क्षेत्र में हमला किया गया और इसके साथ ही पैंगोंग सो के उत्तर से भी हमला किया गया तो पैंगोंग सो के उत्तर और उत्तरपूर्व का पूरा इलाका हाथ से चला जा सकता है. इलाके की दुर्गमता को लेकर हमारी जो मजबूरियां हैं और चीन के जो फौजी लक्ष्य हैं उनके चलते चीन बिना अपनी शर्तें थोपे अप्रैल 2020 से पहले की स्थिति बहाल करने को तैयार नहीं हो सकता था.
मेरे आकलन के अनुसार, सबसे खराब स्थिति में, हम पूरी कुग्रांग नदी घाटी और उत्तर से एलएसी की ओर जाने वाले मार्गों में एक वास्तविक बफर जोन के लिए सहमत हुए हैं. सबसे अच्छी स्थिति यह होती कि दो अलग-अलग बफर ज़ोन को पीपी 16 और 17 से एलएसी तक के दो मार्गों के साथ कुग्रांग नदी के उत्तर में बातचीत की जा सकती थी. दोनों मामलों में, बफर जोन पूरी तरह से उन क्षेत्रों में हैं जो हमारे नियंत्रण में थे और हमने इस इलाकों में अप्रैल 2020 तक सक्रिय रूप से गश्त किया था.
हॉट स्प्रिंग्स और देप्सांग मैदानी क्षेत्र को लेकर अब तक कोई समझौता नहीं हुआ है. हॉट स्प्रिंग्स के पूरब में कोंगका ला तक और बॉटलनेक के पूरब में पीपी 10,11,12, 13 तक बफर ज़ोन बनाने पर चीन भी राजी हो सकता है.
मैं कई बार लिख चुका हूं और उसे फिर दोहराता हूं कि जब तक हम समग्र राष्ट्रीय शक्ति, खासकर आर्थिक और सैनिक ताकत के मामले में चीन और अपने बीच की चौड़ी खाई को पाटेंगे नहीं तब तक हम उसे चुनौती नहीं दे सकते. चीन का आज जो जीडीपी है उसकी बराबरी करने के लिए हमें लगातार दो-तीन दशकों तक आर्थिक विकास की गति बनाए रखनी होगी. रक्षा बजट और सैन्य सुधार/आधुनिकीकरण आर्थिक स्थिति पर ही निर्भर करते हैं. इसलिए, मोदी सरकार ने सही रणनीति अपनाई है– एलएसी पर तनाव को दूर करने के लिए बफर ज़ोन के कड़वे घूंट को पी लो और चीन को चुनौती देने के लिए खुद को तैयार करने तक इंतजार करो.
देश को रणनीतिक मजबूरियों से वाकिफ कराना लीपापोती या खंडन-मंडन करने से बेहतर नीति है. सैन्य मामले में आपके छलावे का खुलासा मजबूत दुश्मन करे, जैसा कि चीन ने अप्रैल-मई 2020 में किया, तो इससे बुरी बात कुछ और नहीं हो सकती.
(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड रहे हैं. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)
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