प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मन की बात में आपातकाल की चर्चा की. इसका एक अहम कारण था. देश निरंतर प्रगतिशील है. नवाचार के नए आयाम खोजे जा रहे हैं. भारत की बुनियादी ज्ञान परंपरा और संस्कृति को विकसित करने की सोच विकसित हो रही है. यह सब कुछ इसलिए भी संभव है कि भारत लोकतंत्र की जननी है, जिस बात को प्रधानमंत्री ने अपने 102 सीरीज़ में देश के सामने रखा और यह भली भांति याद दिलाया कि आपातकाल ने लोकतंत्र पर कैसे प्रहार किया था, एक ऐसा काला अध्याय जो भारत की पहचान को धूमिल करता है.
देश की जनता को विशेषकर युवा पीढ़ी को उस दिन की समझ ज़रूर होनी चाहिए. देश आज़ादी का अमृत महोत्सव भी मना रहा है, अनगिनत शहीदों को याद किया जा रहा है, जिन्होंने देश के लिए अपना सब कुछ त्याग कर दिया. देश फिर से जी-20 की अध्यक्षता कर रहा है. कईं कार्यक्रम किए जा रहे हैं, देश की आन-बान और शान पूरी दुनिया में तिरंगे के साथ अपना वजूद बना रहा है, वैसे हालात में लोकतंत्र की अक्षुणता को बरकरार रखना कितना ज़रूरी है. इसलिए प्रधानमंत्री के शब्दों में वो चिंता दिखाई पड़ रही थी.
आपातकाल को 47 साल पूरे हो गए. 25-26 जून की दरम्यानी रात भारत में दमन के अभूतपूर्व दौर की शुरुआत हुई. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कहने पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने आपातकाल के आदेश पर हस्ताक्षर कर दिए. नतीजा- देश के लोकतंत्र पर सबसे बदनुमा दाग.
अगले 21 महीने नागरिक अधिकार छीन लिए गए, सत्ता के खिलाफ बोलना अपराध हो गया, विरोधी जेलों में ठूंस दिए गए. उन दिनों देश ने जबरन नसबंदी का भयावह दौर भी देखा. आखिर इंदिरा ने आपातकाल लगाने का फैसला किया क्यों?
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आपातकाल के समीकरण को समझिए
आपातकाल की बात को समझने के लिए उस दौरान की राजनीतिक समीकरण को भी समझना ज़रूरी होगा.
12 जून 1975 के फैसले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने फैसला सुनाया कि इंदिरा ने लोकसभा चुनाव में गलत तौर-तरीके अपनाए. दोषी करार दी गईं इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया गया. बहुत लोग मानते हैं कि सत्ता जाने के डर से इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगा दी.
बात 1971 के आम चुनाव की है. इंदिरा गांधी की सीट रायबरेली से विपक्ष ने समाजवादी आंदोलन से निकले राजनारायण को उतारा. नतीजे आए तो इंदिरा गांधी विजयी घोषित की गईं. हालांकि, राजनारायण चुनावी प्रक्रिया से संतुष्ट नहीं थे. उन्होंने इलाहाबाद हाई कोर्ट में इंदिरा के खिलाफ याचिका लगा दी. इंदिरा पर चुनाव जीतने के लिए अनुचित तरीकों का इस्तेमाल करने का आरोप था. केस सिटिंग प्रधानमंत्री के खिलाफ था इसलिए चर्चा देश-विदेश में थीं. मामला इलाहाबाद हाई कोर्ट जज जगमोहन लाल सिन्हा की कोर्ट में गया. चार साल तक सुनवाई चली. उन पर काफी दबाव था. बैकडोर से बार-बार परेशान किए जाने पर सिन्हा बिफर गए. रजिस्ट्रार को फोन लगाकर कहा कि ऐलान कर दें, 12 जून 1975 को फैसला सुनाया जाएगा.
258 पेज के फैसले को पढ़ते हुए जस्टिस सिन्हा ने कहा कि ‘याचिका स्वीकार की जाती है….’ इसी के साथ सत्ता के गलियारों में खलबली मच गई. जस्टिस सिन्हा ने भ्रष्ट आचरण के दो मानदंडों पर इंदिरा गांधी को दोषी ठहराया. पहला पीएमओ में ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी यशपाल कपूर का इस्तेमाल चुनाव प्रचार में करना. कुछ ही देर में एक सफदरजंग रोड़ (तत्कालीन पीएम आवास) पर इंदिरा के करीबियों की भीड़ जुटने लगी. राजनीतिक रूप से प्रेरित हड़तालों और विपक्षी नेताओं के पुलिस और सेना से आदेश न मानने की अपील इंदिरा को नागवार गुज़री. इंदिरा ने जेपी नारायण के आंदोलन का भी ज़िक्र किया.
25 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान से जेपी ने इंदिरा को खूब सुनाया था. एक तरह से जेपी ने जनता से लेकर सेना तक से इंदिरा सरकार का प्रतिकार करने का आह्वान किया, लगातार घिर रहीं इंदिरा को इमरजेंसी के अलावा दूसरा रास्ता नहीं दिखा.
