राजनीति को समझने के लिए अगर लेंस की ज़रूरत हो तो उसमें भगवती चरण वर्मा की कहानी ‘दो बांके’ हमेशा काम आती है. उसके सहारे कभी माननीय प्रभाष जोशी (जनसत्ता के भूतपूर्व संपादक) ने कांग्रेस की राजनीति पर प्रकाश डाला था और कांग्रेस के बांकों नारायण दत्त तिवारी और अर्जुन सिंह के बारे में हमें चेताया था.
कांग्रेस ने अपनी आत्महत्या के जो बहुतेरे प्रयास किए उसमें हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की हत्या का प्रयास सबसे ऊपर था. कांग्रेस ने हिंदी पढ़ने पढ़ाने का चलन कम कर दिया. इस अंग्रेज़ी पकड़ने के कुकर्म के कारण कांग्रेस लोकसभा से विधानसभा सिधार गई.
खैर अब हिंदी में पढ़ाई का चलन तो कम हो ही गया है. विद्वान लोग तो वह हैं जो बड़ी अदा के साथ कहते हैं ‘माय हिंदी इज़ रियली वीक यू नो, ओनली गॉड नोज हाउ आई मैनेज विथ माय ड्राइवर एंड कुक’.
यहां तक कि हिंदी के बहाने राजनीति करने वाली भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री भी जब तक ‘हाउडी मोदी’ करके गोरे अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ गलबहियां डाल के घूम न ले उन्हें संतोष नहीं होता कि उन्होंने देश के दिलो-दिमाग पर कब्ज़ा किया है.
ऐसी स्थिति में अपनी बात आगे बढ़ाने के लिए मेरी ज़िम्मेवारी बनती है कि कहानी ‘दो बांके’ का लब्बो लुबाब कुछ शब्दों में कह दूं. तभी हमें यह समझ में आएगा कि अपने प्रधानमंत्री दुनिया के सबसे बड़े बांके डोनाल्डजी भाई ट्रंप के साथ ‘केम छो’ क्यों कर रहे हैं.
‘दो बांके’ कहानी का सारांश यह है कि लखनऊ के दो बाहुबली एक दूसरे से नकली लड़ाइयां लड़ते हैं ताकि लोगों को लगे कि यह बड़े बांके हैं और उनका अपने इलाके पर दबदबा बना रहे. कहानी के अंत में जब उन बांकों का सामना एक तगड़े लट्ठधारी देहाती से होता है तो बांके दुम दबाकर चुपचाप निकल जाते हैं.
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अब अपनी सरकार ने पिछले छह साल में एक ही काम किया है, बांकपन दिखाया है. छप्पन की छाती की बात तो दो ही जगह होती है या तो डब्ल्यूडब्ल्यूएफ में या अपनी सरकार में. डब्ल्यूडब्ल्यूएफ में भी नकली लड़ाई होती है और अपने प्रधानमंत्री भी सर्वाइवल टेक्निक्स डिस्कवरी चैनल पर सीखते हैं. एसपीजी बगल में खड़ी थी लेकिन क्या भरोसा एसपीजी का, कभी काम ना आए तो?
क्या बांकी आर्थिक नीति है! तुगलक ने नोट चलाए थे और राजधानी को दिल्ली से देवगिरी ले गया था. अपने बांके ने नोट बंद कर दिए. और काला धन पर चोट करने के बहाने देश की अर्थव्यवस्था को कांग्रेस बना दिया. कुछ भी कर लो इसका सुधार हो ही नहीं सकता.
नोटबंदी पे तो एक कहानी याद आती है. एक सेठ का बहुत देशभक्त सेवक था, एक बंदर. सेठ जी सोए हुए थे और उनकी नाक पर कालाधन नाम का एक मच्छर आकर बैठ गया था. कितने भी भगाने के बावजूद मच्छर भाग नहीं रहा था. बंदर ने तलवार उठाई और मच्छर को काट दिया. यह अलग बात है कि उसी तलवार से सेठ जी की गर्दन कट गई.
