आने वाली पीढ़ियां हमारे प्रधानमंत्रियों को कैसे याद रखेंगी? यह गंभीर ऐतिहासिक विश्लेषण का प्रश्न नहीं है, बल्कि भारत के राजनीतिक इतिहास को फिर से लिखने और उसके निर्धारण का सवाल है. यह कोई रहस्य नहीं है कि पिछले कई वर्षों से – और शायद आगे भी कई वर्षों तक – हमारे समय का सबसे प्रभावशाली ऐतिहासिक रिकॉर्ड व्हाट्सएप रहा है. और युवा लोग मैसेजिंग ऐप पर जो कुछ भी उन्होंने पढ़ा है उसे दोबारा जांचने का प्रयास भी नहीं कर सकते क्योंकि समय समय पर राजनीतिक बुद्धिमत्ता के हिसाब से पाठ्यपुस्तकों में इतिहास को दोबारा लिखा जाता रहा है.
वर्तमान में, भारतीय राजनीतिक इतिहास का आधिकारिक रूप से प्रायोजित व्हाट्सएप संस्करण कुछ इस प्रकार है:
एमके गांधी: इतना बुरा आदमी नहीं, लेकिन पाकिस्तान दे दिया तो इतना अच्छा आदमी भी नहीं.
नाथूराम गोडसे: एक सच्चा देशभक्त और बहुत बहादुर आदमी. ठीक है, हो सकता है कि वह थोड़ा बहक गया हो, लेकिन कौन नहीं बहकता है?
जवाहरलाल नेहरू: दुष्ट अंग्रेज़ों के हाथों की कठपुतली जो तथाकथित ‘जेलों’ में अपने ब्रिटिश आकाओं के साथ शैम्पेन से भरे गिलासों वाली छुट्टियों का आनंद लेता था. महान गुजराती सरदार पटेल के हाथों में भारत की सत्ता आने से रोकने के लिए किसी गोरे द्वारा उकसाया गया था.
इंदिरा गांधी: बहादुर नेता जिन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई की और हमें दिखाया कि भारत को केवल मजबूत नेता ही चला सकते हैं.
नरसिम्हा राव: हिंदू नेता जिन्होंने घृणित राजवंश के अत्यधिक प्रयासों के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था को स्थिरता प्रदान की. (हां, ठीक है, किसी सरदारजी ने भी थोड़ी मदद की होगी).
मनमोहन सिंह: प्रधानमंत्री के रूप में किसी की कठपुतली, जिसे चुप रहने को कहा गया जब भारत लुट रहा था.
सोनिया गांधी: विदेशी गोरी महिला जिसने किसानों से प्यार जताते हुए भारत को लूटने की राजवंशीय परंपरा को कायम रखा और निम्न मध्यम वर्ग की अनदेखी की, जो कि वास्तविक रूप से देश का भविष्य हैं.
मैं इस बारे में कोई टिप्पणी नहीं करता कि ये बातें कितनी वैध या हास्यास्पद हैं. लेकिन इस बात से इनकार करना मुश्किल है कि ये ऐसे विचार हैं जो सोशल मीडिया पर इतिहास के तौर पर देखे जाते हैं.
आज मेरी चिंता इन व्यंग्यचित्रों (Caricatures) के दो तत्वों को लेकर है. पहला यह कि: इन लोगों के पास अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में कहने के लिए इतना कम क्यों है जो कि मेरी नजर में हमारे सबसे अच्छे प्रधानमंत्रियों में से एक हैं? हिंदुत्व को पूरी तरह से अपनाए जाने से इनकार करने के बावजूद वे उन पर हमला नहीं कर सकते क्योंकि वह उनके अपनों में से एक थे. लेकिन वे उनकी तारीफ भी नहीं करते. (जहां तक लालकृष्ण आडवाणी की बात है, यह है: “लालकृष्ण कौन?”)
और दूसरा है: राजीव गांधी के बारे में क्या ख्याल है? उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने भारतीय इतिहास में अब तक का सबसे बड़ा चुनावी जनादेश हासिल किया. और फिर भी, भाजपा और उसके समर्थक शायद ही कभी उनसे चिंतित दिखते हों. यदि उनका ज़िक्र हुआ भी है तो केवल इस संदर्भ में कि वह भी उसी राजवंश का हिस्सा थे. उनकी अपनी उपलब्धियां और असफलताएं कम ही सामने आती हैं.
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राजीव के बारे में कांग्रेस बात नहीं करती
अजीब बात है कि यह बात कई कांग्रेस समर्थकों पर भी लागू होती है. उनसे पूछें कि राजीव की सबसे बड़ी उपलब्धियां क्या थीं तो वे सोचेंगे उनके चेहरे पर एक झुंझलाहट दिखेगी. वे बोफोर्स को लेकर थोड़े शर्मिंदा दिखेंगे और ‘आईटी क्रांति’ का जिक्र करेंगे, लेकिन उनके पास कहने के लिए और कुछ नहीं होगा. कांग्रेस की सफलताओं की उनकी कहानी 1991 के उदारीकरण से शुरू होती है और इसमें सीधे हस्तांतरण (Direct Transfer) व कल्याणकारी उपाय (Welfare Measures) शामिल हैं जो सोनिया गांधी द्वारा शुरू किए गए थे और अब उनके बाद की सरकारों द्वारा अपनाए गए हैं.
