scorecardresearch
Saturday, 20 April, 2024
होममत-विमतदुनिया फिर एकजुट हो रही है लेकिन इस बार वह अफगान महिलाओं को उनके भाग्य के भरोसे छोड़ देना चाहती है

दुनिया फिर एकजुट हो रही है लेकिन इस बार वह अफगान महिलाओं को उनके भाग्य के भरोसे छोड़ देना चाहती है

अफगानिस्तान के इस्लामिक अमीरात ने महिलाओं के यूनिवर्सिटी में प्रवेश को प्रतिबंधित कर दिया है. यह पाबंदी उन कदमों की ही अगली कड़ी है जो अफगानिस्तान की महिलाओं को सामाजिक बेड़ियों में जकड़ते जा रहे हैं.

Text Size:

अमेरिका में 9/11 हमले के कुछ हफ्तों बाद की बात है जब काबुल में देश-विदेश के तमाम पत्रकार जुटे. तब तक वहां तालिबान सरकार का पतन हो चुका था. सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय पहुंचे पत्रकारों को ऊंची-ऊंची दीवारों पर लगे अफगानिस्तान के तमाम पूर्व शासकों के चित्र नजर आ रहे थे. इसमें से केवल किंग अमानुल्लाह खान की एक तस्वीर थी जिसमें उनकी पत्नी क्वीन सुरैया तर्जी भी दिख रही थीं. लेकिन तालिबान शासन ने इस तस्वीर पर भी अपनी रुढ़िवादी सोच की छाप छोड़ दी थी. कलाकार, मानवविज्ञानी जूली बिल्लाउड ने देखा, क्वीन सुरैया तर्जी के फोटो पर अलग से पारंपरिक शादी का घूंघट पेंट कर दिया गया था, जिसमें नीचे तक रंग बह रहे थे.

अगस्त 1928 के अंत में सुरैया तर्जी ने एक लोया जिरगा— कबायली बुजुर्गों की पंचायत जैसी सभा में अपना घूंघट उतार दिया था. इससे पहले ही किंग अमानुल्लाह ने ऐलान किया था कि ‘इस्लाम में महिलाओं को खुद को ढकने के लिए किसी तरह का बुर्का या नकाब पहनने की जरूरत नहीं’ है. तर्जी ने अपने देश में महिलाओं के लिए पहला स्कूल और अस्पताल स्थापित कराया. सुरैया तर्जी का ओरिजनल पोर्टेंट रुढ़िवादी परंपराओं के खिलाफ उनके सांकेतिक विद्रोह को दर्शाने वाला है.

लंबे अंतराल के बाद, फिर से अफगानिस्तान पर काबिज हो चुके इस्लामिक अमीरात ने इस हफ्ते के शुरू में यूनिवर्सिटी में महिलाओं के प्रवेश को प्रतिबंधित कर दिया है. यह पाबंदी उन कदमों की ही अगली कड़ी है जो अफगानिस्तान की महिलाओं को सामाजिक बेड़ियों में जकड़ते जा रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि लड़कियों को हाई स्कूल जाने से वंचित कर दिया गया है और लैंगिक आधार पर अलग-थलग करने वाले फरमान काम और स्वास्थ्य सेवाओं तक में महिलाओं की पहुंच बाधित कर रहे हैं. उन्हें अक्सर उम्रदराज तालिबान कमांडरों से शादी करने पर भी बाध्य होना पड़ता है.

तालिबान ने सत्ता संभालने से पहले महिलाओं को पढ़ाई-लिखाई जारी रखने की अनुमति देने और ‘हर बच्चे, महिला और पुरुष के वैधानिक और मानवीय अधिकारों को सुरक्षित रखने की गारंटी’ देने का वादा किया था. तालिबान के अपने वादों को निभाने में नाकाम रहने की दुनिया के कई देशों ने कड़ी आलोचना तो की है लेकिन अंतरराष्ट्रीय समुदाय अफगानिस्तान की महिलाओं के लिए कोई बहुत ठोस उपाय करता नजर नहीं आ रहा है. यहां तक कि भारत और कई अन्य देशों में महिलाओं के लिए स्कॉलरशिप भी प्रतिबंधित कर दी गई है.

एक महिला ने शोधकर्ताओं रोक्सन्ना शापोर और रमा मिर्जादा से कहा, ‘महिलाएं समाज का आधा हिस्सा हैं और उन्हें नजरअंदाज किया जाता है. कोई पक्षी केवल एक पंख के सहारे कैसे उड़ सकता है?’

