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Friday, 29 March, 2024
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आपातकाल के बाद की पीढ़ी उस दौर में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका और मीडिया सेंसरशिप को किस रूप में देखे

जब आपातकाल के 45 बरस बाद 2020 में हम पीछे मुड़कर उन परिस्थितियों को देखते हैं तो उस दौर में खींची गईं सारी लकीरें स्पष्ट नज़र आती हैं.

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अतीत की किसी बड़ी राजनीतिक घटना का वर्तमान समय में विश्लेषण करने पर कई चीज़ें स्पष्ट होकर उभरती हैं. कुछ कदम जो इतिहास में मंजूर नहीं किए जाते और जिसके खिलाफ रोष जताया जाता है, वो चीज़े आने वाले दौर में अभ्यस्त सी हुई जान पड़ती है.

1975 में लगा आपातकाल भी भारतीय इतिहास की एक ऐसी ही बड़ी घटना है जिसका मूल्यांकन समय-समय पर करना बेहद जरूरी हो जाता है. लेकिन ये मूल्यांकन किन आधारों पर हो…ये प्रश्न थोड़ा जटिल है. लेकिन एक संवैधानिक और लोकतांत्रिक देश में उसके संस्थाओं का मूल्यांकन इस कठिन प्रश्न का जवाब हो सकता है.

जब आपातकाल के 45 बरस बाद 2020 में हम पीछे मुड़कर उन परिस्थितियों को देखते हैं तो उस दौर में खींची गई सारी लकीरें स्पष्ट नज़र आती हैं.

1975 में जब इंदिरा गांधी ने अपने कुछ विश्वस्त सलाहकारों की राय पर रातों-रात देश में आपातकाल लगाया तो उस वक्त भारत की जनसंख्या तकरीबन 60 करोड़ के आसपास थी जो 2020 आते-आते 130 करोड़ को पार कर चली है. यानि देश की 70 करोड़ के लगभग की आबादी ने इमरजेंसी के उस दंश को झेला ही नहीं है जिसमें नागरिक अधिकार अपने हाशिए पर थे. तो आपातकाल के बाद की पीढ़ी के लिए लोकतंत्र को लगे आघात को समझने के लिए उस समय की स्थितियों को जानना जरूरी है. जैसे की मीडिया, सुप्रीम कोर्ट और संवैधानिक संस्थाएं आखिर उस दौर में कर क्या रही थीं और क्या इनमें से किसी ने खुलकर इसके खिलाफ आवाज उठाई थी.

जेपी- ‘हम केवल संपूर्ण क्रांति चाहते हैं’

गुजरात से शुरू हुआ नवनिर्माण आंदोलन जिसमें एलडी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग के छात्रों ने बढ़ी हुई हॉस्टल मेस की फीस के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया. धीरे-धीरे ये आंदोलन अन्य राज्यों में भी फैला जिसमें बिहार प्रमुख था. लेकिन इस आंदोलन को एक विश्वस्त चेहरे की तलाश थी. जो जयप्रकाश नारायण के रूप में पूरी हुई.

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लालू प्रसाद यादव अपनी आत्मकथा गोपालगंज टू रायसीना ‘ में लिखते हैं कि जेपी ने उस समय तक खुद को राजनीति से दूर कर लिया था और केवल वो सर्वोदय और भूदान आंदोलन  को समय दे रहे थे.


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किताब में वो लिखते हैं, ‘पटना विश्वविद्यालय के छात्र संघ के अध्यक्ष के तौर पर मैं उनसे जनवरी 1974 में मिला और उनसे छात्रों का नेतृत्व करने को कहा. जिसे जेपी ने स्वीकार कर लिया.’

जेपी ने 5 जून 1974 को पटना के गांधी मैदान में एक बड़ी सभा को संबोधित किया. उन्होंने कहा, ‘दोस्तों.. यह क्रांति है. हम यहां केवल इसलिए नहीं आए कि बिहार विधानसभा भंग कर दी जाए. यह केवल लंबी यात्रा में पहला मील का पत्थर होगा. हमें काफी आगे जाना है. आजादी के 27 बरस बाद भी देश के लोग भूखमरी, महंगाई, भ्रष्टाचार और अन्याय के शिकार हैं. हम केवल संपूर्ण क्रांति चाहते हैं, और कुछ नहीं.’