अजीब बात है लेकिन कांग्रेस में एकमात्र व्यक्ति जो भारत में राजीव गांधी के योगदान को याद करते हैं, वह हैं मणिशंकर अय्यर. राजीव के परिवार के सदस्यों के विपरीत, जो किसी रिश्तेदार/पति/पिता के बारे में डींगें हांकने से कतराते हैं, अय्यर अपेक्षाकृत (कुछ हद तक) स्वतंत्र होने का दावा कर सकते हैं. वह राजीव के पीएमओ में संयुक्त सचिव थे और जैसा कि उन्होंने अपनी नई किताब में कहा है, उन्हें राम जन्मभूमि, शाहबानो मामला, आईपीकेएफ और बोफोर्स जैसे विषयों पर कई महत्वपूर्ण चर्चाओं से बाहर रखा गया था.
अय्यर 1989 के अंत में समय से पहले सेवानिवृत्ति लेने के बाद कांग्रेस में शामिल हो गए लेकिन राजीव के साथ लंबे समय तक काम नहीं कर सके क्योंकि उनकी 1991 में हत्या हो गई थी.
अय्यर को नरसिम्हा राव ने सरकार से बाहर रखा था, जो राजीव के लोगों को (और संभवतः राजीव को भी) पसंद नहीं करते थे. इसके बाद उन्होंने वाजपेयी के दो कार्यकाल को देखा और फिर अंततः मनमोहन सिंह सरकार में मंत्री बने. लेकिन फिर भी, वह किसी अंदरूनी या कोर टीम का हिस्सा नहीं थे, और सोनिया गांधी तक उनकी कोई विशेष पहुंच नहीं थी. आज की कांग्रेस में भी उनकी कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं है.
मैंने पिछले साल अय्यर की आत्मकथा ‘मेमोयर्स ऑफ ए मेवरिक’ के लॉन्च के मौके पर मंच पर उनसे बात की थी और उनसे पूछा था कि क्या यह सच है कि उन्हें हमेशा लगता था कि सोनिया गांधी उन्हें पसंद नहीं करतीं. (सोनिया, जो पहली पंक्ति में थीं, ने इस बात से इनकार करते हुए अपना सिर हिलाया.) और दर्शक में से किसी के द्वारा राहुल गांधी पर किए गए एक सवाल के जवाब में, अय्यर ने कहा कि वह शायद ही उन्हें जानते हैं. मुझे नहीं लगता कि वहां मौजूद कोई भी कांग्रेसी उस समय सहज था जब अय्यर ने याद करते हुए बताया कि जब उन्होंने संजय गांधी के निधन के बारे में सुना था तो उन्हें कितनी राहत महसूस हुई थी क्योंकि उनके हिसाब संजय गांधी भारत के उदार लोकतंत्र के लिए खतरा थे.
तो, द राजीव आई न्यु वास्तव में गांधी परिवार के किसी नज़दीकी की किताब नहीं है. न ही, शीर्षक के बावजूद, यह वास्तव में एक संस्मरण है. अधिकांश जानकारी (जो उस समय अय्यर को नहीं पता थी) सीधे कुछ लोगों के इंटरव्यू और सावधानीपूर्वक शोध व दस्तावेजों की जांच से आती है.
जैसा कि आप कल्पना कर सकते हैं. राजीव बहुत अच्छे हैं, लेकिन अय्यर उनके कुछ कार्यों (एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में विदेश सचिव को बर्खास्त करना, तथ्यों के गलत आकलन के कारण गलत समझे माने जाने वाले आईपीकेएफ का हस्तक्षेप, आदि) की भी आलोचना करते हैं और वह कभी भी इसके ठीक से समझने का दिखावा नहीं करते हैं कि राजीव के मन में क्या चल रहा था.
फिर भी, अय्यर की किताब से जो राजीव गांधी उभरकर सामने आते हैं, वे एक राजनेता और समस्याओं का समाधान करने वाले हैं. अब हम भूल जाते हैं कि पंजाब, असम, मिजोरम और यहां तक कि पश्चिम बंगाल (दार्जिलिंग समझौते) जैसे राज्यों में राजीव ने उस आग को कैसे बुझाया जो उनकी मां ने या तो खुद लगाई थी या उन्होंने अनदेखी कर दी थी.
उदाहरण के लिए, अकाली दल के प्रमुख संत हरचंद सिंह लोंगोवाल की हत्या के कारण पंजाब में रक्तपात का चक्र फिर से शुरू हो सकता था, तब भी उन्होंने धैर्यपूर्वक बातचीत करने का विकल्प चुना. राजीव शांति बनाए रखने के लिए हमेशा बल (उनकी मां के समय के ऑपरेशन ब्लू स्टार से अलग बहुत प्रभावी ऑपरेशन ब्लैक थंडर) और बातचीत के तरीके का प्रयोग करना पसंद करते थे.
