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Sunday, 5 October, 2025
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चुशूल हवाई अड्डे को फिर से चालू करने का असली असर मानसिक पहलू पर पड़ेगा

अग्रिम मोर्चों पर हवाई क्षमता बढ़ाने की भारतीय वायुसेना की योजना का चीन ने विरोध नहीं किया है लेकिन चुशूल के ऐतिहासिक और सामरिक महत्व के मद्देनजर वह इसे फिर से विकसित किए जाने पर आपत्ति कर सकता है.

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मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, रक्षा मंत्रालय चीनी सीमा पर वास्तविक नियंत्रण रेखा के करीब स्थित दो निष्क्रिय ‘एड्वान्स्ड लैंडिंग ग्राउंड’ (‘एएलजी’) को फिर से सक्रिय करने की योजना बना रहा है. ये दो ग्राउंड हैं—पूर्वी लद्दाख में चुशूल, और अरुणाचल प्रदेश की दिबांग घाटी में एनिनी. एनिनी ‘एएलजी’ दूसरे विश्वयुद्ध की एक निशानी है. उस समय इसका इस्तेमाल ‘हंप’ के रास्ते भारत से चीन जाने वाले हवाई परिवहन के लिए साजोसामान मुहैया कराने के लिए किया जाता था. ‘हंप रूट’ नाम पूर्वी हिमालय के ऊपर भारी जोखिम भरे हवाई मार्ग के कारण पड़ा था जहां से पाइलट को उड़ान भरना पड़ता था. चुशूल हवाई अड्डे ने 1962 के भारत-चीन युद्ध ने अहम भूमिका निभाई थी लेकिन बाद में चीन की कथित संवेदनशीलता के कारण इसका इस्तेमाल रोक दिया गया था.

लेकिन अब जो पहल की जा रही है वह अग्रिम मोर्चों पर हवाई क्षमता बढ़ाने की भारतीय वायुसेना की योजना का ही हिस्सा है. 2008 के बाद से 10 ‘एएलजी’ को पुनः सक्रिय किया जा चुका है, जिनमें लद्दाख के दौलत बेग ओल्डी और नयोमा के दो; उत्तर-पूर्व में ईलांग, तवांग, मेचुका, पासीघाट, टुटिंग, विजयनगर, वालोंग और ज़ीरो के आठ हवाई अड्डे शामिल हैं. लद्दाख के डेमचोक सेक्टर का फुकचे ‘एएलजी’ को 2008 में एएन-32 विमान उतारे जाने के बाद सक्रिय मान लिया गया था, लेकिन नयोमा हवाई अड्डे के विकास के कारण फुकचे ने अपना महत्व खो दिया. ‘एएलजी’ का विकास जरूरत आधारित होता है. इनमें से अधिकतर का इस्तेमाल मुख्यतः हवाई परिवहन, हेलिकॉप्टर और अनमेंड एरियल सिस्टम्स (यूएएस) के लिए किया जाएगा. लेकिन नयोमा एलएसी से 35-40 किमी दूर है और इसका विकास लड़ाकू विमानों के इस्तेमाल के मद्देनजर भी किया गया है.

एलएसी के करीब स्थित इनमें से कुछ ‘एएलजी’ का विकास अपनी भौगोलिक संप्रभुता का दावा करने के लिए भी बेहद जरूरी है, क्योंकि चीन पूरे अरुणाचल प्रदेश पर दावा करता है और लद्दाख में एलएसी तक के क्षेत्र अवैध कब्जे में है. दौलत बेग ओल्डी, जो एलएसी से करीब 10 किमी दूर है और जिसे 2008 में फिर से सक्रिय किया गया था, और एलएसी से 1.2 किमी दूर स्थित चुशूल अब लड़ाई के दौरान सीधे हमले की जद में होंगे. चीन ने कई ‘एएलजी’ को फिर से सक्रिय करने पर अब तक विरोध नहीं दर्ज किया है लेकिन चुशूल के ऐतिहासिक और सामरिक महत्व के मद्देनजर वह इसे फिर से विकसित किए जाने पर आपत्ति कर सकता है.

