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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतजहर देकर मारा गया’ भोवाल का वो राजकुमार, जो चिता से उठकर संन्यासी बना और फिर अपनी रियासत हासिल की

जहर देकर मारा गया’ भोवाल का वो राजकुमार, जो चिता से उठकर संन्यासी बना और फिर अपनी रियासत हासिल की

कुमार रामेंद्र नारायण रॉय की 1909 में ‘मौत’ हो गई थी. हालांकि, लगभग एक दशक बाद रॉय होने का दावा करने वाला एक संन्यासी सामने आया, जिसने कहा कि उसकी पत्नी ने उसे जहर देकर मारने की साजिश रची थी. रॉय की ‘मौत’ अब भी रहस्य का विषय बनी हुई है.

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ढाका के बकलैंड बंड में रहने वाले हर शाही जोड़े ने यह अफवाह सुनी थी—सड़क पर पवित्र अग्नि के सामने बैठकर तपस्या करता गोरी चमड़ी वाला वह संन्यासी किसी दौर में एक रियासत का राजकुमार था.

हालांकि, इन अफवाहों पर विश्वास करना मुश्किल था. बाद में एक जज ने टिप्पणी की थी, ‘लंबी दाढ़ी वाले उस संन्यासी के तन पर सिर्फ एक लंगोट थी, उसके पूरे शरीर पर भस्म लगी थी और उसके बाल उसकी पीठ पर उलझी रस्सी की तरह लटकते थे.’ दरअसल, वह जिस राजकुमार से जुड़े मामले की सुनवाई कर रहे थे, उसे गुजरे हुए काफी समय बीत चुका था.

फिर मई 1921 में, अदालत में पेश होने के कुछ महीने बाद, उस संन्यासी ने अपनी ‘असल’ पहचान बयां कर दी. कुमार रामेंद्र नारायण रॉय, भोवाल की जमींदारी के राजकुमार, जो शिकार के साथ-साथ शहनाई बजाने के शौकीन थे और जिनकी कई माशूकाएं थीं, और चिता से उठकर उन्होंने अपनी रियासत पर दोबारा दावा जता दिया था.

उस संन्यासी के दावे ने एक कानूनी वाद को जन्म दिया था, जो 1930 में ढाका की जिला अदालत से शुरू होकर 1946 तक कलकत्ता हाईकोर्ट से लेकर लंदन की प्रिवी काउंसिल तक पहुंच गया था. हालांकि, संन्यासी का यह आरोप कभी सिद्ध नहीं हो पाया कि उसकी पत्नी ने अपने भाई और फैमिली डॉक्टर के साथ मिलकर उसे जहर देकर मारने की साजिश रची थी. इंपीरियल पुलिस ने कभी रॉय की ‘मौत’ के अजीबोगरीब हालात की जांच नहीं की.

एडिशनल डिस्ट्रिक्ट जज पन्नालाल बसु ने कहा, ‘वादी की कहानी किसी रोमांटिक पटकथा सरीखी लगती है, लेकिन छह लोगों को छोड़कर उसके सभी सगे-संबंधियों और हर रैंक व तबके के सैकड़ों व्यक्तियों ने उसकी पहचान की पुष्टि की है.’


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एक राजकुमार की मौत

अप्रैल 1909 में, रामेंद्र रॉय, जो उस समय लगभग 25 बरस के रहे होंगे, छुट्टियां मनाने के लिए दार्जिलिंग पहुंचे थे. रॉय के साथ उनकी पत्नी विभावती देवी, साला (विभावती का भाई ) राय बहादुर सत्येंद्र नाथ बनर्जी, निजी चिकित्सक डॉ. आशुतोष कुमार और कुछ नौकर-चाकर थे. दार्जिलिंग में कदम रखने के कुछ ही दिनों के भीतर रॉय के पेट में असहनीय दर्द उठने के बाद मौत हो गई. सिविल सर्जन कर्नल जॉन कैलवर्ट ने उनकी मौत की वजह बाइलरी कोलिक (पित्त संबंधी पेट दर्द) दर्ज की.