आपातकाल की कई कहानियां किताबों में दर्ज़ है, लेकिन सच्चाई है कि 1971 के चुनाव में जीतने के बाद इंदिरा गांधी लोकतांत्रिक व्यवस्था को तोड़कर एक निष्कंटक व्यवस्था की सुराग बना रही थीं. महगाई और बेरोज़गारी 1971 से 1975 के बीच में तेज़ी से बढ़ गई. भ्रष्टाचार चरम पर था. संस्थाओं अर्थात लोकतांत्रिक ढांचे को एक एक करके तोड़ा जाने लगा. देश के भीतर विरोध की लहार भी तेज़ हो रही थी. मोरारजी देसाई विरोधी तेवर में थे. वहीं, गुजरात में मुख्यमंत्री चिम्मनभाई पटेल के विरोध में आंदोलन शुरू हो गया था. विश्वविद्यालय के छात्र सड़कों पर थे. उनके साथ फैक्टरी के मजदूर भी शामिल हो गए थे. स्थिति राजनीतिक रूप से विषम बनती चली गई.
राष्ट्रपति शासन लागू किया गया. फिर आनन-फानन में चुनाव की घोषणा भी कर दी गई. दूसरी तरफ बिहार में भी भूचाल आ गया था. जेपी आंदोलन ने बिहार सहित देश के कई हिस्सों को अपनी गिरफ्त में ले लिया था. छात्र हर शहर में विद्रोह पर उत्तर गए थे.
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को सहज और सुगम रास्ता लोकतंत्र का गला घोटने का लगा. देश जो आर्थिक बदहाली से गुज़र रहा था, उसको आपातकाल के नाग पाश से जकड़ दिया. लाखों लोग जेल में डाल दिए गए. आंदोलनकारियों पर गोलियां बरसाईं गईं. शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह से पटरी से उतर गई. राष्ट्रवादी शक्तियों पर जबरन ताला लगा दिया गया. आपातकाल के पाश में तर्क यह दिया गया कि बांग्लादेश की आज़ादी से तंग आकर पाकिस्तान हमले की तैयारी कर रहा है. अर्थात भारत पर सुरक्षा के बादल मंडरा रहे हैं. यह भी एक गजब का राजनीतिक तमाशा था. अनुच्छेद 352 का प्रयोग इसके पहले केवल दो बार ही हुआ था.
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सोने की चिड़िया से मिट्टी की गुड़िया
चीन के साथ युद्ध के समय और 1965 में पाकिस्तान के साथ जब संघर्ष हुआ था. पहली बार आंतरिक सुरक्षा को बाहरी सुरक्षा से जोड़कर 352 का प्रयोग किया गया. 352 की आड़ में अनुच्छेद 359 के प्रयोग के साथ मौलिक अधिकारों को खत्म कर दिया गया. अर्थात सरकार की मनमानी के विरोध में कोई भी न्याय की उम्मीद नहीं कर सकता. यह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण था. विदेशों में भारतीय इमेज को बहुत बड़ा झटका लगा.पड़ोसी देश भारत को शक के नज़र से देखने लगा. ट्रेड समीकरण भी बिगड़ने लगा, आर्थिक मंदी बेतहाशा बढ़ गई. पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम चरमरा गया. गरीबी की जगह गरीबों को खत्म किया जाने लगा.
आज भारत की युवा पीढ़ी दुनिया की सबसे बढ़ी तादाद है. अमेरिका से लेकर अन्य देशों के तकनीकी नवाचार उनके द्वारा स्थापित हो रहा है. भारत विश्व गुरु के रूप में दुनिया में जाना जाता है, केवल 250 वर्षों के बीच देश की आर्थिक और सांस्कृतिक ढांचे को तोड़ा और बर्बाद किया गया. विदेशी ताकतों ने भारत को सोने की चिड़िया से मिट्टी की गुड़िया में तब्दील करने की कोशिश की. हमारी भाषा, वेशभूषा और सांस्कतिक पहचान को तहस नहस किया, लेकिन विडंबना रहा कि राजनीतिक सोच उपनिवेशी तौर तरीके से आज़ादी के बाद भी निरंतर बढ़ता रहा. हम अपनी पहचान को स्थापित करने का प्रयास से भी खिसकते गए.
भारत की अस्मिता हज़ारों साल पुरानी है, उसकी जड़े बरगद के पेड़ तरह दूर-दूर तक जड़ जमाई हुई थी. जब एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था आई जो भारत की खोई हुई पहचान को स्थापित करने की सोच को विकसित किया. नई शिक्षा नीति और व्यवस्था के जरिये भारत विश्व गुरु की और बढ़ने लगा. चूकि, देश में लोकतंत्र था जिसके जरिये नीतियां लोगों से जुड़ती चली गई और एक स्वाभाविक विकास की सीरीज़ तैयार होने लगी. आज भी देश की युवा पीढ़ी को बहुत मशक्कत करने की ज़रूरत है. इसके लिए लोकतंत्र की ज़रूरत हर कदम पर पड़ेगी.
देश की महत्ता केवल राजनीतिक व्यवस्था से नहीं जुड़ी हुई है. गांधी से लेकर दीनदयाल उपाध्याय तक ने अंतिम व्यक्ति की बात की है. अर्थात लोकतंत्र की सफलता की शर्त यही है कि देश के निर्माण में हर व्यक्ति का सहयोग हो. सबका साथ-सबका प्रयास और सबका विश्वास उसी सोच की बात करता है. यह तभी मुमकिन है जब लोकतंत्र की बुनियाद मजबूत बना रहे, अगर उसमें कमज़ोरी आएगी तब मुश्किलें बढ़ जाएगी. आज की तारीख में दुनिया भारत की तरफ देखती है. अगर हमारी पहचान में दाग दिखाई देगा तो उसका असर हर तरफ से होगा. इसलिए आपातकाल की समझ और पहचान हर भारतीय के लिए ज़रूरी है.
(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)
(लेखक इग्नू विश्वविद्यालय में राजनीति के प्रोफेसर हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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