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Friday, 3 May, 2024
होममत-विमतसरकार के पसंदीदा उपाय- बांध और तटबंध फेल हो चुके, अब बाढ़ से तालाब और पोखर ही बचा सकते हैं

सरकार के पसंदीदा उपाय- बांध और तटबंध फेल हो चुके, अब बाढ़ से तालाब और पोखर ही बचा सकते हैं

केंद्रीय जल आयोग ने जून के पहले हफ्ते में एक डाटा के अनुसार देश के 123 बांधों या जलग्रहण क्षेत्रों में पिछले 10 सालों के औसत का 165 फीसद पानी संग्रहित है.

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दाग अच्छे है और बाढ़ भी अच्छी है, जब आती है काफी कुछ धो जाती है. हर साल तस्वीर वही होती है बस आंकड़े बदल जाते हैं. आंकड़े मतलब मुआवजा कितना मिला या फसल कितनी खराब हो गई या फिर अर्थव्यवस्था को कितना नुकसान हुआ और मरे कितने. इस मरे कितने का मतलब कितने इंसान मरने से है कितनी गृहस्थी मर गई इसकी गणना नहीं की जाती है. की भी नहीं जा सकती, अब मिट्टी के चुल्हे और हामिद के चिमटे को पीछे छोड़ समाज और देश दोनों ही आगे बढ़ चुके हैं. प्रधानमंत्री ने हामिद को याद कर जनता को संदेश दिया था कि देश अब उज्ज्वला के दौर में पहुंच चुका है.

खैर जैसा कि अंदेशा था, देश के बड़े हिस्से में बाढ़ आ चुकी है. मुआवजा पिछले साल के मुकाबले तकरीबन दोगुना मिल रहा है. बिहार में चुनाव है. असम और बिहार में बाढ़ नियंत्रण के लिए केंद्र के अलावा विदेशों से भी सहायता मिल रही है. अकेले असम को ही केंद्र सरकार ने पहली किश्त के रूप में 346 करोड़ रुपए जारी किए.

ऐसा नहीं कि इस मुआवजे के लिए ही बाबू लोग खुश हो रहे हैं. बानगी देखिए – बिहार में बारिश के ठीक पहले गंगा का कटाव रोकने के लिए बोल्डर डाले जाते हैं. तरीका यह है कि लोहे के जाल में बोल्डर (पत्थर) बांध कर तट पर लटकाते हैं या फिर गेबियन किया जाता है. गेबियन प्लास्टिकनुमा रस्सी को कहते हैं जिसमें प्लास्टिक के बैग को बांधा जाता है, हर बैग में 126 किलो सफेद बालू होती है. सफेद बालू में चिकनी मिट्टी के साथ चिपकने की क्षमता होती है और यह गंगा तट पर नहीं मिलती.

अब कटान रोकने के इस काम का टेंडर होते–होते बारिश शुरू हो जाती है और उसके बाद इस बात का ऑडिट कर पाना असंभव है कि कितने बोल्डर डाले गए या कितने बैग बालू डाली गई क्योंकि सब बाढ़ में बह जाता है. सुशासन की सरकार पता नहीं क्यों इस काम को जनवरी–फरवरी में पूरा नहीं कर पाती. ठीक इसी तरह जैसे बाढ़ के समय में कोई यह सवाल नहीं उठाता कि संकल्प पर्व में रोपे गए पौधों का क्या हो रहा है. करोड़ों की संख्या में रोपने का दावा था अब जब नदी पथ के पौधे ही बह गए तो गिनती कौन करे और कैसे करे?


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गाजीपुर से आगे बलिया, तालकेश्वर, लालगंज, मांझी रोड, गुदरी, छपरा, सोनपुर, हाजीपुर, पूर्णिया, कटिहार, मनिहारी और मानिक चौक के सैकड़ों गांवों में लोगों की कहानी और दिनचर्या कमोबेश एक ही है. हर कोई कटान में आ रहा. यही हाल दिल्ली में यमुना का और कमोबेश देश की हर नदी का होता जा रहा है. गाद भराव के चलते नदी समतल हो गई है और पहली बारिश होते ही पानी चौड़ाई में सड़कों और कॉलोनियों की तरफ फैलता है और जनता त्राहिमाम करने लगती है.

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हेलीकाफ्टर में बैठकर वॉटर टूरिज्म करते माननीय जानते है कि बाढ़ अपने साथ क्या–क्या लाई है. नदी गाद से पट गई है, यानी वाटरवेज के लिए अब तक हुआ डिसिल्टिंग बेकार हो गया. कोई नहीं जानता कितना डिसिल्टिंग हुआ था. बाढ़ उतरने के बाद एक बार फिर डिसिल्टिंग का कार्य शुरू होगा. साफ माथे का समाज लिखने वाले पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र ने गाद को वरदान कहा था लेकिन सरकारी बाबूओं ने बेतरतीब तटबंध बनाकर गाद को ही खेतों में जाने से रोक दिया और नदी की गहराई कम करती गाद को अपने लिए वरदान बना लिया.