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें


यह भी पढ़ें: क्यों 2022 वाले देवेंद्र फडणवीस वही नहीं है जो वह 2014 में थे


लैंगिक भेदभाव की राजनीति

अक्टूबर में जबसे मौलवी निदा मुहम्मद नदीम ने इस्लामिक अमीरात के उच्च शिक्षा मंत्री के तौर पर कार्यभार संभाला, तभी से उन्होंने तर्जी की विरासत को पूरी तरह नेस्तनाबूद करना शुरू कर दिया. पिछले महीने, मंत्री ने आरोप लगाया कि ‘विदेश से अय्याशी और अश्लीलता की संस्कृति यहां लाने’ के लिए अमानुल्लाह जिम्मेदार हैं. उन्होंने कहा कि महिलाओं को शिक्षित करना ‘इस्लाम और अफगान मूल्यों के खिलाफ’ है. महिलाओं के लिए कॉलेज के दरवाजे बंद करने के फैसले के बाद नदीम ने दलील दी कि छात्राएं ‘ऐसे कपड़े पहनकर आ रही थीं जैसे किसी शादी समारोह में जा रही हों.’

उच्च शिक्षा मंत्री की यह टिप्पणी तो खास तौर पर गौर करने लायक है कि नौकरी तलाश रहे तालिबान उम्मीदवारों के लिए किसी भी तरह की परीक्षा की क्या जरूरत है. उन्होंने जोर देकर कहा कि एक तालिबान की असली योग्यता तो यह है कि ‘उसने कितने बम धमाके किए.’

इस्लामिक अमीरात में कई सबसे ताकतवर लोगों में शुमार नदीम दक्षिणी कंधार क्षेत्र के मौलवियों के एक छोटे-से समूह का हिस्सा हैं, जो अपने अमीर हिबतुल्लाह अखुंदजादा के इर्द-गिर्द सिमटा है. इस समूह के प्रभावशाली लोगों में मजहबी नियम-कायदों पर अमल कराने के लिए जिम्मेदार प्रोमोशन ऑफ वर्चू एंड प्रिवेंशन ऑफ वाइस मंत्रालय के प्रमुख मोहम्मद खालिद हक्कानी और चीफ जस्टिस अब्दुल हकीम हक्कानी और धार्मिक मामलों के मंत्री नूर मुहम्मद साकिब शामिल हैं.

नदीम की पृष्ठभूमि के बारे में बहुत ज्यादा ब्योरा उपलब्ध नहीं है लेकिन माना जाता है कि 1977 में जन्मे मौलवी ने 9/11 के बाद तालिबान विद्रोह में शामिल होने से पहले कंधार में एक मदरसे का संचालन किया था. इससे पहले, उन्होंने नांगरहार और काबुल के क्षेत्रीय गवर्नर के रूप में भी कार्य किया.

कुछ लोगों का तर्क है कि महिलाओं की शिक्षा पर कट्टरतावादी रुख तालिबान के भीतर शक्ति-संघर्ष का भी नतीजा है, जिसमें प्रतिद्वंद्वी गुट अपना वर्चस्व को स्थापित करने के लिए मजहब को एक साधन बना रहे हैं. इस साल की शुरुआत में, अखुंदजादा ने न्यायाधीशों को आदेश दिया कि 9/11 से पहले महिलाओं को पराधीन रखने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली बर्बरतापूर्ण कानूनी व्यवस्था बहाल करते हुए शरीयत-कानून की सजाओं को सख्ती से लागू करें.

हालांकि, इससे पहले भी इस्लामिक अमीरात ने लड़कियों को शिक्षा पर एक अस्पष्ट रुख अपनाया था, खासकर तब जब शीर्ष नेताओं की बैठक में कोई आम सहमति न बन पाने पर हाई स्कूलों को फिर से खोलने का वादा तोड़ दिया गया था. उस समय तालिबान नेता सिराजुद्दीन हक्कानी के पूर्वी अफगान नेटवर्क से जुड़े उच्च शिक्षा मामलों के तत्कालीन मंत्री अब्दुल बाकी हक्कानी ने कहा था कि महिलाएं यूनिवर्सिटी में पढ़ना जारी रख सकती हैं, लेकिन लैंगिक आधार पर अलग बनाई गई कक्षाओं में. हालांकि, अब्दुल बाकी ने यह भी कहा था कि औपचारिक शिक्षा मदरसे की शिक्षा की तुलना में ‘कम अहमियत’ रखती है.

वैसे, खुद तालिबान के शीर्ष नेता—जिनमें स्वास्थ्य मंत्री कलंदर एबाद, विदेश उप मंत्री शेर मोहम्मद अब्बास स्टानिकजई और प्रवक्ता सुहैल शाहीन आदि शामिल हैं— अपनी बेटियों को उच्च शिक्षा दिला रहे हैं और वह इसे इस्लामी कर्तव्य करार देते हैं.