अब ऐसी कटी हुई अर्थव्यस्था में पैसे तो हैं नहीं. ना जनता के पास न सरकार के पास. बिना पैसे के अपना बांका राजधानी को दिल्ली से देवगिरी ले जाने का तुग़लकी काम तो कर नहीं सकता. पर कुछ तो करना पड़ेगा. तो हम लुटियंस दिल्ली की इमारतों को गिराकर नई इमारतें बनाएंगे.
बांकपन पुरजोर तरीके से तब तक स्थापित नहीं होता जब तक किसी को पीटा न जाए. कांग्रेस को तो नेहरू गांधी परिवार ने पहले ही से मार के रखा है तो इस पिटी हुई पार्टी को अगर और पीटा जाए तो ज़्यादा कुछ बांकपन दिखता नहीं. वैसे भी कांग्रेस में कोई छोटे बांके तक भी रहे नहीं जिनको पीट के बड़ा बांकपन दिखाया जाए. वहां तो खाली चिकने बचे हैं.
तो क्या करें? कभी जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में कुछ करवा देते हैं तो कभी शाहीन बाग की महिला के पास करंट भिजवा देते हैं. इस में भी पूरा बांकपन उभरता नहीं है.
अब अपने बांके को पता लग गया है की असली बांकपन इस देश में तब तक नहीं दिखता जब तक बांके का एक गोरा दोस्त ना हो. वह दोस्त अगर गोरे देश का गोरा राष्ट्रपति हो तो सोने पे सुहागा. अपना बांका वहां गया तो है, कभी न्यूयॉर्क के सेंट्रल पार्क में तो कभी हाउडी मोदी में, पर भारत माता का गरीब ह्रदय तब तक नहीं जुड़ायेगा जब तक दुनिया का सबसे बड़ा बांका मोटा भाई डोनाल्ड ट्रंप मोटेरा स्टेडियम में अपने बांके के गले में हाथ डाल के बांकी बातें ना कर ले.
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इस समय ये फालतू बातें करने की ज़रूरत नहीं है कि उस अमेरिकन बांके ने बेंगलुरू और हैदराबाद की आउटसोर्सिंग इंडस्ट्रीज़ बंद करा दी है और मेक इन इंडिया की बैंड बजा दी है. अपने देश के नौजवानों को अमेरिकन वीज़ा देना भी कम कर दिया है. अरे जब देश की इज़्ज़त का सवाल है, जब बांकपन दिखाना है तो गोरे का हाथ पकड़ा जाता है, छोटे-मोटे रोज़गार, व्यवसाय का हिसाब नहीं देखा जाता. मुख्य बात ये है कि अच्छे फोटो खींचे ताकि ट्विटर पे उबाल और व्हाट्सएप पर तूफ़ान आ जाए.
जब अमेरिकन बांका ये नाटक खत्म करके वापस जाएगा, अमेरिका के एयरपोर्ट पर उतरेगा तो पाकिस्तान के समर्थन में और भारत की अर्थव्यवस्था के विरोध में बयान देगा. इन बयानबाज़ियों पर ज़्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए. जैसे ही अमेरिकन बांके को पुतिन का नाम याद आएगा वैसे ही वह कोमल कली बन के शर्माती हुयी मुस्कराहट बिखेरने लगेगा.
जैसे अपने बांके भी पाकिस्तानी कबूतर तो बड़े ठाठ से मारते हैं पर डोकलाम में चीन का सामना होने पर एकदम गूंगी गुड़िया बन जाते हैं.
भगवती चरण वर्मा की कहानी के अंत में भी तगड़े लट्ठधारी देहाती के आते ही बांके भाग खड़े होते हैं.
(लेखक सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता हैं. यह लेखक के निजी विचार है)
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