जब राजीव ने पदभार संभाला, तो इस बात की आशंकाएं थीं कि भारत एक साथ नहीं रह पाएगा. लेकिन, जब उनका कार्यकाल पूरा हुआ, तब कोई इस संभावना के बारे में सोचता भी नहीं था. और फिर भी, उन्हें उस महत्वपूर्ण उपलब्धि का श्रेय कभी नहीं मिलता.
मेरे विचार में, अय्यर की किताब राजीव की कुछ उपलब्धियों (कंप्यूटर क्रांति और दूरसंचार के परिवर्तन) पर ज्यादा प्रकाश नहीं डालती है, लेकिन अय्यर का मानना है कि अगर राजीव 1989 में सत्ता में लौट आए होते, तो उन्होंने अर्थव्यवस्था को उदार बना दिया होता.
अरुण नेहरू, अयोध्या, और अय्यर
यह पुस्तक दो चीजों को लेकर काफी दिलचस्प है, इन दोनों चीज़ों में, आश्चर्यजनक रूप से, राजीव के प्रमुख सलाहकार अरुण नेहरू शामिल हैं.
अय्यर ने बोफोर्स पर अपना शोध किया है और उन्होंने यह साबित करने के लिए सबूत पेश किए हैं कि बोफोर्स द्वारा विभिन्न संस्थाओं को किए गए भुगतान से राजीव का कोई लेना-देना नहीं था. उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि अरुण नेहरू रहस्यमय कंपनी एई सर्विसेज से जुड़े थे, जिसे बोफोर्स द्वारा कमीशन/किकबैक/वाइंडिंग-अप शुल्क का भुगतान किया गया था.
जैसा कि नेहरू को तत्कालीन बोफोर्स बॉस मार्टिन अर्दबो की डायरियों में दिखाया गया था, जिसे स्वीडिश अधिकारियों ने खोज निकाला था, एई सर्विसेज से संबंध काफी स्पष्ट था. लेकिन अय्यर दोनों के बीच संबंध को मज़बूती से दिखाने के लिए तथ्यों, तारीखों और दस्तावेजों का उपयोग करते हैं.
दूसरी है अयोध्या. हम सुनते रहते हैं कि ‘कांग्रेस ने विवादित ढांचे के ताले खोले’ लेकिन पार्टी के इस स्पष्टीकरण से हम बच गए कि यह ‘न्यायिक निर्णय’ था. अय्यर ने पूरे घटना क्रम को याद किया और स्पष्ट किया कि यह एक राजनीतिक रणनीति थी.
1949 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बाबरी मस्जिद के दरवाज़ों पर ताला लगा दिया गया था. (किसी अदालत द्वारा नहीं.) वे तब तक बंद रहे जब तक उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री (1985-88) और अरुण नेहरू के करीबी वीर बहादुर सिंह ने 1985 के अंत में अयोध्या का दौरा नहीं किया और एक प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात नहीं की जो ताले हटाना चाहता था.
फरवरी 1986 में, स्थानीय जिला सत्र अदालत ने गेट खोलने की मांग वाली एक याचिका पर सुनवाई की. वीर बहादुर को रिपोर्ट करने वाले यूपी सरकार के दोनों अधिकारियों, जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक ने अदालत को बताया कि ताले खुलने के बाद शांति-व्यवस्था को लेकर कोई दिक्कत नहीं आएगी और द्वार खुलने से कानून -व्यवस्था पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा. तब अदालत के पास द्वार खोलने का आदेश देने के अलावा कोई विकल्प नहीं था और कुछ ही मिनटों के भीतर, हिंदू भक्त वहां घुस गए और उस पर अपना दावा कर दिया.
इसलिए, यह महज न्यायिक निर्णय नहीं था जैसा कि कांग्रेस अब दावा करती है. कांग्रेस सरकार ने कपाट खोलने की व्यवस्था की. अय्यर का तर्क है कि पीएमओ में उनके सहयोगियों (जैसे वजाहत हबीबुल्लाह) का आकलन है, कि पीएम राजीव गांधी को पता नहीं था कि अयोध्या की एक जिला अदालत में एक मामले में क्या चल रहा है. जब राजीव को पता चला कि क्या हुआ था, तो अरुण नेहरू को पहले किनारे कर दिया गया और फिर बर्खास्त कर दिया गया. (नेहरू अंततः भाजपा में शामिल हो गए.)
और बाकी इतिहास है. लेकिन अगर अय्यर सही हैं तो बीजेपी को मुद्दा बनाने के लिए अरुण नेहरू को धन्यवाद देना चाहिए. दूसरी ओर, यह देखते हुए कि कोई भी लालकृष्ण आडवाणी को उसी चीज़ के लिए धन्यवाद देने को तैयार नहीं है, शायद नहीं!
मैं शुक्रवार को इन मुद्दों पर अय्यर के साथ बातचीत करूंगा और मुझे उम्मीद है कि आप दिप्रिंट के चैनलों पर हमारी बातचीत का वीडियो पा सकेंगे.
(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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