गरीबी के दुष्चक्र में घिरे देश में काबुल की सत्ता पर काबिज समृद्ध तालिबान कमांडरों के खिलाफ नाराजगी अपेक्षाकृत पिछड़े दक्षिणी अफगान क्षेत्र के मौलवियों द्वारा अपने किसान-बहुल क्षेत्रों में आधुनिकता-विरोधी मूल्यों को आगे बढ़ाने के तौर पर सामने आई है.

9/11 के बाद एक लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना के बाद भी ग्रामीण अफगानिस्तान के क्षेत्रों में लड़कियों की शिक्षा के खिलाफ प्रतिरोध व्यापक रूप से बना रहा है. संयुक्त राष्ट्र ने पिछले साल खास तौर पर जिक्र किया था कि उच्च शिक्षा में लड़कियों की संख्या 2001 में मात्र 5,000 से बढ़कर 2018 में लगभग 90,000 ही हो पाई है. पढ़ना और पढ़ाना मुख्यत: शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित रहा है.


यह भी पढ़ें: गड्ढों के आकार की खदानें, बोल्ड रेत माफिया- क्यों पंजाब का अवैध खनन राजनीतिक तौर पर गर्म है


शिक्षा, लिंगभेद और वर्ग

अफगानिस्तान में पिछले एक सदी से भी अधिक समय से महिला शिक्षा वर्ग और परंपरा से जुड़ा एक जटिल राजनीतिक मुद्दा रहा है. 1880 से 1901 तक शासन करने वाले अफगान राज्य के संस्थापक पितामह राजा अब्दुर रहमान खान का मानना था कि महिलाओं को पुरुषों के अधीन रहना चाहिए, लेकिन वह लैंगिक भेदभाव को कुछ कम करने के पक्षधर थे. उन्होंने विधवाओं को पति के रिश्तेदारों से शादी के लिए मजबूर किए जाने की प्रथा को समाप्त कर दिया, विवाह की उम्र बढ़ा दी और तलाक की अनुमति भी दी.

फहीमा रहीमी और नैन्सी डुप्री हैच ने लिखा है कि राजा अब्दुर रहमान की पत्नी बोबो जान यूरोपीय पोशाक पहने बिना घूंघट के सार्वजनिक रूप से दिखाई देती थी. उन्होंने लिखा रानी सक्रियता के साथ राजनीति से जुड़ी थी, ‘घोड़ों की सवारी करती थीं और उन्होंने अपनी दासियों को सैन्य अभ्यास में ट्रेंड कराया था.’

अब्दुर रहमान के बेटे किंग हबीबुल्ला ने सुधार के प्रयास जारी रखे, अफगानिस्तान में पहला कॉलेज खुला, साथ ही लड़कियों के लिए एक अंग्रेजी माध्यम का स्कूल भी खोला गया. तर्जी के पिता— लिबरल जर्नलिस्ट और राजनयिक महमूद बेग तर्जी ने शिक्षा और विवाह के मामलों में सुधारों को आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई. हालांकि, आधुनिकीकरण के प्रयासों ने कबायली नेताओं के वर्चस्व को चुनौती दी और यही वजह थी कि 1919 में किंग हबीबुल्ला की हत्या कर दी गई.

उनकी हत्या के बाद देश पर तर्जी और किंग अमानुल्लाह का शासनकाल आया. सुधार की दिशा में उनकी महत्वाकांक्षी पहलों का नतीजा यह हुआ कि तीव्र विरोध शुरू हो गया. किंग अमानुल्लाह को अपने लिए एक खतरा मानने वाले साम्राज्यवादी ब्रिटेन की शह पाकर कबायली विद्रोह भड़क उठा और महिलाओं के नकाब न पहनने, उन्हें अपना जीवन साथी चुनने का अधिकार देने और बहुविवाह पर प्रतिबंध लगाने के उनके प्रयासों का जमकर विरोध होने लगा. दक्षिणी अफगानिस्तान में बेनकाब चेहरे वाली रानी की तस्वीरें बांटे जाने से मौलवियों का गुस्सा भड़क उठा.

यूरोपीय अनुभवों ने शाही जोड़े को अफगानिस्तान को एक निर्वाचित प्रतिनिधि सदन और एक धर्मनिरपेक्ष न्यायपालिका के साथ एक संवैधानिक राजतंत्र में बदलने के लिए प्रेरित किया. लड़के-लड़कियों के लिए शिक्षा को अनिवार्य बनाना और को-एजुकेशन स्कूलों की स्थापना करना उनके कुछ महत्वपूर्ण निर्णयों में शामिल रहा है.

