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Saturday, 4 May, 2024
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भारतीय जासूस बनने की क्या होती है कीमत, रॉ के ब्लैक टाइगर रवींद्र कौशिक के साथ क्या बीता

रॉ एजेंट रवींद्र कौशिक पाकिस्तानी सेना में घुसपैठ करने में सफल रहे थे लेकिन भारत ने अब तक उनके प्रयासों को स्वीकारा तक नहीं है.

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गेहूं के खेतों में घूमता दुश्मन का कोई गश्ती दल वहां तक न पहुंच पाए, इसलिए तीनों सशस्त्र सेनाओं की गहन निगरानी वाली सीमा सुरक्षा बल की चौकी के मात्र कुछ ही मीटर की दूरी पर एक खुले शौचालय को एक तमिल भाषी खुफिया अधिकारी ने अपने मिशन का ठिकाना बना रखा था. फिर उस रात जैसे ही चांद निकला, उसने उस एजेंट से हाथ मिलाया जिसे उसने पाकिस्तान में अंडरकवर रहने के लिए प्रशिक्षित किया था और उसे मिशन की सफलता की शुभकामनाएं देते हुए विदा किया. जैसे ही उस व्यक्ति की छाया दूर अंधेरे में गायब हुई, वह वापस अमृतसर की ओर चल पड़ा, इस उम्मीद के साथ कि रॉ स्टेशन की हांफती-कांपती जीप कहीं बीच रास्ते में ही खराब न हो.

दक्षिण एशिया में जासूसी की महागाथाएं बनी तमाम कहानियां धूल, डीजल के धुएं और भिनभिन करती मक्खियों के इर्द-गिर्द घूमती हैं. ये उन जांबाजों की कहानियां भी हैं जिन्हें बाद में सत्ता में आई सरकारों ने मान्यता नहीं दी और इस तरह उन्हें पाकिस्तानी जेलों में मरने के लिए छोड़ दिया गया.

रॉ के प्रसिद्ध ब्लैक टाइगर और नवंबर 1975 की उस रात सीमा पार भेजे गए रविंद्र कौशिश, जिनकी पाकिस्तान की मियांवाली जेल में मृत्यु हुई थी, आज अगर जिंदा होते तो 71 वर्ष के हो गए होते. कौशिक की कहानी पर न केवल किताबें लिखी गईं, बल्कि इसने एक फिल्म के लिए भी प्रेरित किया.

हालांकि, इस बारे में निष्पक्ष लेखा-जोखा बहुत कम मिलता है कि प्रोजेक्ट एक्स यानी लंबे समय से पाकिस्तान में रह रहे अपने एजेंटों की पाक सेना में घुसपैठ कराने की रॉ की बेहद गोपनीय योजना में शामिल जासूसों को आखिर क्या मिला और उन्हें इसकी क्या कीमत चुकानी पड़ी. प्रोजेक्ट एक्स को रॉ ने 20 साल पहले बंद कर दिया गया था, क्योंकि इसकी संपत्तियां और सैन्य-खुफिया मिशन विमान और उपग्रहों पर सेंसर की वजह से बेमानी हो गए थे. उन एजेंटों के लिए कोई स्मारक भी नहीं बनाया गया है, जिन्होंने इसके लिए अपनी जान तक न्योछावर कर दी.

कैसे तैयार होते हैं एक जासूस

वैसे तो कौशिक ने राजस्थान के श्रीगंगानगर स्थित सेठ जीएल बिहानी एसडी पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज में अकाउंटिंग की डिग्री हासिल की थी लेकिन उनकी थिएटर में भी खास रुचि थी. भारतीय वायु सेना में सेवाएं देने वाले एक नागरिक के बेटे कौशिक को युद्ध से जुड़ी कहानियों बहुत ज्यादा पसंद आती थीं. श्रीगंगानगर तस्करों की काली-सफेद दुनिया का एक केंद्रों में से एक था, जो इंटेलिजेंस ब्यूरो और सैन्य खुफिया सेवा के लिए अंशकालिक जासूसों के रूप में भी काम करते थे, और कौशिक ने निश्चित तौर पर ही उनकी कहानियां सुनी होंगी.