इतिहास की कड़ी

चीन की 1959 वाली दावा रेखा, जो चुशूल सेक्टर में एलएसी में जाकर समा जाती है, अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा से केवल 10-20 किमी दूर है. यह सीमा रेखा डोगरा साम्राज्य और तिब्बत के बीच 1842 में हुई संधि पर आधारित है. लेह में इस संधि पर दस्तखत तब हुए थे जब डोगरा साम्राज्य की सेना ने आक्रमणकारी तिब्बती सेना को हरा दिया था. इसे चुशूल संधि के नाम से भी जाना जाता है.

इसके 109 साल बाद अगस्त 1951 में चुशूल में ही चीनी सेना से भारतीय सेना की पहली झड़प हुई थी जब चीनी सेना पीएलए द्वारा पीछा किए पर च्यांग काई-शेक की नेशनल रिवोल्यूशनरी आर्मी की कजाख-कोस्साक घुड़सवार ब्रिगेड ने भारत शरण मांगी थी. तब तक पूर्वी लद्दाख में कोई सेना तैनाती नहीं हुई थी और सैनिकों को हड़बड़ी में आगे भेजना पड़ा था. कजाखों को शरण दे दी गई और थलसेना की एक कंपनी को चुशूल में स्थायी तौर पर तैनात कर दिया गया. इस मुठभेड़ के बाद चुशूल में ‘एएलजी’ का विकास किया गया, जिसका उद्घाटन 29 अगस्त 1952 को किया गया और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तथा दूसरे कई ‘वीआइपी’ हस्तियों ने उस हवाई अड्डे पर उतरकर एक इतिहास बना दिया.

‘एएलजी’ का बहुत इस्तेमाल नहीं किया गया, और सीमा पर शांति के चलते सेना की सीमित तैनाती के कारण इस्तेमाल में नहीं रहा. 1959 में, कोंगका ला और लोंगजू में चीन के साथ झड़पों के बाद सीमा को सेना के हवाले कर दिया गया. इसके बाद 1960 से चुशूल ‘एएलजी’ को फिर से सक्रिय करने की तैयारी शुरू हो गई. इसके बाद, उसका इस्तेमाल सेना के साजोसामान, हथियार और सैनिकों की आवाजाही के लिए होने लगा. 1962 के युद्ध के पहले चरण की शुरुआत 20 अक्तूबर से हुई और एएलजी चुशूल का जम कर इस्तेमाल किया गया और वायुसेना ने सैनिकों और साजोसामान के अलावा छह एएमएक्स13 टैंक तथा ‘25 पाउंडर’ 12 तोपों को 14,230 फीट की ऊंचाई तक पहुंचाकर एक इतिहास ही बना दिया. यह ‘एएलजी’ 18-19 नवंबर की रात युद्ध का दूसरा चरण शुरू होने के दो दिन पहले यानी 16 नवंबर तक सक्रिय रहा.

इसके बाद यह ‘एएलजी’ दूसरी बार निष्क्रिय हो गया और उसके बाद इसे चीन की कथित संवेदनशीलता के मद्देनजर कभी सक्रिय नहीं किया गया.

सामरिक महत्व

जैसा कि मैं अक्सर कहता रहा हूं, चीन की 1959 वाली दावा रेखा इलाके के आकलन और मानचित्र कला का एक चमत्कार है. जब तक इसे सैन्य प्रयासों से बदला नहीं जाता तब तक यह चीनी सेना पीएलए को सामरिक बढ़त देती रहेगी. पूरे दौलत बेग ओलड़ी और चांग चेमो सेक्टरों को अलगथलग करके उन पर हमले किए जा सकते हैं. लेकिन चुशूल सेक्टर में भारत को सामरिक बढ़त हासिल है.

इस सेक्टर में एलएसी कैलाश पर्वतमाला की शिखर के साथ-साथ चलती है, सिवाय ब्लैक टॉप क्षेत्र के जो गुरुंग पहाड़ी के उत्तर में है और पीएलए को कैलाश पर्वत क्षेत्र में पैर जमाने का मौका देता है. इसका इस्तेमाल स्पांग्गुर गैप के उत्तर के क्षेत्र पर हमला करने के लिए किया जा सकता है. 1962 में युद्ध से पहले ब्लैक टॉप पर पीएलए का कब्जा नहीं था, तब उस पर कब्जा न करने के कारण चुशूल असुरक्षित हो गया. कैलाश पर्वत के दक्षिण में स्पांग्गुर गैप से लेकर अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा तक पूरे क्षेत्र पर भारतीय सेना का प्रभुत्व है.