राजकुमार या फिर उस संन्यासी ने उसके बाद की जो कहानी बयां की, वह एकदम काल्पनिक नजर आती थी. उसने जज बासु के समक्ष सुनवाई के दौरान आरोप लगाया कि सच्चाई यह है कि उसे जहर दिया गया था, जिससे वह बेहोश हो गया था.

उसने दावा किया कि उसे आठ मई 1909 की रात को अंतिम संस्कार के लिए ले जाया गया, लेकिन तभी तेज आंधी आई और उसकी चिता को आग नहीं लगाई जा सकी. लोग उसे चिता पर छोड़कर चले गए.

उसने बताया कि इसके बाद गुरु धर्म दास नागा के नेतृत्व में साधुओं की टोली ने उसे बचाया. वे उसे अपने साथ ले गए, उसकी देखभाल की, जिससे वह ठीक हो गया. संन्यासी ने दावा किया कि जहर के कारण उसकी याददाश्त चली गई थी और उसने साधुओं की टोली के साथ पूरे देश में भ्रमण किया. हालांकि, 1920 में उसकी याददाश्त लौट आई और वह वापस ढाका पहुंच गया.

16 मई 1921 को पैतृक शहर जैदेबपुर में आयोजित एक बैठक में, सगे-संबंधियों और स्थानीय बाशिंदों के उस संन्यासी को रामेंद्र रॉय के रूप में मान्यता देने के बाद उसे कुमार यानी राजकुमार घोषित कर दिया गया. बाद में उसे रियासत से राजस्व मिलना शुरू हो गया.

संन्यासी-राजकुमार की विधवा, विभावती देवी इस फैसले से सहमत नहीं थीं. उन्होंने कलकत्ता (अब कोलकाता) में शाही प्राधिकारियों से मामले में दखल देने की अपील की. विभावती देवी ने जोर देकर कहा कि चिता से उठकर आने और राजकुमार होने का दावा करने वाला संन्यासी जालसाज है. जून 1921 में, एक आधिकारिक घोषणा जारी कर नए कुमार को बहरूपिया घोषित कर दिया गया. हालांकि, स्थानीय लोगों ने राजकुमार का समर्थन करना जारी रखा. आठ साल बाद, प्राधिकारियों ने कुमार को कानूनी नोटिस जारी उन्हें जैदेबपुर की सीमा में प्रवेश न करने का निर्देश दिया.

मंशा पर उठे सवाल

प्रत्येक पक्ष के पास झूठ बोलने की वजहें थीं और यहां तक कि मारने की भी. दरअसल, भोवाल की जमींदारी मैमनसिंह और ढाका में 1,500 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैली हुई थी, जो अब बांग्लादेश का हिस्सा हैं. 1931 में रियासत को लगभग 6.50 लाख का सालाना राजस्व हासिल हुआ था. यही नहीं, अफवाहें थीं कि राजकुमार को सिफिलिस (एक तरह का यौन रोग) था और उनमें यह बैक्टीरियल इंफेक्शन अपनी एक माशूका से फैला था. दिलचस्प बात यह है कि राजकुमार के भाइयों रणेंद्र और रवींद्र ने भी क्रमशः 1910 और 1913 में रहस्यमयी बीमारियों के कारण दम तोड़ दिया था.

राजकुमार का पुराना सेवक, आनंद खानसामा, अपने मालिक की याद में रोज रात अगरबत्ती जलाता था, लेकिन लोग अपने जीवन में आगे बढ़ते चले गए. स्थानीय स्तर पर यह अफवाह बरकरार रही कि राजकुमार को उसकी पत्नी ने अपनी प्रेमी के साथ मिलकर जहर दे दिया था, लेकिन इन अफवाहों के समर्थन में कभी कोई सबूत नहीं सामने आ सका.