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने चुनाव में गड़बड़ी का इंदिरा गांधी को दोषी पाया

1971 में इंदिरा गांधी ने भारी बहुमत के साथ सत्ता में वापसी की. 1971-74 का समय निर्विवाद रूप से उनकी लोकप्रियता का चरम थी. लेकिन उसी समय समाजवादी धड़े के राजनारायण ने इंदिरा गांधी पर चुनावों में धांधली का आरोप लगाया और अदालत में चुनौती दी.

12 जून 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट में जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा-123/7 के तहत दो गड़बड़ियों में इंदिरा को दोषी पाया. पहला, इंदिरा गांधी ने अपने संसदीय क्षेत्र रायबरेली में मंच के लिए लगी बिजली लेने में सरकारी अधिकारियों की मदद ली और दूसरा, पीएमओ में कार्यरत अधिकारी यशपाल कपूर की चुनाव प्रचार में मदद ली गई.

सुप्रीम कोर्ट ने लोक अधिकारों की रक्षा नहीं की

28 बरस पुराने लोकतंत्र में सिद्धार्थ शंकर रे, संजय गांधी, आरके धवन जैसे इंदिरा गांधी के कुछ विश्वस्त लोगों की सलाह पर संविधान के अनुच्छेद-352 का इस्तेमाल कर और देश में आंतरिक अशांति का हवाला देकर लोगों से उनके मूलभूत अधिकारों को छीन लिया गया और इसकी आड़ में विपक्षी नेताओं को रातों-रात गिरफ्तार कर लिया गया.

इस बीच इंदिरा गांधी लगातार संविधान में संशोधन करती रहीं. जो 39वें, 40वें और 41वें संशोधन के रूप में सामने आया.

राजनीतिक बंदियों को इस दौर में बंदी प्रत्यक्षीकरण का अधिकार नहीं था जिसके तहत वो अपने अधिकारों के लिए अपील कर सकते थे. लेकिन एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला मामले में शीर्ष अदालत ने हाई कोर्ट के फैसले को पलट दिया.

कुलदीप नैय्यर अपनी किताबइमरजेंसी की इनसाइड स्टोरी ‘ में इस घटना का विस्तार से जिक्र करते हैं. उन्होंने लिखा, ‘सात उच्च न्यायालयों इलाहाबाद, बॉम्बे, दिल्ली, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान ने 43 बंदियों पर बंदी प्रत्यक्षीकरण की इजाजत दे दी थी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को पलट दिया और आदेश दिया कि किसी व्यक्ति का अधिकार नहीं है कि वह हिरासत में लिए जाने के बाद उसे चुनौती दे.’


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शीर्ष अदालत की पांच सदस्यीय पीठ में ए एन रे, एम एच बेग, वाई वी चंद्रचूड़, पी एन भगवती और एच आर खन्ना शामिल थे. इस पीठ ने 4:1 से फैसला दिया जो इंदिरा गांधी के पक्ष में था लेकिन जस्टिस खन्ना ने विरोध में फैसला देते हुए कहा था कि व्यक्ति के जीवन और उसकी स्वतंत्रता का हर हालत में बने रहना जरूरी है.

2017 में निजता के अधिकार पर फैसला सुनाते वक्त जब संविधान पीठ एडीएम जबलपुर केस से गुज़री तो वाई वी चंद्रचूड़ के बेटे डी वाई चंद्रचूड़ ने कहा कि उस वक्त लिया गया फैसला ठीक नहीं था.

एडीएम जबलपुर मामले पर फैसला सुनाने वाली पीठ के सदस्य रहे पी एन भगवती ने एक इंटरव्यू में खुद स्वीकारा था कि ये फैसला सही नहीं था और उन्होंने खुद को इसका दोषी भी माना. वो कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का रवैया संतोषजनक नहीं था और अदालत इमरजेंसी के दौरान फेल हो गई.

जस्टिस आफताब आलम और जस्टिस अशोक कुमार गांगुली ने 2011 में एक फैसले में कहा भी था कि 1976 के उस फैसले ने लोगों के मूलभूत अधिकारों को छीनने का काम किया.

