तुलसीदास लिख गये हैं- पर उपदेश कुशल बहुतेरे, जे आचरहिं ते नर न घनेरे. अर्थात दूसरों को उपदेश देना आसान है, लेकिन खुद उसपर अमल करना कठिन. फिलहाल देश में विपक्ष का कुछ ऐसा ही हाल है. 22 मई को कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी की अध्यक्षता में विपक्षी दलों की वेब बैठक हुई. इसे कांग्रेस द्वारा ‘लाइक माइंडेड राजनीतिक दलों’ की एकजुटता के रूप में बताया गया. हालांकि इस बैठक से उत्तर प्रदेश के सपा और बसपा तथा दिल्ली की आम आदमी पार्टी ने दूरी बनाए रखी. यूपीए के दल ही इसमें ज्यादातर शामिल रहे.बैठक में एक साझा बयान जारी हुआ, जिसमें 11 बिंदुओं को अमल करने के लिए केंद्र की मोदी सरकार से अपील की गयी है.
साझा बयान में कहा गया है कि ‘देश के 60 फीसद लोगों का प्रतिनिधित्व ये विपक्षी दल करते हैं, इसलिए केंद्र सरकार को उनकी बात सुननी चाहिए’. वाकई यह तथ्य है कि पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की अकेली सरकार है वहीं महाराष्ट्र और झारखंड में वह सरकार की अहम सहयोगी व हिस्सेदार है. इसके अलावा बंगाल में जिस दल की सरकार है, वह दल इस बैठक में शामिल रहा. अहम सवाल यह है कि यदि वाकई इस एकजुटता के पीछे नीयत कोविड की त्रासदी से मुक्ति और जनहित की चिंता थी, तो ये सुझाव और मांग केंद्र की मोदी सरकार से ही क्यों किये गये? इस ‘लाइक माइंड पार्टीज़’ के साझा बयान में राज्य इकाईयों को किस आधार पर छूट दी गयी? कहीं यह छूट इसलिए तो नहीं दी गयी कि देश के अनेक राज्यों की सत्ता में होने की जवाबदेही से 60 फीसद जनता का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाली ये ‘लाइक माइंड पार्टीज़’ भागना चाहती हैं ?
साझा बयान के 11 बिंदुओं को पढ़कर ऐसा लगता है कि मानो भारत में ‘एकात्मक’ शासन व्यवस्था है और देश में न कोई राज्य इकाई है और न ही राज्य इकाई की सरकारें हैं. आज देश जब एक भयावह त्रासदी की स्थिति से गुज़र रहा है, वैसे में देश के 60 फीसद जनता के प्रतिनिधित्व करने का दावा वाले दलों के साझा बयान से राज्यों की जवाबदेही के लिए एक ‘शब्द’ भी नहीं फूटना आश्चर्यजनक है. ऐसा कतई नहीं है कि कोविड के खिलाफ लड़ाई में राज्यों की भूमिका इतनी भी नहीं कि उसकी इस कदर अनदेखी की जाए. इस लड़ाई में राज्यों की भूमिका को कुछ तथ्यों व आंकड़ों से समझा जा सकता है.
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25 मार्च को लॉक डाउन लागू होने के कुछ ही दिनों में केंद्र सरकार द्वारा 17,287 करोड़ रूपये राज्यों को जारी किए गये. इस कुल राशि में 6,195 करोड़ की राशि 15वे वित्त अयोग के तहत राजस्व घाटा अनुदान के रूप में केंद्र की तरफ से 14 राज्यों को दी गयी. शेष 11,092 करोड़ की राशि राज्य आपदा राहत कोष (SDRF) के तहत अग्रिम सहायता के तौर पर केरल, बंगाल, पंजाब, आंध्रा प्रदेश, उत्तराखंड सहित अन्य राज्यों को दी गयी. हाल ही में आई 20 मई की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ केंद्र सरकार द्वारा 28 राज्यों को मई महीने के उनके टैक्स हिस्सेदारी के हस्तांतरण के तौर पर 46,038 करोड़ का भुगतान किया गया है.
जानना ज़रूरी है कि कोविड आपदा के दौरान लॉकडाउन लागू होने के तुरंत बाद केंद्र सरकार द्वारा 8 करोड़ 20 लाख से अधिक लोगों को डीबीटी के तहत 2000 रूपये की राशि उनके खाते में भेजी गयी है. जनधन खाता वाले 20 करोड़ लाभार्थियों को 500 रूपये प्रति माह के हिसाब राशि उनके खाते में भेजने का ऐलान केंद्र की मोदी सरकार द्वारा किया गया, जिसकी पहली किश्त 10,025 करोड़ रूपये जारी भी हो चुके हैं. इसके अलावा केंद्र के द्वारा संसाधनों की मदद अलग-अलग स्तर पर राज्यों को लगातार की जा रही है.
