भारत में जो कुछ होता रहता है उसे समझ पाना कभी आसान नहीं होता, क्योंकि परस्पर विरोधी खबरें भी चलती रहती हैं. एक खबर यह है कि भारतीय व्यवसाय जगत अल्पाधिकारवादी होता जा रहा है क्योंकि अधिकतर सेक्टरों पर बाजार के बड़े खिलाड़ियों का शिकंजा कसता जा रहा है, जिसके चलते आर्थिक केंद्रीकरण होता जा रहा है.
स्टील हो या सीमेंट, विमानन हो या ऑटोमोबील, टेलिकॉम हो या बैंकिंग, संगठित खुदरा बाजार हो या मीडिया, बंदरगाह हो या हवाई अड्डा, छोटे खिलाड़ियों को या तो खरीदा जा रहा है (खुदरा बाजार में फ्यूचर और मेट्रो, हवाई अड्डों में जीवीके, बंदरगाह में कृष्णपटनम); या वे दिवालिया हो रहे हैं (किंगफिशर, जेट एअर, विमानन में गो फर्स्ट), या हाशिये पर सिमट रहे हैं (कई सरकारी बैंक, टेलिकॉम सेक्टर में वीआइ), या बाजार से विदा ही ले रहे हैं (फोर्ड और जनरल मोटर्स).
इसके साथ ही, मार्सेलस का डाटा विश्लेषण बताता है कि कॉर्पोरेट इंडिया के मुनाफे का 46 फीसदी हिस्सा केवल 20 कंपनियां बटोर लेती हैं. यही नहीं, टॉप 20 कंपनियों में एक दशक के बाद दूसरे दशक में कोई खास बदलाव नहीं आता, ड्रॉप-आउट के मामले ज़्यादातर सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में होते हैं. केवल टॉप निजी कंपनियों को लें, तो उनमें 15 ऐसी हैं जो सबसे ज्यादा मुनाफा कमाती रही हैं और परिभाषा के अनुसार, दो दशकों (2002-22) से अपना वर्चस्व बढ़ाती रही हैं.
टॉप स्तर पर स्थिरता पिछले दशकों में नहीं देखी गई. 1992-2002 वाले दशक में कॉर्पोरेट इंडिया में बेशक काफी मंथन हुआ क्योंकि आर्थिक सुधारों के कारण व्यवसाय के कार्य वातावरण में बदलाव आया. अब टॉप स्तर पर नई स्थिरता बताती है कि व्यवसाय कम प्रतिस्पर्द्धी या कम परिवर्तनशील हो गया है, ताकि मंथन वाले दशक में जो विजेता थे वे बाद में जमे-जमाए खिलाड़ी बन गए.
इस निष्कर्ष के साथ यह भी बताना चाहिए कि टॉप 20 में केवल सूचीबद्ध फ़र्में हैं, जबकि महत्वपूर्ण होते जा रहे कई व्यवसाय, ज़्यादातर विदेशी स्वामित्व वाले, गैर-सूचीबद्ध – जैसे हुंडे और कोका कोला, सैमसंग और बॉश; हालांकि इनमें से कई कंपनियां बाजार में अब जम गई हैं.
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इस प्रवृत्ति के विपरीत की कहानी यह है कि हाल के वर्षों में शेयर बाजार में सर्वश्रेष्ठ लाभ ‘लार्ज-कैप’ वाले शेयरों से नहीं ‘मिड-कैप’ और ‘स्माल-कैप’ वाली कंपनियों से मिला , जिनमें से अधिकांश को नाम से तुरंत नहीं जाना जाता.
यह खत्म होते संवत वर्ष और औसतन पिछले पांच वर्षों के लिए भी सच है. वास्तव में, मार्सेलस के आंकड़े बताते हैं कि पिछले दशक में टॉप 20 ने शेयरधारकों को पिछले दशक के मुक़ाबले कम लाभांश दिए, संयुक्त वार्षिक औसत के रूप में शेयरधारकों को 2002-12 वाले दशक में 26 फीसदी का लाभ मिला था जो अगले दशक में घटकर 15 फीसदी हो गया. यह बड़ी कंपनियों के वर्चस्व की कहानी से मेल नहीं खाता.
इसकी सरल व्याख्या यह हो सकती है कि 2012-22 वाले दशक में अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर सुस्त रही, इसलिए शेयरधारकों का लाभ घटा. और सुस्त वृद्धि के कारण वातावरण छोटे खिलाड़ियों के लिए कठिन हो गया. लेकिन यह इस तथ्य से कैसे मेल खाता है कि शेयरधारकों के लिए छोटी कंपनियां बड़ी से ज्यादा लाभदायक रहीं? जैसा कि होता है, स्माल और मिड कैप सेक्टरों के लिए जिंदगी आसान हो गई क्योंकि कई अप्रत्यक्ष करों की जगह जीएसटी आ गई, डिजिटल भुगतान शुरू हुआ, नकदी उधार में वृद्धि के कारण वित्त तक पहुंच आसान हुई, संगठित खुदरा कारोबार के विकास ने बाजार में पैठना आसान किया, बेहतर लॉजिस्टिक्स ने क्षेत्रीय खिलाड़ियों को विस्तार का मौका दिया.
एक दृश्य यह हो सकता है कि कई बड़ी कंपनियों ने ऐसे निवेश किए जिनका नतीजा अच्छा नहीं मिला. नतीजतन, ‘दोहरी बैलेंसशीट’ ने उनके कारोबारी नतीजों को प्रभावित किया. कई तो दिवालिया हुईं और उन्हें बड़े खिलाड़ियों ने सस्ते में खरीद लिया जिससे उनका बाजार मजबूत हुआ. इस अवधि में, कॉर्पोरेट मुनाफा जीडीपी के लिहाज से गिर गया, लेकिन वे सुधर रहे हैं और वास्तव में उनकी बिक्री वृद्धि दर को पीछे छोड़ रही है.
जीडीपी में मुनाफे का अनुपात अभी 2008 वाले स्तर को नहीं छू सका है. तब और अब की आर्थिक रफ्तार के मद्देनजर इसे समझा जा सकता है. लेकिन नकदी बैंक में हो और उधर का स्तर नीचा हो तब बड़े खिलाड़ी आगामी दशक में बाजार पर अपना दबदबा बढ़ा सकते हैं, जिसे संतुलन की दरकार है.
बहरहाल, उपलब्ध सबूत के मद्देनजर ऐसा नहीं लगता कि छोटी कंपनियां बुरा प्रदर्शन करेंगी. व्यापक कॉर्पोरेट सेक्टर में अभी जीवंतता कायम है.
(बिजनेस स्टैंडर्ड से स्पेशल अरेंजमेंट द्वारा. व्यक्त विचार निजी हैं)
(संपादन: अलमिना खातून )
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