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Friday, 3 May, 2024
होममत-विमतराज्यपाल VS मुख्यमंत्री विवाद ने फिर असंभव को संभव कर दिखाया — सीपीआई (एम) और BJP को एकजुट कर दिया

राज्यपाल VS मुख्यमंत्री विवाद ने फिर असंभव को संभव कर दिखाया — सीपीआई (एम) और BJP को एकजुट कर दिया

यह सुनिश्चित करने के लिए कि राज्य के कानून संविधान के ढांचे के भीतर आते हैं, राज्यपाल को ‘विवेकाधीन शक्तियां’ दी जाती हैं, इसे अक्सर एक राजनीतिक टूल की तरह इस्तेमाल किया जाता है.

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भारत की आज़ादी के बाद के इतिहास में राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के बीच विवाद एक सामान्य घटना रही है. एकमात्र अपवाद भारत की आज़ादी के पहले दशक में था जब केवल नौ राज्यपाल थे — न्यायविद फज़ल अली, मुहम्मद सालेह अकबर हैदरी, केएन काटजू, स्वतंत्रता सेनानी जयरामदास दौलतराम, श्री प्रकाश, सरोजिनी नायडू, प्रशासक गिरिजा शंकर बाजपेयी, सीएम त्रिवेदी और वीपी मेनन.

भले ही कई आयोगों ने यह रेखांकित किया है कि दोनों के बीच एक आदर्श संबंध क्या होना चाहिए, लेकिन झगड़ा बदस्तूर जारी है. खासकर तब जब मुख्यमंत्री उस पार्टी से न हो जो केंद्र में शासन कर रही है.

संघर्ष का कारण

आइए हम राज्यपालों की भूमिका पर संविधान सभा में हुई बहस की पड़ताल करते हैं. कुछ तेज़ दिमाग वाले लोग इन चर्चाओं का हिस्सा थे — जिनमें पीएस देशमुख, टीटी कृष्णामाचारी, एचवी कामथ, एचएन कुंजरू, अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर, रोहिणी कुमार चौधरी, शिब्बन लाल सक्सेना, दुर्गाबाई देशमुख, केएम मुंशी और बीआर आंबेडकर शामिल थे.

आम सहमति यह थी कि संवैधानिक योजना में संघ, समवर्ती और राज्य सूचियों के तहत विषयों के स्पष्ट सीमांकन के साथ, राज्य वास्तव में अपने क्षेत्र में संप्रभु थे. अनुसूचित क्षेत्रों में दी गई विशेष जिम्मेदारियों के अलावा, राज्यपालों को निर्वाचित मुख्यमंत्रियों की सलाह का पालन करना पड़ता था.

आंबेडकर ने कहा, “मेरे मन में कोई संदेह नहीं है कि विवेकाधीन शक्ति किसी भी तरह से जिम्मेदार सरकार का निषेध नहीं है. यह राज्यपाल को किसी भी मामले में अपने मंत्रियों की सलाह की अवहेलना करने की शक्ति देने वाला कोई सामान्य खंड नहीं है, जिसमें उन्हें लगता है कि उन्हें अवहेलना करनी चाहिए.”

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हालांकि, शायद पहले दशक में संघर्ष की अनुपस्थिति का अधिक महत्वपूर्ण कारण केवल उन लोगों की प्रतिष्ठा नहीं थी जो इन पदों पर थे, बल्कि प्रधानमंत्री नेहरू और कांग्रेस पार्टी का भारतीय राजनीति पर पूर्ण प्रभाव भी था. जैसे ही कांग्रेस की पकड़ कमज़ोर हुई, केंद्र सरकार ने राज्यपालों पर बैक-सीट ड्राइविंग में शामिल होने के लिए दबाव डाला, जिससे अनिवार्य रूप से संदिग्ध मिसालें पैदा हुईं.

इस तरह का पहला टकराव 1959 में हुआ था जब तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी के दबाव में केंद्र की नेहरू सरकार ने केरल में कम्युनिस्ट नेतृत्व वाली ईएमएस नंबूदरीपाद सरकार को बर्खास्त कर दिया था.

तब से केंद्र ने अपनी राज्यपालीय आज्ञा का प्रयोग करते हुए विभिन्न राज्य सरकारों को बर्खास्त किया है. पश्चिम बंगाल के राज्यपाल धर्म वीरा ने 1967 में अजॉय मुखर्जी सरकार को बर्खास्त किया था और कांग्रेस समर्थित पीसी घोष के नेतृत्व में सरकार बनाई. 1984 में आंध्र प्रदेश के राज्यपाल राम लाल द्वारा एनटी रामाराव की सरकार को बर्खास्त करना इस बात का एक सबसे बड़ा उदाहरण था कि कैसे राज्यपाल की निष्पक्षता से पूरी तरह समझौता किया गया था. 1989 में जब पी. वेंकटसुब्बैया ने कर्नाटक में एसआर बोम्मई सरकार को बर्खास्त कर दिया तो यह अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया.

इसके परिणामस्वरूप 1994 में सुप्रीम कोर्ट का बोम्मई जजमेंट आया, जिसमें केंद्र में जिस पार्टी का नेतृत्व नहीं था, उन राज्यों का नियंत्रण लेने के लिए अनुच्छेद 356 के लगातार उपयोग के खिलाफ चेतावनी दी गई थी.

