दिल्ली में बीते 3-4 दिन से यमुना नदी खतरे के निशान से ऊपर बह रही है. इससे पहले 9 जून 1978 को यमुना नदी का जल स्तर 207.49 दर्ज किया गया था, लेकिन बुधवार को यमुना का जल स्तर बढ़ कर 207.81 मीटर हो गया. नदी के डूब क्षेत्र के आसपास रहने वाले हज़ारों लोगों के सामने बाढ़ का खतरा मंडरा रहा है. दिल्ली जिसे यमुना ब्रिज या लोहे का पुल कहती है उसने ना जाने कितनी बार यमुना के पानी को अपने से स्पर्श करते हुए देखा है.
हरियाणा के हथिनीकुंड बैराज से बुधवार शाम को और अधिक पानी छोड़ा गया. दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने इसे आपात की स्थिति बताया है.
दिल्ली इस पुल को प्यार करती है. न जाने दिल्ली की कितनी पीढ़ियों की यादें इससे जुड़ी हैं, जिन्होंने इसके आर-पार रेल या फिर नीचे बस, कार, स्कूटर, टांगों या फिर किसी अन्य वाहन पर सफर किया है. रेलवे की भाषा में इस पुल का नंबर 249 है.
बेशक, एक समय में दिल्ली के सबसे बुलंद लैंडमार्क में से एक माने जाने वाले पुल के ठीक बगल में रेलवे ने नये पुल का निर्माण शुरू किया है. उम्मीद है कि नया पुल कुछ समय के बाद यातायात के लिए खोल दिया जाएगा.
लोहे के पुल ने दिल्ली को कई बार बनते-बदलते हुए देखा. नए पुल के शुरू होने के बाद हम कह सकते हैं कि लोहे का पुल अब ‘आराम’ करेगा, लेकिन यह फिलहाल दूर की कौड़ी जैसा प्रतीत होता है. पुराने पुल ने 150 सालों से भी अधिक समय तक दिल्ली की सेवा की है.
जब रेल इसके ऊपर से गुज़रती है, तब जिस तरह की आवाजें आती हैं, वो कहीं न कहीं डराती हैं. रेल के गुज़रते समय कईं मुसाफिर नीचे नदी में सिक्के गिरा रहे होते हैं.
90 के दशक के दौरान जब ये लोहे का पुल दिल्ली की गिनी-चुनी ऊंची इमारतों की तरह शान से खड़ा था और पूर्वी दिल्ली के मकान एक समान छतों वाले हुआ करते थे, यहां के एक निवासी बृजकिशोर शर्मा बताते हैं कि इससे उनकी बहुत सारी यादें जुड़ी हुई हैं.
शर्मा बताते हैं, ‘‘शाम के 5-6 बजे के आसपास ट्रेन जब लोहे के पुल से गुज़रती थी, तो शाहदरा में हम तुरंत खेल के मैदान छोड़कर किताबों में रम जाया करते थे, क्योंकि उस ट्रेन की आवाज़ का संकेत पापा के आने की दस्तक देता था.’’
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लोहे के पुल का निर्माण
लगभग 850 मीटर लंबे इस ब्रिज को हेरिटेज पुल का दर्जा प्राप्त है. इसका निर्माण 1863 में चालू हुआ था और यह 1866 में बनकर तैयार हो गया था. जिस समय पुल बन रहा था उससे ठीक 5 साल पहले मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फर को कैद करके रंगून भेज दिया गया था.
पुल शुरू में सिंगल लाइन था. इसे 1933 में डबल लाइन किया गया था. तो आप कह सकते हैं कि इसे डबल लाइन किए हुए भी 80 साल बीत चुके हैं. यमुना नदी पर बना लोहे के पुल 12 विशाल स्तंभों पर खड़ा रहा. जब देश के अलग-अलग हिस्सों से पुलों के गिरने की खबरें आना अब सामान्य बात हो गई हों तब हमारा लोहे का पुल चट्टान की तरह खड़ा है. इसके ऊपर से गुज़रते हुए उन तमाम अनाम इंजीनियरों और मजदूरों को दिल से धन्यवाद करने का मन करता है जिन्होंने इसे बनाने में योगदान दिया होगा.
यमुना नदी के एक ओर पूर्वी दिल्ली और दूसरी ओर बसी पुरानी दिल्ली को आपस में जोड़ने के लिए रेलवे के लिए कोलकाता की ब्रेल वाइट एंड कंपनी इंडिया लिमिटेड ने इसका निर्माण किया था. रेलवे बोर्ड के पूर्व अधिकारी डॉ. रविंद्र कुमार बताते हैं कि इस पुल में लगी लोहे के गार्डरों को प्री-कास्ट कर इंग्लैंड से लाकर यहां जोड़ कर पुल बनाया गया था. इसके निर्माण में लगभग सवा 16 लाख रुपये की कुल लागत आई थी. आज के समय में इतने पैसे में दिल्ली में एक कमरे का घर या मिलना मुश्किल है.
दिल्ली में यमुना ब्रिज के बनने से पहले कोलकाता और लाहौर से यहां आने वाले लोग नदी के मार्ग से पहुंचते थे. कल्पना कीजिए उस दौर की दिल्ली की. तब तक यमुनापार में शाहदरा और कुछ गांव आबाद थे, पर उस समय यमुनापार की आबादी कुछ हज़ारों में ही रही होगी.