युद्ध की स्थिति में पहले हमला करके या जवाबी हमले में अगर ब्लैक टॉप और कैलाश पर्वत के पूर्वी ढलानों को सुरक्षित या कब्जे में कर लीआ जाए तो अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा को बहाल कर लिया जा सकता है, जिससे रुडोक को खतरा हो जाएगा और कमजोर इलाकों में पीएलए की बढ़त को नाकाम किया जा सकता है.

यही वजह थी की 2020 के अगस्त के अंत में भारत ने जब कैलाश पर्वत के शिखर क्षेत्र पर कब्जा कर लिया तो चीन इस सेक्टर में सेना की वापसी के लिए तैयार हो गया था. मेरे विचार से, फरवरी 2021 में बफर ज़ोन बनाने के साथ सेनाओं की वापसी का जो ‘स्टैंडअलोन’ समझौता हुआ वह एक भूल थी. भारत की एकमात्र बढ़त खत्म हुई और दूसरे सेक्टरों में सेनाओं की वापसी होने में तीन साल आठ महीने लग गई, और अधिकतर उन क्षेत्रों में बफर ज़ोन बनाए गए जो अप्रैल 2020 तक हमारे कब्जे में थे.

चुशूल ‘एएलजी’ को फिर से सक्रिय करना न केवल युद्ध के पहले वाले समय के लिए लाभदायक होगा, इसका वास्तविक असर मनोवैज्ञानिक पहलू पर पड़ेगा.

पर्यटन विकास की गुंजाइश

कल्पना कीजिए कि चुशूल घाटी मेंके पश्चिमी छोर पर या चुशूल और लुकुंग के बीच पैंगोंग सो झील के पास पर्यावरण के अनुकूल एक फाइव स्टार, सेंट्रली हीटेड होटल खड़ा है और लेह में मौसम से तालमेल बिठाने के बाद पर्यटक यहां के हवाई अड्डे पर विमान या हेलिकॉप्टर से उतार रहे हैं.

मैं अरसे से कहता रहा हूं कि हम अपनी उत्तरी सीमाओं को पर्यटन के लिए खोल दें. लद्दाख के लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने का सबसे बढ़िया उपाय उस क्षेत्र में पर्यावरण के अनुकूल पर्यटन का विकास है. सीमा क्षेत्रों को खोल दीजिए और लगभग भुलाए जा चुके ‘वाइब्रेंट विलेज प्रोग्राम’ को बढ़ावा दीजिए. भारतीय नागरिकों के लिए बेमानी ‘इनर लाइन परमिट’ व्यवस्था को बंद कीजिए. उपग्रहों और ड्रोनो के युग में आज हम क्या छिपाने की कोशिश कर रहे हैं?

चुशूल ‘एएलजी’ को फिर से सक्रिय करने के साहसी फैसले के लिए सरकार की तारीफ की जानी चाहिए. मैं सिफ़ारिश करूंगा कि इसे सैन्य व व्यावसायिक हवाई अड्डे के रूप में विकसित किया जाए और पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए इससे जुड़ी दूसरी सुविधाओं की भी व्यवस्था की जाए. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू 29 अगस्त 1952 को चुशूल में उतरे थे और मैं उम्मीद करता हूं कि निकट भविष्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उनकी तरह वहां उतरेंगे.

लेफ्टिनेंट जनरल एच. एस. पनाग (सेवानिवृत्त), पीवीएसएम, एवीएसएम, ने 40 साल तक भारतीय सेना में सेवा की. वे उत्तरी कमान और केंद्रीय कमान के कमांडर रहे. रिटायरमेंट के बाद, उन्होंने सशस्त्र बल न्यायाधिकरण में सदस्य के रूप में काम किया. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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