इमरजेंसी के दौर में सुप्रीम कोर्ट की जो भूमिका रही और उसने अपने फैसलों के जरिए लोगों के अधिकारों की रक्षा नहीं की, जो कि उसका काम था, उसे लेकर आज तक सवाल किए जाते हैं.

‘मीडिया को झुकने को कहा तो वो रेंगने लगा’

मीडिया को नियंत्रण करने का काम कमोबेश हर सत्ता अपने-अपने तरीके से करती रही है. हाल ही में जम्मू-कश्मीर का प्रशासन केंद्र शासित प्रदेश के लिए नई मीडिया नीति लेकर आई जिसमें प्रसारित सामग्री की निगरानी की बात कही गई. हालांकि प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने इस पर आपत्ति जताते हुए इसे प्रेस की स्वतंत्रता को प्रभावित करने वाला बताया.

बीते सालों में ऐसे कई मामले हमारे सामने आए हैं जब पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया. कुछ जानकारों का ये भी मानना है कि हम उस दिशा की तरफ बढ़ रहे हैं जैसा कि इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के दौरान प्रेस को कुचल कर की थी. लेकिन अगर लौट चलें आपातकाल के दौर की मीडिया की तरफ तो ऐसी घटनाओं की एक पूरी श्रृखंला है जिसमें सत्ता को लेकर कोई सवाल ना कर सके….ये सुनिश्चित किया गया था.

कुलदीप नैयर अपनी किताब इमरजेंसी की इनसाइड स्टोरी  में लिखते हैं कि 25 जून की आधी रात को ही अखबारों के दफ्तरों की बिजली काट दी गई. इस पर अधिकारियों ने सफाई दी कि पावर हाउस में गड़बड़ी आ गई थी.

इसी बीच सूचना प्रसारण मंत्रालय का जिम्मा आई के गुजराल से लेकर विद्याचरण शुक्ला को दे दिया गया जो कि संजय गांधी के विश्वस्त लोगों में से थे. शुक्ला ने सेंसरशिप की बागडोर अपने हाथों में ले ली जिसके बाद प्रेस सेंसरशिप का एक भयानक दौर शुरू हुआ.


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अखबारों के छपने से पहले उसकी सामग्री पर नज़र रखी जाने लगी. कमोबेश पूरी मीडिया ही इंदिरा गांधी के सामने नतमस्तक हो चुकी थी. अगर कुछ अपवादों को छोड़ दें तो. इस पर लालकृष्ण आडवाणी ने कहा भी था, ‘मीडिया को झुकने को कहा तो वो रेंगने लगा.’

ना केवल भारतीय पत्रकार बल्कि विदेशी पत्रकारों पर भी इमरजेंसी की गाज गिरी. कुलदीप नैयर लिखते हैं कि विदेशी संवाददाताओं को उनकी खबरों के लिए गिरफ्तार तो नहीं किया जा सकता था लेकिन उन्हें देश से निकाला जाने लगा. सबसे पहले द वाशिंगटन पोस्ट के लेविस एम सिमंस थे जिन्होंने संजय गांधी एंड हिज मदर नाम से लेख लिखा था. बीबीसी के मार्क टली को भी देश छोड़ना पड़ा.

जस्टिस शाह रिपोर्ट

21 मार्च 1977 को इमरजेंसी खत्म कर चुनाव की घोषणा कर दी गई जिसके बाद पहली बार देश में गैर-कांग्रेसी जनता पार्टी की सरकार बनी. मोरारजी देसाई ने सत्ता संभालते ही मई 1977 को जस्टिस जेसी शाह के नेतृत्व में जांच आयोग का गठना किया जिसका काम आपातकाल के दौरान हुई ज्यादतियों की जांच कर रिपोर्ट सौंपना था.

लंबी जांच पड़ताल के बाद आयोग ने पाया कि आपातकाल की घोषणा से पहले किसी सरकारी रिपोर्ट में कानून व्यवस्था खराब होने की संभावना नहीं बताई गई थी. यहां तक कि गृहमंत्री ब्रह्मानंद रेड्डी को भी इसकी जानकारी नहीं थी.

शाह रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया कि राष्ट्रपति को गुमराह करके उनसे हस्ताक्षर कराए गए और सरकारी स्तर पर बार-बार झूठ प्रसारित किया गया.

(व्यक्त विचार निजी हैं)

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