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Friday, 20 December, 2024
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बिहार में मछुआरों का दर्द समझे बिना नीली क्रांति सफल नहीं हो सकती, ये बस चुनावी वादा भर है

बिहार और बंगाल के भरोसे एक लाख करोड़ रूपए की मछली निर्यात करने का सपना देखने वालों को यह जानना ही चाहिए कि बिहार और बंगाल के पास अपनी घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए ही मछली नहीं है.

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गंगा तट पर 118 घाट बना देना नदी सफाई का पर्याय नहीं हो सकता. वैसे ही मछुआरों के मुद्दे को समझे बिना नीली क्रांति की योजना महज चुनावी घोषणा बन कर रह जाएगी. सपने देखना बुरा नहीं है लेकिन कुछ साधारण तथ्यों को सपनों के साथ रख लिया जाए तो दूरी का अंदाजा लग जाता है. जैसे बिहार और बंगाल के भरोसे एक लाख करोड़ रुपए की मछली निर्यात करने का सपना देखने वालों को यह जानना ही चाहिए कि बिहार और बंगाल के पास अपनी घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए ही मछली नहीं है. एक आम बंगाली की थाली में मछली की सप्लाई आंध्र प्रदेश से होती है. बंगाल ही क्यों नार्थ–ईस्ट की मछली की जरूरतों को भी आंध्र प्रदेश पूरा करता है.

लंबे समय तक मछलियों को ताजा रखने के लिए व्यापारी गैरकानूनी रूप से फॉर्मोलिन का उपयोग करते हैं. फॉर्मोलिन का उपयोग शवगृह में डेडबॉडी को गलने से बचाने के लिए उपयोग में लाया जाता है और इसे मछली में डालने से कैंसर जैसी कई घातक बिमारियां हो सकती हैं.


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सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि इस चुनावी राज्य में मत्स्य उत्पादन इतना क्यों गिर गया? इस गिरावट को जानने के लिए नीली क्रांति के सपने से निकल कर एक काले-अंधेरे गलियारे में झांकना होगा. 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम सैकड़ों लिखित-अलिखित घटनाओं का साक्षी रहा है. पूरे देश की तरह उत्तरी बिहार में भी ईस्ट इंडिया कंपनी आंदोलन को दबाने के लिए दमन पर उतारू थी. दियारा इलाके में कंपनी के सिपाही क्रांतिकारियों को पकड़ने आते थे तब उन्हे नावों की जरूरत पड़ती थी. केवट सिपाहियों को नाव में बिठाता, फिर गंगा-सरयू की उफनती धारा के बीच जाकर उसकी नाव डगमगाने लगती. नदी की बीच धारा में सिपाहियों की वर्दी, बंदूक और गाली तीनों काम न आते क्योंकि उनकी जिंदगी खेवनहार के हाथों में होती थी. ठीक उसी समय तैराकी का उस्ताद मल्लाह नाव से कूद जाता और तैरकर किनारे लग जाता लेकिन नाव को तो खुद से तैरना नहीं आता और न ही सिपाही इतने पेशेवर तैराक होते कि चढ़ी हुई नदी में खुद को बचा सकें. नदी के बीच अंग्रेज सिपाहियों की नाव डुबाने वाली एक नहीं कई घटनाएं हैं, कुछ को शोध पत्रों में जगह मिली, कुछ को लोक चर्चा में.

इन घटनाओं ने इस प्राचीन वर्ग निषाद को अंग्रेजों की नजर में जरायम बना दिया और सरकार ने इन्हे अपराधी जनजाति सूची में डाल कर सभी अधिकारों ने वंचित कर दिया. आजाद भारत की सरकारों में भी उन्हे इस सूची से निकलने के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी थी. 1952 के बाद जातियों को अपराधी मानने वाला कानून तो बदला गया लेकिन समाज और व्यवस्था में अपने हक के लिए उन्हे कभी न खत्म होने वाली लंबी लड़ाई लड़नी पड़ रही है.

बानगी देखिए– मुगलकाल में शुरू की गई जलकर जमींदारी प्रथा आजाद भारत में अपना स्वरूप बदलकर आज भी जारी है. सुल्तानगंज से पीरपैंथी के बीच गंगा और सहायक नदियों पर जमींदारों का कब्जा था यानी मछुआरों को मछली पकड़ने के लिए टैक्स चुकाना पड़ता था. जब मछुआरों ने एकजुट होकर इसका विरोध किया तब विद्रोह से डरकर जमींदारों ने ट्रस्ट बनाया और जमींदारी भगवान के नाम कर दी. यानी 20 साल पहले तक भी मछुआरों से भगवान शिव, भैरव बाबा या दूसरे स्थानीय देवताओं के नाम से कर वसूला जाता था. इस लूट में जमींदारों के साथ जेपी आंदोलन से निकले नेता भी शामिल थे. विरोध बढ़ा तो 1988 में बिहार विधानसभा ने एक प्रस्ताव पास कर जल संसाधनों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर दिया लेकिन वसूली से फिर भी मछुआरों को मुक्ति नहीं मिली.