कोर्ट ऑफ वार्ड्स ने तीनों राजकुमारों की संपत्तियों को अपने कब्जे में ले लिया था. कोर्ट ऑफ वार्ड्स ब्रिटिश शासन की एक कानूनी संस्था थी, जो उत्तराधिकारियों के कानूनी रूप से अक्षम माने जाने की सूरत में संपत्तियों का संचालन अपने हाथ में ले लेती थी. वह तीनों विधवा राजकुमारियों को संपत्तियों से होने वाली आय का कुछ हिस्सा भुगतान करती थी. हालांकि, उस दौर में इसे लेकर कुछ तनातनी भी चलती रहती थी, क्योंकि कोर्ट ऑफ वार्ड्स राजकुमारों जितनी रियायत नहीं देती थी.

विभावती देवी ने संन्यासी के उनके पति होने के दावे को सिरे से खारिज कर दिया और यहां तक उससे मिलने तक से इनकार कर दिया. रामेंद्र रॉय के भाइयों की पत्नियां, सरजूबाला देवी और आनंदकुमारी देवी ने भी बाद में मुकदमे में विभावती देवी का साथ दिया. हालांकि, राजकुमारी की बहन ज्योतिर्मोयी देवी, जिन्हें कोर्ट ऑफ वार्ड्स ने महल से बाहर निकाल दिया था, ने संन्यासी के दावों का समर्थन किया था.


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आर्सेनिक का इस्तेमाल और अन्य दलीलें

जज बासु की अदालत में नवंबर 1933 से मई 1936 के बीच सार्वजनिक अवकाश को छोड़कर बिना किसी ब्रेक के इस मुकदमे की नियमित सुनवाई चली. सुनवाई के दौरान 1,039 गवाहों ने संन्यासी-राजकुमार की तरफ से, जबकि अन्य 479 ने बचाव पक्ष की तरफ से बयान दिया.

डीएनए सैंपलिंग और आधुनिक फॉरेंसिक विज्ञान से पहले के दौर में मुकदमे की सुनवाई मुख्य रूप से चश्मदीदों के बयानों पर निर्भर करती थी. संन्यासी और राजकुमार के नैन-नक्श, कद-काठी में समानताएं और भिन्नताएं दर्शाने के लिए बड़ी संख्या में तस्वीरों का इस्तेमाल भी किया गया. ये तस्वीरें आज भी नई दिल्ली में अल्काजी कलेक्शन ऑफ फोटोग्राफी का हिस्सा हैं.

भले ही यह एक दीवानी मुकदमा था, लेकिन इसमें राजकुमार पर नजर आए लक्षणों के आधार पर उन्हें जहर के रूप में आर्सेनिक दिए जाने का दावा करने संबंधी सबूत पेश किए गए. वहीं, विभावती देवी ने दावा किया कि संन्यासी-राजकुमार वास्तव में पंजाब के औजला गांव का रहने वाला मार सिंह नाम का व्यक्ति है, जिसे उनके ससुराल पक्ष ने संपत्ति को हड़पने के लिए खड़ा किया है. अपनी-अपनी दलीलों को सही साबित करने के लिए दोनों पक्षों ने हैंडराइटिंग एक्सपर्ट भी पेश किए.

मुकदमे के दौरान संन्यासी-राजकुमार को ‘लाउंज-सूट’ और ‘क्रूट’ जैसे अंग्रेजी शब्दों का ज्ञान न होने जैसे सवालों पर जिरह की गई. एस. घोषाल नामक एक वकील ने जहां यह दावा कि युवा राजकुमार धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने में सक्षम और ‘एक पढ़े-लिखे और संवाद कुशल बंगाली रईस हैं’, वहीं कई अन्य ने इससे असहमति जताई. राजकुमार के ट्यूटर द्वारिका नाथ मुखर्जी, उन्हें अंग्रेजी और बांग्ला के अक्षर ज्ञान से आगे की शिक्षा देने में नाकाम रहे थे. युवा राजकुमार को पढ़ाने के लिए नियुक्त किए गए अंग्रेजी के एक ट्यूटर ने तो खिसियाकर नौकरी छोड़ दी थी.