अब जरा उन 11 बिंदुओं की बात करते हैं. साझा बयान के पहले बिंदु में केंद्र की मोदी सरकार से यह मांग की गयी है कि आयकर दायरे से बाहर के परिवारों को 7500 रूपये प्रतिमाह डीबीटी के तहत भेजें जाएं. यह एक पूर्ण अव्यवहारिक सुझाव है. गरीब तबके को नकदी का शुरुआती संकट न हो इसके लिए मोदी सरकार ने अलग-अलग योजनाओं के तहत पुख्ता आर्थिक सहायता की है तथा कर भी रही है. यदि कांग्रेस अथवा किसी अन्य दल को लगता है कि यह करना आर्थिक हालात के लिहाज से व्यवहारिक है तो वे उन राज्यों में इसे लागू कर सकते हैं, जहां उनकी सरकारे हैं. मसलन, पंजाब और राजस्थान – वहां इसको लागू करना चाहिए.
साझा बयान में कहा गया है कि गरीब ज़रुरतमंदों को10 किलो अनाज दिया जाए. यह कार्य राज्य अपने स्तर पर करने में सक्षम हैं. अप्रैल महीने में ही उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत ऐसा करने घोषणा की तथा मुफ्त अनाज व राशन देने का कार्य अन्य राज्यों द्वारा भी किया जा रहा है.
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इस साझा बयान का तीसरा बिंदु खुद सोनिया गांधी के वादे पर सवाल खड़ा करने वाला है. कुछ दिनों पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा था कि श्रमिकों की वापसी का किराया कांग्रेस देगी. इसपर राजनीति भी खूब हुई. लेकिन इस साझा बयान में सरकार से यह मांग की गयी है कि वे श्रमिकों तथा छात्रों की मुफ्त वापसी की व्यवस्था करे. सवाल है कि क्या कांग्रेस ने श्रमिकों का किराया देने का इरादा बदल दिया है? ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि इस साझा बयान में कांग्रेस पार्टी के तरफ से ऐसा कोई इरादा जाहिर नहीं किया गया है.
दरअसल प्रवासी मजदूरों के अपने गांव लौटने को लेकर राजनीति खूब हो रही है. उत्तर प्रदेश और बिहार सरकार के लिए यह एक बड़ी चुनौती भी है. बावजूद इसके इन सरकारों द्वारा लगातार अपने राज्य के लोगों को वापस लाने के लिए बस, रेल तथा अन्य माध्यमों का उपयोग किया जा रहा है. बेशक इन तमाम उपायों के बावजूद वापसी को आतुर श्रमिकों की बड़ी संख्या के आगे संसाधन पर्याप्त नहीं साबित हो पा रहे. परस्पर सहयोग से यदि होता तो शायद स्थिति बेहतर होती. एक तरफ हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने बिहार की नीतीश सरकार से यह कहकर श्रमिकों की वापसी का खर्चा लेने से मना कर दिया कि श्रमिक हमारे देश के नागरिक हैं. वहीं दूसरी तरफ राजस्थान की गहलोत सरकार ने यूपी की योगी सरकार से 70 बसों का किराया वसूल लिया. यह श्रमिकों की वापसी के हालात से चिंतित दिखने वाली कांग्रेस के कथनी और करनी में भारी विरोधाभाष है. एकतरफ गहलोत सरकार छात्रों को उनके घर भेजने के लिए किराया वसूल रही थी तथा दूसरी तरफ कांग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा मुफ्त बसें भेजने का पत्र लिख रही थीं.
साझा बयान में श्रम कानूनों में हुए बदलावों को वापस लेने की बात कही गयी है. सवाल है यह मांग मोदी सरकार से ही क्यों? जिस बैठक में यह साझा बयान तय हुआ, उसमें शिवसेना के संजय राउत, एनसीपी के प्रफुल्ल पटेल और कांग्रेस से खुद सोनिया गांधी मौजूद रहीं. महाराष्ट्र में इन्हीं तीनों दलों की साझा सरकार हैं. महाराष्ट्र में श्रम कानून में पहले से ढील है. वहां काम के घंटों में भी ढील दी गयी है. लिहाजा मोदी सरकार से सवाल करने की बजाय महाराष्ट्र सरकार श्रम कानूनों को ‘लाइक माइंड दलों’ की मंशा के अनुरुप बदल ले तो कौन रोक लेगा?
दरअसल कोरोना के खिलाफ लड़ाई में जब देश लड़ रहा है तब कांग्रेस और उसके सहयोगी दल आलोचना और अवरोध के नए अवसर खोजने में मशगूल हैं. इस समय महाराष्ट्र सर्वाधिक बुरे दौर में है. बजाय कि ‘लाइक माइंड दलों’ की राजनीतिक गुटबंदी करने के, अपनी जवाबदेही समझने में ये दल अधिक समय लगाते तो देशहित में इनका योगदान अधिक हो पाता. यह वक्त राजनीति से प्रेरित साझा बयान जारी करने का नहीं बल्कि साझा लड़ाई लड़ने का है.
(लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर रिसर्च फेलो हैं तथा ब्लूम्सबरी से प्रकाशित गृहमंत्री अमित शाह की राजनीतिक जीवनी ‘अमित शाह एंड द मार्च ऑफ़ बीजेपी के लेखक हैं. ये उनके निजी विचार है.)