हुमा अहमद-घोष लिखती हैं कि हालांकि, इन सुधारों ने काबुल के बाहर महिलाओं के जीवन को बदलने में कोई खास भूमिका नहीं निभाई. 1928 में लोया जिरगा ने बगावत कर दी, जो कि विवाह के लिए महिलाओं की 18 और पुरुषों के लिए 21 वर्ष निर्धारित करने के अमानुल्लाह के फैसले से नाराज थी. अमानुल्लाह ने अपना फैसला वापस ले लिया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. सत्ता संभालने के दस साल बाद ही शाही जोड़े को निर्वासन के लिए मजबूर कर दिया गया.


यह भी पढ़ें: अटल बिहारी वाजपेयी की समाधि पर राहुल गांधी के जाने के क्या हैं मायने


तब शासन के खिलाफ हो गए थे कठमुल्ला

हालांकि, महिलाओं को सशक्त बनाना अफगानिस्तान के आधुनिकीकरण में एक प्रमुख उद्देश्य बना रहा. किंग जहीर शाह 1933-1973 के बीच के अपने एक लंबे शासनकाल के दौरान पूरी सतर्कता के साथ आगे बढ़े, उन्होंने ग्रामीण समाज पर प्रतिक्रियावादी कठमुल्लाओं की पकड़ कमजोर करने के व्यापक राजनीतिक प्रयास के तौर पर महिलाओं को सशक्त बनाने वाले कई कदम उठाए. 1940 के दशक में अफगान शिक्षण संस्थानों ने महिलाओं के लिए शिक्षक, नर्स और डॉक्टर बनने की राह खोली. काबुल यूनिवर्सिटी ने पुरुषों के लिए अलग संस्थानों के अलावा, महिलाओं के लिए चिकित्सा, विज्ञान और मानविकी के संकायों की स्थापना की.

लेकिन 1973 में तख्तापलट के बाद जहीर शाह को सत्ता से हाथ धोना पड़ा और उनके चचेरे भाई दाउद खान काबिज हो गए, जिन्होंने एकदलीय रिपब्लिक की स्थापना की. नए गणतंत्र ने भी लड़कियों की शिक्षा को नए आयाम दिए. इसी बात ने पाकिस्तान समर्थित गुलबुद्दीन हिकमतयार, अहमद शाह मसूद और बुरहानुद्दीन रब्बानी जैसे रुढ़िवादी नेताओं को शासन का विरोध करने का मुद्दा दे दिया.

बिल्लाउद ने लिखा है, काबुल और अन्य शहरों को ‘बड़ी संख्या में शिक्षित और स्वतंत्र महिलाओं की मौजूदगी के कारण ‘पाप’ और ‘व्यभिचार’ के केंद्र माने जाते थे. किसान परिवारों की महिलाओं, जिनके जीवन में पश्चिमीकरण का कोई बहुत असर नहीं पड़ा था, का मानना था कि शहरी अभिजात्य वर्ग परिवारिक संस्था के लिए खतरा बना हुआ है और ग्रामीण जीवन ही आकर्षक है.

पाकिस्तान स्थित शरणार्थी शिविरों के अंदर कट्टरता पनपी, जो 1979 में सोवियत आक्रमण के बाद नाटकीय ढंग से और बढ़ी. वेलेंटाइन मोघदम के मुताबिक, 1989 में मौलवियों की तरफ से जारी किए गए एक फरमान में कहा गया कि महिलाएं ‘सड़कों पर न घूमें, कमर मटकाकर न चले और अजनबियों या विदेशियों के साथ कोई बातचीत या हंसी-मजाक न करें. एक साल बाद, लड़कियों की स्कूली शिक्षा पर रोक लगा दी गई. मीना केश्वर कमल जैसी विरोध करने वाली नारीवादी एक्टिविस्ट की हत्या कर दी गई.

फिर 1996 में तालिबान ने जब सत्ता पर कब्जा कर लिया तो इन कट्टरपंथी मूल्यों को सख्ती से लागू कर दिया गया. टखना दिख रहा है, हवा के झोंके से थोड़ा-सा चेहरा बेपर्दा हो गया या चाल-ढाल उत्तेजक है, ऐसी बातों को लेकर सार्वजनिक तौर पर पिटाई जैसी सजाएं निर्धारित कर दी गईं.

बहरहाल, शीत युद्ध की जीत के बाद अमेरिका और उसके सहयोगियों ने इस सबकी परवाह करना बंद कर दिया. ऐसा लगता है कि आज, दुनिया अफगान महिलाओं को सिर्फ उनके भाग्य के भरोसे छोड़ देने के नाम पर एकजुट हो गई है.

(अनुवाद: रावी द्विवेदी | संपादन: कृष्ण मुरारी)

(लेखक दिप्रिंट में नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @praveenswami हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: कांग्रेस को ‘जोड़ने’ के लिए राहुल तय करें कि क्या वे सत्ता को सचमुच जहर मानते हैं?


 

share & View comments