विभावती देवी के वकीलों ने इस बात की ओर ध्यान आकर्षित किया कि संन्यासी अंग्रेजी नहीं बोल पाता था और वह बांग्ला भी बहुत कम बोलता था, लेकिन चूंकि संन्यासी का कहना था कि मौत के करीब ले जाने वाली घटना के चलते उसकी याददाश्त चली गई थी, इस कारण यह दलील विवाद को सुलझा नहीं सकी. यह भी कहा गया कि संन्यासी के हिंदी लहजे में बांग्ला बोलने का कारण उसका उत्तर में कई वर्षों तक भ्रमण करना हो सकता है.

इसके अलावा, ऐसे गवाह थे, जिन्होंने कहा कि भोवाल परिवार में ज्यादा बनावटीपन नहीं था. जज बासु ने कहा कि राजकुमार और उनके भाई ‘जब साहेब से मिलते थे या रस्मी कार्यक्रमों में शामिल होते थे, तब वे अंग्रेजों की तरह सूट-बूट पहनते थे और जब वे शिकार पर निकलते थे, तब शिकारियों जैसे वस्त्र धारण करते थे. इसकी वजह यह हो सकती है कि राजा (उनके पिता) एक बार कलकत्ता में एक इंग्लिश होटल में रुके थे.’

हालांकि, महल में रखे सामान को देखते हुए लगता था कि वहां ‘एक पारंपरिक ब्राह्मण जमींदार परिवार बसता था, जिसके पास नौकरों की लंबी फौज थी और जो भोग-विलास एवं ऐश्वर्य में लिप्त रहना पसंद करता था.’

महल में ली अंतिम सांस

जज बासु की नजरों में यह मामला जटिल था कि दोनों पक्षों ने अपने-अपने मुकदमे को मजबूत करने के लिए भ्रष्ट तरीकों का इस्तेमाल किया था. मिसाल के तौर पर, दार्जिलिंग में गोरखा जवानों ने ‘रिवर्स आर्म’ (अंत्येष्टि में शोक जताने से संबंधित कमांड, जिसमें सैनिक पीठ पर राइफल उल्टी लादकर चलते हैं) के साथ राजकुमार की शव यात्रा निकाली थी. हालांकि, ऐसा कहा गया था कि कथित गवाहों को पैसों देकर खरीद लिया गया था. स्कॉटलैंड यार्ड के हैंडराटिंग एक्सपर्ट के बयान पर आधारित सबूत भी पेश किए गए, जिनमें कहा गया था कि प्रमुख दस्तावेजों पर मौजूद दस्तखत से छेड़छाड़ की गई है

दार्जिलिंग के डॉक्टरों से मिले साक्ष्यों ने संकेत दिया कि राजकुमार पित्त की थैली में पथरी की समस्या से जूझ रहे थे. हालांकि, अदालत में पेश गवाहों ने जोर देकर कहा कि वह गंभीर डायरिया के शिकार थे. हालांकि, अदालत में गवाही देने वाले विशेषज्ञों ने कहा कि राजकुमार को जिस तरह का डायरिया हुआ था, उससे संकेत मिलते हैं कि उन्हें जहरीला आर्सेनिक दिया गया था.

जज ने अंत में संन्यासी के दावों को स्वीकार कर लिया. उनका फैसला शारीरिक विशेषताओं, मसलन निशान और त्वचा, पर निर्भर था, जैसा कि गवाहों ने अपने बयान में बताया था. हालांकि, सरकार ने राजकुमार की आय बहाल करने से इनकार कर दिया और हाईकोर्ट का रुख किया. हाईकोर्ट ने जज बासु के फैसले को बरकरार रखा, जिसके बाद लंदन की प्रिवी काउंसिल में याचिका दाखिल की गई.

आखिरकार, 1946 में संन्यासी-राजकुमार अपने महल में लौटे, लेकिन महज दो दिन बाद स्ट्रोक से उनकी मौत हो गई. विद्यावती देवी ने इसे कुदरत का इंसाफ बताया और आखिरी समय तक इस बात पर अड़ी रहीं कि वह एक बहरूपिया था.

(संपादनः शिव पाण्डेय । अनुवादः रावी द्विवेदी)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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