पानी को रोकने की इस भोलीभाली कोशिश में शहर तो और भी दो कदम आगे हैं. बारिश का पानी निकलने के रास्ते पर अवैध कॉलोनियां बन गई जिन्हे वोट की ताकत ने वैध बना दिया. पिछले साल पटना में आई बाढ़ ने शहर को डूबो दिया था, तब यह खबर आई कि पटना म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन के पास शहर के सीवेज का नक्शा ही नहीं है और सच्चाई यह है कि यह नक्शा आज भी उनके पास नहीं है क्योंकि पिछली बाढ़ उतरने के बाद से नक्शा बनाने या पानी निकासी व्यवस्था की कोई कोशिश ही नहीं की गई. कोई आश्चर्य नहीं कि पटना में फिर पिछली तस्वीरें तैरने लगे.

असम की ओर चलते हैं. काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान बाढ़ नियंत्रण फंड का स्विस बैंक हैं. आप कभी नहीं जान पाएंगे कि कितना पैसा कहां चला गया. अब तक 10 गैंडों समेत 110 जानवरों की मौत की आधिकारिक घोषणा हुई है. बाढ़ का समय काजीरंगा में लापता जानवरों की गिनती दुरुस्त करने का समय भी होता है. असम के 26 जिलों के 35 लाख लोग बूरी तरह बाढ़ से प्रभावित हैं. यह आंकड़ा अतिरंजित नहीं है केंद्रीय जल आयोग की एक रिपोर्ट कहती है कि देश में हर साल औसतन 26 लाख लोग बाढ़ का कहर झेलते हैं.

यह कहना ठीक नहीं कि असम की यह नियति ही है. वास्तम में असम में हर साल और कई बार साल में दो बार आने वाली बाढ़ का सीधा संबंध नीयत से भी है. गुवाहाटी की टोपोग्राफी एक कटोरे की तरह है जिसका मतलब है शहर का बीचो बीच वाला इलाका जल भराव वाला है और यहां से थोड़ा गहरा स्थान लेते हुए पानी निकासी की व्यवस्था की जानी चाहिए लेकिन इसके उलट यहां अतिक्रमण है. वेटलैंड एरिया में बेतरतीब बने घर हर साल खुद की ऊपरी मंजिल को बचाने में जुटे रहते हैं.

असम या यूपी-बिहार में बाढ़ तकरीबन हर साल आती है. 1980 में राष्ट्रीय बाढ़ आयोग ने अनुमान लगाया था कि 21वीं सदी के शुरुआती दशक तक चार करोड़ हेक्टेयर भूमि बाढ़ का शिकार हो जाएगी. इसे रोकने के लिए बड़ी संख्या में बहुउद्देश्यीय बांध और 35 हजार किमी. तटबंध बनाए गए. परिणाम यह हुआ कि आयोग के अनुमान से हजार हेक्टेयर ज्यादा यानी पांच करोड़ हेक्टेयर भूमि आज बाढ़ प्रभावित है.

बाढ़ रूपी इस कैश क्रॉप को काटने के लिए बीज भी सरकारें ही लगाती हैं. इसे यूं समझिए- केंद्रीय जल आयोग ने जून के पहले हफ्ते में एक डाटा जारी कर बताया कि देश के 123 बांधों या जलग्रहण क्षेत्रों में पिछले 10 सालों के औसत का 165 फीसद पानी संग्रहित है और पिछले साल की तुलना में यह 170 फीसद है. इसका मतलब है कि इन बांधों में पर्याप्त से भी ज्यादा पानी का भंडारण था. ये 123 बांध वे हैं जिनका प्रबंधन और संरक्षण केंद्रीय जल आयोग करता है और इन बांधों में देश की कुल भंडारण क्षमता का 66 फीसद पानी जमा होता है.

उस समय जरूरत होने पर भी इन बांधों से पानी नहीं छोड़ा गया और बरसात होते ही जब बांध ओवरफ्लो होने लगे तो गेट खोल दिए गए. नतीजा यह हुआ कि पहले से उफनती नदी में बहाव बेहद तेज हो गया और पानी गांव और शहरों में घुस गया.


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जब ओड़िसा के तट पर अम्फान और आलिया जैसे तूफान आने से पहले जान-माल की रक्षा की सफल कोशिशें की जा सकती है तो नदी तट पर रहने वालों की सुरक्षा के इंतजाम क्यों नहीं किए जाते, जबकि यह सर्वविदित है कि इन इलाकों में बाढ़ आती ही है.

साफ है कि बाढ़ नियंत्रण के सरकारी पसंदीदा दो उपाय– बांध और तटबंध फेल हो चुके हैं. अब प्राचीन भारत के उपाय तालाब और पोखर ही बाढ़ के कहर से बचा सकते हैं. बस समस्या यह है कि तालाब और पोखर बनाने में करोड़ो रुपए खर्च नहीं होते इसलिए यह उपाय बाबुओं को समझ नहीं आते.

जमीन का कंक्राटाइजेशन पानी को जमीन के भीतर नहीं जाने दे रहा, सड़कों पर बहना उसकी मजबूरी है. सरकारी कारिंदे अपनी फसल काटने में व्यस्त हैं, विस्थापन की नई तस्वीरें सोशल मीडिया पर जगह बना रही हैं. आप उन्हें लाइक कीजिए और चाय– पकौड़ों के साथ मानसून का मजा लिजिए.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह लेख उनके निजी विचार हैं)

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