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राजनीति के इस खेल में लालू प्रसाद यादव के आने बाद तस्वीर बदल गई. अपनी आत्मकथा में लालू ने दावा किया है कि उन्होने जल एस्टेट को कब्जे से मुक्त करा लिया लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू दयनीय था. उन्होने मछली पकड़ने को सबके लिए फ्री कर दिया. यह सोची-समझी रणनीति थी. फ्री होने के बाद गंगा- सरयू में यादवों और दूसरे दबंगों ने अपनी बड़ी नाव उतार दी और नदियों में अपना–अपना हिस्सा बांट लिया. मजबूरन मछुआरे अपने पेशे का उपयोग दबंगों की नाव में नौकरी करते हुए करने लगे. जो भी व्यक्तिगत तौर पर व्यवसाय के लिए मछली पकड़ता उसे दबंगों के कहर का शिकार होना पड़ता. उसकी मछली छीन ली जाती और नाव धारा के बीच बहा दी जाती. रात को नाव खोल लेने और उसे दियारा में जाकर गड़ा देना आम बात थी.

नदी-नाले ही नहीं कोल-ढाबों को भी जलकर मुक्त किया गया था लेकिन उसे सिर्फ निषादों के लिए नहीं रखा गया, सहकारिता बनाकर उसका दिखावा जरूर किया गया. चौर का गणित समझिए– खेत का वह हिस्सा जो डूब में आता है और जहां बारिश के बाद काफी दिन तक पानी जमा रहता है उसे चौर कहते हैं. परंपरागत तौर पर इस चौर में मछली पकड़ने का हक मछुआरों का था लेकिन अब दबंगों का इस पर कब्जा रहता है. या फिर भूमि मालिक इसे अपनी शर्तों पर बेचता है, वैसे ही जैसे बगीचों का ठेका दिया जाता है. नीली क्रांति शिल्पकारों ने चौर, कोल, ढाबों पर क्या विचार किया है यह भी सामने आना चाहिए.

एक चट जाल होता है. मच्छरदानी की तरह बारीक यह जाल भी ज्यादातर नीले रंग का ही होता है. वसूली के दबाव में मछुआरे इस जाल को गंगा में डालते हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा मछलियां पकड़ सकें और जाने अनजाने मछली और पौना (मछली का बेहद छोटा बच्चा) भी पकड़ लेते हैं. मछली निकाल लेते हैं जाल की सफाई में पौना मर जाता है, दिखाई भी नहीं देता. जाने अनजाने ये लोग गंगा की इकोलॉजी के साथ अपने भविष्य को भी अंधेरे में डाल देते हैं. चट जाल उन प्रमुख कारणों में से है जिन्होंने गंगा को मछली विहीन कर दिया है.

बिहार चुनाव के मद्देनजर नीली क्रांति लाने की बात हो रही है लेकिन गंगा में कितनी जगह डेड जोन विकसित हो रहे हैं. इसकी जानकारी सरकार के किसी भी विभाग के पास नहीं है. डेड जोन उस इलाके को कहते हैं जहां ऑक्सीजन की मात्रा कम होती है और वहां मछलियों की जिद्दी प्रजातियां गाद में भी सर्वाइव कर लेने वाली मछलियां भी पनप नहीं पा रही हैं. दिल्ली की यमुना, कानपुर की गंगा की तरह कई डेड जोन बिहार की गंगा में बढ़ रहे हैं. इन डेड जोन की पहचान कर इन्हें बचाने की कोशिश की जानी चाहिए. उत्तरी बिहार में दलदली भूमि एक मत्स्य क्रांति के लिहाज से एक बड़ी संपत्ति साबित हो सकती है. और इसमें कई मछुआरा नौजवानों को रोजगार मिल सकता है. नीली क्रांति के भारी-भरकम बजट 20 हजार करोड़ का एक छोटा हिस्सा भी यदि दलदली भूमि में मछली पालन के लिए नौजवानों को दिया जाए तो तस्वीर बदल सकती है.

इन सरल और सहज कोशिशों के बजाय बड़ी योजनाओं पर ध्यान दिया जा रहा है. भारतीय मांगुर की तरह दिखने वाली अफ्रीकन कैटफिश को बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए लाने की कोशिश की जा रही है. यह कैटफिश तेजी से बढ़ती है और इसकी फर्टिलिटी भी गंगा की मछलियों से काफी ज्यादा है. कैटफिश एक सेनापति मछली मानी जाती है और दूसरी प्रजातियों को तेजी से खाती है. अभी कई जगहों पर तालाब में लोग इसे पाल रहे हैं लेकिन यदि इसे गंगा में भारी मात्रा में डाला गया तो गंगा की यूनिक स्पीसिज पूरी तरह खत्म हो जाएंगी.

नीली क्रांति तभी सफल होगी जब राज्य और केंद्र सरकारें उन मछुआरों के बारे में सोचेंगी जो महानगरों में रिक्शा चला रहे हैं या सब्जी बेच रहे हैं. ये वे लोग है जिनके पास नदी के व्यवहार को समझने की समझ है. नदी का व्यवहार तेजी से बदल रहा है और उसे समझने वाले लोग खत्म होते जा रहे हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह लेख उनके निजी विचार हैं)


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