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हालांकि मामले से जुड़ी फाइलों को सार्वजनिक नहीं किया गया है, लेकिन इस बारे में जानकारी रखने वाले रॉ अधिकारी कहते हैं कि 1952 में जन्मा यह छात्र श्री गंगानगर स्टेशन पर एजेंसी के अधिकारियों के संपर्क में आया और स्वेच्छा से अपनी सेवाएं देने के लिए तैयार हुआ.

1973 में भर्ती होने के बाद उन्हें दो साल की कड़ी ट्रेनिंग दी गई. प्रोजेक्ट एक्स के रंगरूटों को तैयार करने वाले अधिकारियों ने दिप्रिंट को बताया कि कौशिक को अन्य चीजों के अलावा उर्दू पढ़ाई गई और इस्लामी धार्मिक प्रथाएं सिखाई गईं. उनका खतना भी किया गया. उन्हें सिखाया गया था कि फिक्शन—खुफिया अधिकारी अंडर कवर पहचान के लिए यह शब्द उपयोग करते हैं—को कैसे कायम रखना है और कैसे निगरानी व्यवस्था की पकड़ में आने से बचे रहना है.

इतिहासकार हामिश टेलफोर्ड हमें बताते हैं, 1975 के बाद से पंजाब में राजनीति और भी अधिक अस्थिर हो गई थी. अकाली राजनीतिक समूहों ने आपातकाल के खिलाफ बगावत कर दी थी, और विद्रोह समर्थक सिख उपदेशक जरनैल सिंह भिंडरावाले ने अपनी ताकत बढ़ा ली थी.

ऐसा माना जा रहा था कि 1977 में तख्तापलट के बाद सत्ता संभालने वाले जनरल मुहम्मद जिया-उल-हक इस सारी अराजक स्थिति का फायदा उठाएंगे और भारत को उनकी तरफ से युद्ध छेड़े जाने की आशंका भी थी.

ऐसे में प्रोजेक्ट एक्स भारतीय खुफिया तंत्र का एक प्रमुख हथियार बना, जिसे पाकिस्तानी सैन्य जमावड़े के शुरुआती संकेतों का पता लगाने के उद्देश्य से तैयार किया गया था.


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तैयार की गई जबर्दस्त स्क्रिप्ट

रॉ के अधिकारी बताते हैं कि 1975 के शुरू में कौशिक को जन्म प्रमाणपत्र और दसवीं कक्षा के मैट्रिकुलेशन प्रमाणपत्र के साथ तमाम दस्तावेज मुहैया कराए गए, जिसमें उनकी पहचान इस्लामाबाद निवासी नबी अहमद शाकिर के रूप में की गई. अधिकारियों ने कहा कि एजेंट ने सोचा कि उसे पाकिस्तानी सेना की अधिकारी-भर्ती परीक्षाओं के लिए आवेदन करना चाहिए. हालांकि, उनके इस विचार को रॉ के अधिकारियों ने खारिज कर दिया क्योंकि दस्तावेजों के सत्यापन के दौरान उनकी पहचान छिप पाना मुश्किल था. और फिर इस कॉलेज स्नातक ने पाकिस्तानी सेना में एक लिपिक की नौकरी के लिए आवेदन किया और वहां अपनी जगह सुरक्षित भी कर ली.

इस कार्यालय से गुजरने वाली सारी सामग्री एजेंसी के लिए सोने की खदान की तरह थी. पाकिस्तान की सैन्य लेखा सेवा में अपने पद की वजह से कौशिक सैन्य इकाइयों की गतिविधियों, प्रमुख अधिकारियों की पोस्टिंग और यहां तक कि युद्धक सामग्री के साथ ट्रेनों की आवाजाही के बारे में भी रिपोर्ट करने में सक्षम थे.