फैसले में बड़े पैमाने पर प्रशासनिक सुधार आयोग 1968, राजमन्नार समिति 1969, राज्यपाल समिति 1971, विशेषज्ञों की बैंगलोर संगोष्ठी 1983 और सरकारिया आयोग 1988 की रिपोर्टों का हवाला दिया गया. राज्यपाल की भूमिका का उपयुक्त वर्णन किया गया है – ‘‘यह देखने के लिए कि सरकार बने, न कि सरकार बनाने की कोशिश करने के लिए.’’

इन रिपोर्टों में इस बात पर प्रकाश डाला गया कि कैसे एक राज्यपाल जिसे केंद्र का एजेंट माना जाता है, भारतीय संघवाद को विकृत करेगा और हमारे लोकतंत्र को नष्ट कर देगा. उनकी सभी सिफारिशें राज्यपाल को ‘‘राज्य के संवैधानिक तंत्र की धुरी’’ बनाने की दिशा में थीं.

बोम्मई फैसले ने राष्ट्रपति शासन की घटनाओं को काफी हद तक कम कर दिया. 1971 से 1990 तक ऐसे 63 उदाहरण थे. अगले दो दशकों में ऐसा केवल 27 बार हुआ.


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वर्तमान स्थिति

2011 के बाद से राष्ट्रपति शासन की आवृत्ति और अवधि कम हो गई है – इसे 2013 में झारखंड, 2014 में आंध्र प्रदेश, 2015 में दिल्ली, 2016 में उत्तराखंड और जम्मू और कश्मीर, 2019 में महाराष्ट्र और 2021 में पुडुचेरी में लगाया गया था. राज्यपाल सीधे तौर पर मुख्यमंत्रियों को बर्खास्त नहीं कर रहे हैं, वे उन लोगों को व्यापक छूट देते हैं जो केंद्र में सत्तारूढ़ दल के साथ जुड़े हुए हैं. जो लोग ऐसा नहीं करते हैं, उनके लिए राज्यपाल अक्सर किसी विधेयक पर सहमति रोक लेते हैं और यहां तक कि उन्हें राष्ट्रपति के विचार के लिए लंबित भी कर देते हैं. हालांकि, यह ‘विवेकाधीन शक्ति’ यह सुनिश्चित करने के लिए दी गई थी कि राज्य के कानून संविधान के ढांचे के भीतर आते हैं, इसे अक्सर एक राजनीतिक टूल की तरह इस्तेमाल किया जाता है.

आज की स्थिति में गैर-भाजपाई दलों द्वारा शासित राज्यों में कई राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के बीच खींचतान चल रही है – केरल में आरिफ मोहम्मद खान और पिनाराई विजयन, तमिलनाडु में आर एन रवि और एमके स्टालिन, राजस्थान में कलराज मिश्रा और अशोक गहलोत, पंजाब में बनवारी लाल पुरोहित और भगवंत मान, दिल्ली में विनय कुमार सक्सेना और अरविंद केजरीवाल, पश्चिम बंगाल में टीके बोस और ममता बनर्जी. वे राज्य के नेतृत्व वाले विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति, राज्य विधानसभा में पारित विधेयकों पर सहमति रोकना, सदन में बहुमत साबित करने के लिए शक्ति परीक्षण करवाना, बिजली नियामक और राज्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति, विधानसभा में अभिभाषण के तरीके से लेकर कई मुद्दों पर आमने-सामने हैं.

महाराष्ट्र के पूर्व राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी भी कई मुद्दों पर पिछली उद्धव ठाकरे सरकार से विवादों में रह चुके हैं.

दिलचस्प बात यह है कि बिना किसी अपवाद के राजनीतिक दल जब विपक्ष में होते हैं और जब सत्ता में होते हैं तो अलग-अलग विचार रखते हैं. भाजपा को राज्य विधायी प्रक्रिया में केंद्र का हस्तक्षेप इतना पसंद नहीं आया कि 1988 के सरकारिया आयोग को अपने प्रस्ताव में पार्टी ने सुझाव दिया कि समवर्ती सूची में किसी भी बात पर विधेयक पारित करने से पहले राज्यों से परामर्श किया जाना चाहिए.

1980 के दशक के उत्तरार्ध में वामपंथियों और दक्षिणपंथियों के एक दुर्लभ राजनीतिक सहयोग में — सीपीआई (एम) और भाजपा दोनों ने सुझाव दिया कि राज्यपालों की नियुक्ति राज्य विधायिका द्वारा चुने गए पैनल के जरिए की जानी चाहिए और अंतर-राज्य परिषद को इसकी नियुक्तियां करनी चाहिए. प्रस्ताव को तत्कालीन सत्तारूढ़ व्यवस्था द्वारा सरसरी तौर पर खारिज कर दिया गया था.

जैसा कि फ्रांसीसी कहेंगे – plus, ça change, plus c’est la même chose यानी कि जितना अधिक चीज़ें बदलती हैं, उतना ही वे समान होती हैं.

(संजीव चोपड़ा पूर्व आईएएस अधिकारी और वैली ऑफ वर्ड्स के फेस्टिवल डायरेक्टर हैं. हाल तक वे लाल बहादुर शास्त्री नेशनल एकेडमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन के डारेक्टर थे. उनका ट्विटर हैंडल @ChopraSanjeev. है. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


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