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Friday, 29 March, 2024
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महाराष्ट्र की राजनीति में नफरत में बदलता रहा है चाचा-भतीजे का रिश्ता

महाराष्ट्र की राजनीति में चाचा-भतीजे के प्यार और टकराव का पुराना इतिहास रहा है. बाल ठाकरे और राज ठाकरे इसकी मिसाल रहे हैं.

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देश की राजनीति में चाचा भतीजे की कहानियां भरपूर हैं. महाराष्ट्र की राजनीति में चाचा भतीजे के प्यार और टकराव का पुराना इतिहास रहा है. बाल ठाकरे और राज ठाकरे इसकी मिसाल हैं. भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे और भतीजे धनंजय मुंडे की दूसरी मिसाल भी दी जा सकती है. ठाकरे परिवार हो या मुंडे इस रिश्ते को लेकर चर्चा में रहा. इन दिनों शरद पावर का परिवार इसको लेकर चर्चा में है. शुरू में यह रिश्ता प्यार का ही होता है, जब कोई बेटा या बेटी विरासत को नहीं संभालना चाहता तब भतीजे को विरासत मिलने लगती है. लेकिन जब बेटे या बेटी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं जाग जाती हैं तब भतीजे को साइडलाइन कर उन्हें मौका दे दिया जाता है और तब यह रिश्ता नफरत का बन जाता है.

बाल ठाकरे मुंबई के बेताज बादशाह थे. लेकिन शुरुआत में उनके बेटे राजनीति में बहुत दिलचस्पी नहीं लेते थे. उनके भतीजे राज ने शिवसेना का काम करना शुरू किया. राज, बाल ठाकरे की कार्बन कॉपी लगते थे. भाषण भी उनकी तरह ही देते थे. राजनीतिक स्टाइल भी ठाकरे जैसी ही थी. कार्टूनिस्ट भी ठाकरे की तरह थे. शिवसेना में काम भी खूब किया. विद्यार्थी सेना उनकी बनाई हुई थी. वे इतना हू-ब-हू बाल ठाकरे थे कि लोग उन्हें ही बाल ठाकरे का वारिस मानने लगे थे. मगर तभी उद्धव की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं जाग उठी और बाल ठाकरे ने राज की उपेक्षा कर उद्धव को शिवसेना की कमान सौंप दी.


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इसके बाद राज ठाकरे ने शिवसेना छोड़ कर अपनी पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) बना ली. ठाकरे ने जिस वक्त एमएनएस का गठन किया उस वक्त बाल ठाकरे 80 साल के हो चुके थे. पार्टी बनाने के पीछे एक वजह यह भी दी जाती है कि उस वक्त (2006) उद्धव के साथ राज ठाकरे के मतभेद ज्यादा गहरा गए थे और शिवसेना के टिकट वितरण में भी दोनों आमने-सामने आ गए थे. राज ठाकरे को तब एक तरह से पार्टी के फैसले लेने में दरकिनाकर कर दिया गया था. ठाकरे की मृत्यु के बाद लोगों को लगा था तेज-तर्रार राज ठाकरे विरासत की जंग जीत जाएंगे मगर अप्रत्याशित रूप से बाजी उद्धव ने जीती और जो राज कभी राजनीति में हीरो थे आज जीरो हैं.

वहीं इतिहास पवार के परिवार में भी दोहराया जा रहा है. एनसीपी प्रमुख शरद पवार के परिवार में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले परिवार में तनातनी की खबरें हैं. परिवार का यह टकराव कई स्तर पर होने की खबर है. बताया जा रहा है कि पवार के बड़े भाई आनंदराव पवार के बेटे अजीत पवार ने मोर्चा खोला दिया है. बरसों से अजीत पवार को शरद पवार का उत्तराधिकारी माना जाता रहा. पर पवार ने अपनी बेटी सुप्रिया सुले को आगे कर दिया है. सुप्रिया अपने पिता की पारंपरिक बारामती सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ती हैं. पहली बार अजीत पवार ने पार्टी के भीतर शरद पवार के वर्चस्व को चुनौती दी है. उन्होंने अपने बेटे पार्थ पवार को चुनाव में उतारने का फैसला किया है.

अजीत पवार की जिद के चलते शरद पवार ने खुद चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा की. पहले उन्होंने अपना संन्यास वापस लेकर माढा सीट से लड़ने की घोषणा की थी. पर जब अजीत पवार बेटे पार्थ को मावल सीट से लड़ाने पर अड़े तो शरद पवार ने चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा की. इसके तुरंत बाद अजीत पवार के दूसरे भाई के बच्चे शरद पवार के समर्थन में उतरे. असल में पवार नहीं चाहते थे कि पवार परिवार के दो से ज्यादा लोग चुनाव मैदान में उतरें. उनकी इच्छा के विपरित अजीत पवार ने बेटे पार्थ को भी मैदान में उतार दिया. पवार की इस अवहेलना को उन्हें दी गई चुनौती ही माना जा रहा है.

