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Thursday, 5 December, 2024
होममत-विमतअगर राजीव गांधी ने अरुण नेहरू की बात मानी होती तो अयोध्या की राजनीति बहुत अलग दिखती

अगर राजीव गांधी ने अरुण नेहरू की बात मानी होती तो अयोध्या की राजनीति बहुत अलग दिखती

अरुण नेहरू ने राजीव गांधी को इंदिरा गांधी द्वारा खेले गए हिंदू कार्ड को बारीकी से जारी रखने की सलाह दी थी, ताकि मुस्लिम अलग-थलग न पड़ें.

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जब आपने 22 जनवरी को राम मंदिर के उद्घाटन से पहले टीवी पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अयोध्या में विजय यात्रा करते हुए देखा तो आपको कैसा लगा? क्या आपको लगा: “यह भगवान राम के गौरव को फिर स्थापित करने के लिए विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) की जीत है?” या क्या आपने एक के बाद एक होने वाली उन दुर्घटनाओं और अवसरवादी गणनाओं के बारे में सोचा जो हमें इस दिन तक लेकर आईं?

मैं इस बात को इसलिए पूछ रहा हूं क्योंकि मैंने निश्चित रूप से दोनों ही बातों को महसूस किया है. हां, विहिप की जीत हुई थी. और फिर भी, राम मंदिर की गाथा पिछले 50 वर्षों में तथाकथित धर्मनिरपेक्ष प्रतिष्ठान द्वारा गलत अनुमानों और गलतियों की कहानी भी है.

हमें हमेशा इसका अहसास नहीं होता है, लेकिन हिंदू धर्म को राजनीतिक रूप से संगठित करने का विचार इंदिरा गांधी के अंतिम वर्षों के दौरान कांग्रेस की रणनीति बन गया. उस समय, यह काफी आसान था. 1980 के दशक में पंजाब संकट के दौरान हिंदुओं को सिख उग्रवादियों द्वारा निशाना बनाया गया और अलगाववादियों की खुले तौर पर हिंदू विरोधी बयानबाजी से उन्हें चिंता महसूस हुई. किसी भी कठिनाई और प्रतिकूलता के समय कोई भी समुदाय अक्सर एकजुट हो जाता है और गांधी ने अपने फायदे के लिए हिंदू कार्ड खेला. उन्होंने इसे काफी बारीकी और सावधानीपूर्वक खेला ताकि मुसलमान उनसे अलग न हो. लेकिन सिखों के खिलाफ पैदा हुई बुरी भावना ने 1984 में भयानक नरसंहार में योगदान दिया.

यदि कांग्रेस इस दृष्टिकोण पर कायम रहती, तो वह चुनावी रूप से अजेय हो सकती थी. अरुण नेहरू, जो इंदिरा गांधी के सलाहकारों में से एक थे और अब राजीव गांधी-युग में उनके भी नज़दीकी बनना चाहते थे, ने इस नीति को जारी रखने की सलाह दी. अरुण नेहरू का मानना था कि कांग्रेस पहले से ही भारत की सबसे बड़ी पार्टी है और यदि यह हिन्दू बहुसंख्यकों की भी पार्टी बन जाती है तो उसे कोई हरा नहीं पाएगा.

लेकिन उनकी बात को तरजीह नहीं दी गई क्योंकि राजीव गांधी धार्मिक राजनीति में विश्वास नहीं करते थे और उन्होंने उनकी सलाह मानने से इनकार कर दिया. वास्तव में, शाह बानो मामले जैसे मुद्दों पर, जहां राजीव और नेहरू असहमत थे, कांग्रेस ने वास्तव में हिंदू वोट खो दिए होंगे.

लेकिन अरुण नेहरू ने राजीव गांधी से परामर्श किए बिना भी हिंदू मुद्दों को आगे बढ़ाने में फायदा देखा. हम कभी निश्चित रूप से नहीं कह सकते लेकिन सारे सबूत बताते हैं कि अरुण नेहरू ने ही अयोध्या में राम मंदिर/बाबरी मस्जिद के ताले खुलवाए थे.

उस समय, उत्तर प्रदेश के बाहर बहुत ही कम लोगों ने बाबरी मस्जिद के मुद्दे या दशकों पहले शुरू हुए ढांचे पर विवाद के बारे में सुना था. लेकिन अरुण को उम्मीद थी कि वह ‘नरम’ हिंदू समर्थक रुख अपनाकर इसे हिंदी बेल्ट में वोट-विजेता बना देंगे. दुर्भाग्य से, अन्य मुद्दों पर राजीव से उनकी अनबन हो गई और इस रणनीति को लागू करने से पहले ही उन्हें बर्खास्त कर दिया गया.

जब कांग्रेस का यह नाटक चल रहा था, तब भाजपा, जिसकी उस वक्त लोकसभा में मात्र दो सीटें ही थीं, हिंदू भावनाओं को संगठित करने के लिए मुद्दों की तलाश में थी. इसलिए जब राजीव गांधी राम जन्मभूमि मुद्दे को आगे बढ़ाने में अनिच्छुक दिखे, तो लालकृष्ण आडवाणी ने इसे लपक लिया.