दिल्ली कांग्रेस के नेता राम बाबू शर्मा कहते थे कि उनका परिवार शाहदरा में गुज़रे तीन सौ सालों से है. इसके साथ ही, ये भी ध्यान रखा जाए कि ब्रिटेन में ट्यूब रेल सेवा 1860 के आसपास चालू हो गई थी. हमारी दिल्ली में मेट्रो रेल 2003 में आई थी.
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‘हम भी यमुनापार, तुम भी यमुनापार’
जब तक आईटीओ पर पुल नहीं बना था, लोहे का पुल यमुनापार में रहने वालों के लिए बाकी दिल्ली से जुड़ने का एकमात्र रास्ता था. 1976 में इस ब्रिज के बनने के बाद यमुनापार में रहने वालों की ज़िंदगी में थोड़ा सुकून आया. उस दौर में शाहदरा से बस नंबर 11 कौड़िया पुल और 13सी मद्रास होटल (अब शिवाजी स्टेडियम) के लिए चलती थी. ये सभी बसें लोहे के पुल को पार करके ही आती-जाती थीं. 215, 216 और 317 जैसे यमुनापार को बाकी दिल्ली से जोड़ने वाले रूट तो 1970 के दशक के अंत में चालू हुए. हालांकि, तब यमुना ब्रिज पर पंटून पुल भी हुआ करता था. पर उस पर भारी वाहन जैसे बसें और ट्रक नहीं चल सकते थे. लंबे समय तक कृष्णा नगर के पास राधेपुरी में रहे संजय वधावन को याद है जब उनके एरिया से लोग कनॉट प्लेस, चांदनी चौक और दूसरे इलाकों में जाने के लिए टांगे और फटफटिया लिया करते थे.
आपको अब भी यमुनापार में बहुत से लोग मिल जाएंगे जो यमुना ब्रिज को पार करके गुरुद्वारा सीसगंज भोर में पैदल ही खास अवसरों पर जाते थे. यह सब गुरुबाणी का पाठ करते हुए यमुना ब्रिज को पार करते हुए आगे बढ़ते थे. दिल्ली सिख गुरुद्वारा कमेटी के मेंबर सरदार बलबीर सिंह विवेक विहार भी कई बार अपने माता-पिता और पड़ोसियों के साथ विवेक विहार से गुरुपूरब पर सीसगंज गुरुद्वारा पैदल गए. इन्हें गांधी नगर, झील, कृष्णा नगर से कुछ और लोग भी लोग मिल जाया करते. वापसी बसों, तांगों, फटफटिया वगैरह से होती थी. इसके अलावा यमुना बाज़ार में स्थित मरघट वाले हनुमान मंदिर जाने के लिए भी लोग लोहे वाले पुल के जरिए पैदल आज भी जाया करते हैं.
हालांकि, एक बात जो अब आम लोगों में प्रचलित है कि यमुनापार के दोनों तरफ रहने वाले लोग इसे यमुनापार ही कह कर बुलाते हैं. उदाहरण के लिए शाहदरा वालों के लिए यमुनापार शब्द इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन आईटीओ के दूसरी तरफ रहने वाले लोगों के लिए शाहदरा के निवासी यमुनापार शब्द उपयोग में लाते हैं.
अगर बात यमुना ब्रिज की शुरू हुई तो राजधानी के कुछ दूसरे पुराने ब्रिज की भी बात करनी होगा. हर बार तेज़ बारिश में मिंटो ब्रिज भी डूब जाता है. इसके नीचे कारें-बसें डूब जाती हैं. इसका नाम भारत में 1905-1910 के बीच वायसराय रहे लॉर्ड मिंटो के नाम पर रखा गया था. हालांकि, कागज़ों पर मिंटो ब्रिज का नाम शिवाजी ब्रिज हुए एक अरसा गुज़र चुका है, पर ये अब भी कहलाता मिंटो ब्रिज ही है. ये निश्चित रूप से पुरानी दिल्ली को नई दिल्ली से जोड़ने वाले पहले पुलों में से एक है.
अगर बात लुथियन ब्रिज की करें तो इसका कमोबेश मूल स्वरूप बरकरार है. ये 1867 में बना था. इसका नाम एक गोरे अंग्रेज़ कर्नल सर जॉन कॉर लुथियन के नाम पर रखा गया था. वो ब्रिटेन की इंजीनियरिंग सेवा में थे. लुथियन ब्रिज के ठीक पीछे लुथियन कब्रिस्तान है. उधर कई गोरे चिरनिद्रा में हैं. लुथियन ब्रिज से कुछ ही फांसले पर कौड़िया पुल स्थित है.
इस बीच, बादशाह जहांगीर ने भी दिल्ली में एक पुल का निर्माण करवाया था. आप जब बारापुला से अपनी मंजिल की तरफ आते-जाते हैं तो पुल के नीचे एक ब्रिज के अवशेष मिलते हैं. कहने को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा इसे राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया गया है, पर ये अब सही से दिखाई भी नहीं देता. इस ब्रिज की हालत काफी खस्ता है. ये 200 मीटर लंबा ब्रिज 11 महराबों पर खड़ा है. इतिहासकारों का कहना है कि आगरा से आने वाले मुगल इसी का इस्तेमाल करते हुए निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह पर सज़दा करने पहुंचा करते थे.
(विवेक शुक्ला वरिष्ठ पत्रकार और Gandhi’s Delhi के लेखक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @VivekShukla108 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)
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