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अजित पवार के भाई के बेटे रोहित ने फेसबुक पर पोस्ट लिख कर शरद पवार से चुनाव लड़ने की अपील की. रोहित पवार ने शरद पवार के महाराष्ट्र की राजनीति में योगदान को याद किया और कहा कि उनको चुनाव लड़ना चाहिए. पवार के परिवार में संघर्ष की वजह यह है कि कौन उनका वारिस बनेगा. अभी सुविधाजनक विभाजन यह है कि पवार की बेटी सुप्रिया सुले सासंद हैं तो अजीत पवार महाराष्ट्र का कामकाज देखते हैं. राष्ट्रवाद पर उन्होंने अच्छी पकड़ बना ली है. मगर पवार के बाद सुप्रिया उनकी वारिस बनेंगी या अजीत इस पर टकराव होना लाजिमी है. उसके लिए तैयारियां चल रही हैं.

आजकल महाराष्ट्र की राजनीति में भाजपा नेता स्वर्गीय गोपीनाथ मुंडे की बेटी और राज्य की मंत्री पंकजा मुंडे और भतीजे धनंजय मुंडे में सार्वजनिक वाक युद्ध चल रहा है. इसकी शुरुआत चाचा भतीजे के टकराव से हुई थी. भाजपा के नेता गोपीनात मुंडे ओबीसी नेता भी थे. उन्होंने अपने भतीजे धनंजय मुंडे को राजनीति में आगे बढ़ाया और विधान परिषद की सदस्यता भी दिलाई. गोपीनाथ मुंडे जब राज्य की राजनीति में सक्रिय हुए तब यही माना जाता था कि उनके बीड जिले में त्यांचा वारिस उनका भतीजा धनंजय मुंडे ही होगा. मुंडे महाराष्ट्र के स्तर पर राजनीति कर रहे होते थे तो धनंजय परळी आणि बीडजिलों की राजनीति देखते थे.

2009 में इस रंगमंच पर गोपीनात मुंडे की बेटी पंकजा मुंडे की एंट्री हुई. दूसरी बेटी प्रीतम में भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा जागने लगी तो गोपीनाथ मुंडे ने वरीयता अपनी बेटियों को दी. इससे धनंजय नाराज हो गए और राष्ट्रवादी कांग्रेस में शामिल हो गए. राजनीतिक जानकार बताते हैं कि शरद पावर के भतीजे अजीत पवार ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. गोपीनाथ मुंडे ने विपक्ष के नेता के तौर पर शरद पवार के खिलाफ अभियान चलाया था. उसके बाद हुए चुनाव में कांग्रेस हारी और शरद पवार मुख्यमंत्री नहीं बन पाए और अजीत पवार ने मुंडे परिवार में फूट डालकर इसका बदला लिया.

राष्ट्रवादी ने भी धनंजय को विधान परियद सदस्य बनाया है. अब स्वर्गीय गोपीनाथ मुंडे के गृह जिले बीड में धनंजय और मुंडे की बेटी पंकजा में निरंतर राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई चलती रहती है. धनंजय को गोपीनाथ मुंडे ने ही पहली बार विधान परिषद भेजा था, लेकिन चाचा से अलगाव के बाद धनंजय ने विधान परिषद से त्यागपत्र दे दिया था. इसके बाद राकांपा के कोटे से वह विधान परिषद पहुंचे. अब राकांपा ने उन्हें नेता प्रतिपक्ष बना दिया. इस तरह राष्ट्रवादी भाजपा के पिछड़े वर्ग के वोट बैंक में सेंध लगाना चाहती है. ऐसा करके राकांपा पिछड़ों की राजनीति में मुंडे की दोनों पुत्रियों के मुकाबले उनके ही भतीजे को इस्तेमाल करना चाहती है.


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छगन भुजबल के यहां भी उनका भतीजा समीर भुजबल सांसद था जबकि बेटा पंकज विधायक ही रहा. झगड़ा ज्यादा नहीं बढ़ा क्योंकि भुजबल जमानत पर है. महाराष्ट्र की राजनीति के इन चाचा भतीजों की कहानियां लोगों को किसी राजनीतिक सीरियल का मजा देती हैं. महाराष्ट्र के इतिहास में नारायण राव पेशवा को अक्सर याद किया जाता है जिनकी हत्या उनके चाचा रघुनाथ पाव पेशवा ने करवाई. कहा यह जाता है चाचा रघुनाथ राव ने नाबालिग भतीजे को पकड़ने का आदेश दिया था, मगर पत्नी ने पकड़ो को मारो कर दिया और नारायण राव मारे गए.

(लेखक दैनिक जनसत्ता मुंबई में समाचार संपादक और दिल्ली जनसत्ता में डिप्टी ब्यूरो चीफ रह चुके हैं। पुस्तक आईएसआईएस और इस्लाम में सिविल वॉर के लेखक भी हैं )

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