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एक मुद्दे का जन्म, और बीजेपी

हालांकि, आडवाणी की अपील उस उग्र हिंदुत्व वाली भावना से भरी नहीं थी जो हम आज देखते हैं. इसके बजाय, उन्होंने हिंदुओं को पीड़ित के रूप में चित्रित किया. उन्होंने कहा कि कांग्रेस मुसलमानों को खुश करने के लिए बहुत कुछ कर रही है, जबकि हिंदूओं के हितों को नजरअंदाज़ कर रही है.

उदाहरण के लिए, उसी स्थान को लीजिए जहां भगवान राम का जन्म हुआ था. यह हिंदू धर्म के सबसे पवित्र स्थानों में से एक है. लेकिन बाबर ने उस स्थान पर एक भव्य हिंदू मंदिर को नष्ट कर दिया और वहां एक मस्जिद का निर्माण करवा दिया. स्थल को लेकर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच कानूनी विवाद के कारण, बाबरी मस्जिद अब एक ऐसी मस्जिद बन गई है जहां दशकों से नमाज नहीं पढ़ी गई.

मुसलमान मस्जिद को किसी नजदीकी स्थान पर स्थानांतरित करने पर सहमत क्यों नहीं हो सके? आडवाणी ने तर्क दिया कि यदि मस्जिदें सड़कों या नए निर्माण कार्य के रास्ते में आती हैं, तो उन्हें हर समय स्थानांतरित कर दिया जाता है, उदाहरण के लिए, पाकिस्तान में. तो ये कोई बड़ी बात नहीं है. उन्होंने घोषणा की, “हम उन्हें ईंट दर ईंट आगे बढ़ाने में मदद करेंगे.” और फिर, हम उस स्थान पर अपना मंदिर बनाएंगे.

यह सब ऐतिहासिक रूप से विवादास्पद और संदिग्ध था. क्या कोई ऐतिहासिक भगवान राम थे? क्या उनकी अयोध्या आज की अयोध्या जैसी ही थी? क्या उसका जन्म सचमुच इसी स्थान पर हुआ था? क्या बाबर ने वास्तव में एक भव्य हिंदू मंदिर को नष्ट कर दिया था? क्या तथाकथित बाबरी मस्जिद सचमुच बाबर ने बनवाई थी?

इनमें से कुछ भी स्पष्ट नहीं था.

लेकिन आडवाणी ने इतिहास को नजरअंदाज करते हुए भावनाओं पर फोकस किया. उन्होंने तर्क दिया, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इतिहासकार क्या कहते हैं. यदि लाखों हिंदुओं का मानना ​​है कि भगवान राम का जन्म इसी स्थान पर हुआ था, तो हमें उनकी आस्था और विश्वास का सम्मान करना चाहिए, न कि उन पर संदेह करना चाहिए. उन्होंने कहा कि इस स्थान का मुसलमानों के लिए कोई महत्व नहीं है. वे हिंदू भावनाओं का सम्मान करते हुए अपनी मस्जिद को थोड़ा और दूर ले जाने पर सहमत क्यों नहीं हो सके?

इस स्तर पर (1988/89) दो चीजें हो सकती थीं. एक: सरकार मुसलमानों को अपने साथ ले सकती थी, बाबरी मस्जिद को थोड़ा और दूर स्थानांतरित कर सकती थी ताकि नमाज फिर से शुरू हो सके और फिर नए मंदिर के निर्माण को एक विशाल राष्ट्रीय कार्य में बदल सकती थी. यदि मंदिर निर्माण एक राष्ट्रीय प्रयास बन गया होता तो आडवाणी और विहिप को किनारे करना आसान होता. मुस्लिम उदारवादी इस परियोजना में शामिल हो सकते थे. हिंदू बाबरी मस्जिद को फिर से खोलने में मदद कर सकते थे. उस समय यूपी में कांग्रेस सत्ता में थी और अयोध्या के कई साधु कांग्रेस समर्थक थे. यह धर्मनिरपेक्ष एकता दिखाने का बेहतरीन अवसर था.

दूसरा: वे आडवाणी को सांप्रदायिक कह सकते थे और मस्जिद/मंदिर मुद्दे पर निर्णय टालने की कोशिश कर सकते थे.

अंदाजा लगाइए कि उन्होंने कौन सा विकल्प चुना?

उस समय के मिज़ाज को देखते हुए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी. पहले दृष्टिकोण की वकालत करने के लिए मुझे खुद को भी सांप्रदायिक कहा गया और जिस भी मुस्लिम नेता से मैंने उस वक्त बात की वह इस विचार को लेकर दृढ़ थे: हम मस्जिद को उसकी जगह से एक इंच भी नहीं हटाएंगे. कोई भी मेरी इस बात से सहमत नहीं था कि मस्जिद/मंदिर ही एकमात्र महत्वपूर्ण चीज़ नहीं है.

अधिक चिंता की बात थी कांग्रेस को आडवाणी द्वारा उस हिंदू वोट-बैंक को अपने पाले में करने देने की इच्छा थी जिसे कभी इंदिरा गांधी ने अपनी तरफ लुभाने की कोशिश की थी. एक बार जब आपने भाजपा को राजनीतिक हिंदुत्व को हथियार बनाने की अनुमति दे दी, तो यह नहीं कहा जा सकता कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता का क्या होगा, जो – आइए इसका सामना करते हैं – हमेशा हिंदू बहुमत के समर्थन पर निर्भर रही है.

मैं इस मुद्दे पर अरुण नेहरू-लालकृष्ण आडवाणी के दृष्टिकोण से कभी सहमत नहीं था, जो धार्मिक भावनाओं का अपने लाभ के लिए निंदनीय तरीके से प्रयोग करना था. लेकिन साथ ही, मुझे लगा कि कांग्रेस की प्रतिक्रिया बिना सोचे-समझे, अदूरदर्शितापूर्ण और अनावश्यक रूप से ज़िद से भरी थी.

एक बार जब कांग्रेस ने भाजपा को हिंदुओं के लिए बोलने वाली एकमात्र पार्टी के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि बनाने की छूट दे दी, तो यह नहीं कहा जा सकता था कि आखिरकार क्या होगा. अपनी पार्टी के अन्य लोगों की तुलना में, आडवाणी वास्तव में एक उदारवादी थे.


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क्या होता अगर कांग्रेस ने…

इतिहास में कई “क्या होता अगर” हैं लेकिन मुझे लगता है कि यह एक महत्वपूर्ण मोड़ था. बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी और विभिन्न मुस्लिम नेताओं ने देश के मूड को गलत समझा. कांग्रेस ने एक अवसर गंवा दिया और उस बिंदु से, भाजपा एक संघर्षशील पार्टी से कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने वाली पार्टी तक का सफर तय करने में सफल रही.

मान लीजिए कि मस्जिद को स्थानांतरित करने के लिए कांग्रेस ने एक राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व किया होता. तो क्या इसकी वजह से मुस्लिम वोटों का नुकसान हुआ होता, जैसा कि राजीव को बताया गया था? हां, संभवतः, थोड़े समय के लिए. लेकिन राष्ट्रीय पार्टियां ऐसे मुद्दों पर अल्पकालिक दृष्टिकोण अपनाने का जोखिम नहीं उठा सकतीं. और कांग्रेस के पास इतना प्रचंड बहुमत था कि वह जोखिम उठा सकती थी.

क्या आडवाणी ने भारत में हर मस्जिद को उखाड़ने के लिए कहा होता क्योंकि उस स्थान पर कभी मंदिर था? राम जन्मभूमि की मांग को नजरअंदाज़ करने का यही बहाना दिया गया था. संभवतः, लेकिन यदि संघ परिवार नए मंदिर निर्माण के राष्ट्रीय आंदोलन में हाशिये पर चला गया होता, तो ऐसी मांगों को इतना समर्थन नहीं मिलता. इसके अलावा ये मांगें अब भी की जा रही हैं.

उस बिंदु से, कांग्रेस लड़ाई हार गई थी. इससे कोई मदद नहीं मिली जब नरसिम्हा राव, जिनका खुद का भी दृष्टिकोण शायद अरुण नेहरू जैसा था, उन्होंने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त होने दिया और भयानक मुंबई दंगों के दौरान सोते रहे.

अब कांग्रेस खुद को एक विचित्र और विरोधाभासी स्थिति में पाती है जहां मुसलमानों का मानना है कि उसने उन्हें धोखा दिया है और कई हिंदू इसे हिंदू विरोधी मानते हैं.

जब प्रधानमंत्री 22 जनवरी को मंदिर के उद्घाटन के लिए अयोध्या लौटेंगे, तो वह इस कार्यक्रम का अधिकतम लाभ उठाएंगे. लेकिन अब उन्हें भी पता होना चाहिए कि राम मंदिर एक और युग का प्रतीक है – जब आप हिंदुओं को बता सकते थे कि उनके ही देश में उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है. उस संदेश की आज कोई गूंज नहीं है; यह मंदिर हिंदू विजयवाद का एक और प्रतीक है.

लेकिन भाजपा अपने इतिहास से बेचारे आडवाणी को जितना बाहर करने की कोशिश करती है, मंदिर हमें याद दिलाता है कि आडवाणी और अयोध्या मुद्दे के बिना, भाजपा का कोई पुनरुत्थान नहीं होता और संभवतः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी नहीं होते.

यह भगवान राम के जन्म के साथ शुरू हुए गौरवशाली युग का प्रतीक हो भी सकता है और नहीं भी. लेकिन यह निश्चित रूप से भाजपा के पुनर्जन्म का प्रतीक है.

(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार व टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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