एक वरिष्ठ रॉ अधिकारी बताते हैं कि पाकिस्तान में मौजूद अन्य एजेंटों की तरह कौशिक भी खुफिया जानकारी वापस भेजने के लिए डाक प्रणाली पर निर्भर थे, जिसमें अदृश्य स्याही में अपनी जानकारी लंबे समय तक रिकॉर्ड करना और फिर इन कागजों को कुवैत या दुबई में पते पर भेजना शामिल था. अधिकारी कहते हैं, ‘वे आज की तरह फटाफट सुविधा वाले दिन नहीं थे और कौशिक की तरफ से भेजी गई जानकारी का महीने-डेढ़ महीने बाद यहां पहुंचना एक सामान्य बात थी.

1990 के दशक के मध्य में रॉ ने कौशिक की जिन फाइलों की समीक्षा की—जो अब भी इसकी प्रशिक्षण अकादमी में पढ़ाई जाती हैं, उनमें भी इस बात का कोई ठोस साक्ष्य नहीं मिलता है कि पाकिस्तानी काउंटर-इंटेलिजेंस ने उन्हें कैसे पहचाना. इस प्रकरण से जुड़ी जानकारी रखने वाले एक अधिकारी ने बताया कि एक पहलू यह भी सामने आया कि 1983 में रॉ एजेंट इनायत मसीह को पाक में गिरफ्तार कर लिया गया था, जिसे एक छोटे से ब्रेक के लिए कौशिक को घर लाने के मिशन के तहत के वहां भेजा गया था.

कौशिक ने अपने विभाग के एक सैनिक की बेटी अमानत नबी से शादी की थी और उसका एक बच्चा भी था. कुछ रॉ अधिकारियों का दावा है कि जासूस के जीवन में रिश्तेदारों का न होना पाकिस्तानी काउंटर-इंटेलिजेंस को एजेंट पर निगरानी शुरू करने के लिए प्रेरित कर सकती है. कौशिक को 1985 में मौत की सजा सुनाई गई थी, जिसे बाद में उम्रकैद में बदल दिया गया. एजेंट की 2001 में बीमारी की वजह से मियांवाली जेल में मौत हो गई थी.

पत्रकार दलीप सिंह ने बताया, भले ही कौशिक के परिवार ने उनकी वापसी के लिए प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के समक्ष लगातार पैरवी की हो लेकिन नई दिल्ली ने यह स्वीकार करने से इनकार कर दिया कि वह एक जासूस थे. उनके भाई आरएन कौशिक ने कहा, ‘हमें पैसा नहीं चाहिए, हमें सरकार से यही चाहते हैं कि उन्हें मान्यता मिले.’

विश्वासघात के किस्से

अगर कौशिक का परिवार सफल होता तो उनका जीवन कैसा होता, यह कोई नहीं बता सकता. 1983 से 1988 के बीच, सीमापार स्थित कैंटोनमेंट इलाकों में लोगों की गतिविधियों पर नजर रख कई जासूसी अभियानों को अंजाम देने वाले करामत राही को 18 साल की जेल की सजा काटने के बाद गुरदासपुर में चाय बेचकर गुजर-बसर करनी पड़ी. 2016 में अपने निधन से पहले राही ने लंबी असफल कानूनी लड़ाई लड़ी.

पूर्व सैन्य खुफिया एजेंट सुरजीत सिंह, जो बताते हैं कि उन्होंने सीमापार दर्जनों जासूसी अभियानों को अंजाम दिया, 1981 में गिरफ्तार होने के बाद तीस साल जेल में गुजारे. पत्रकार गीता पांडे के मुताबिक, इस अ‍वधि में सुरजीत सिंह के परिवार को महज 150 रुपये प्रति माह पेंशन मिली.

रॉ एजेंट रूप लाल सहरिया ने 2001 में स्वदेश भेजे जाने से पहले पाकिस्तान में 26 साल जेल में बिताए. सहरिया को वतन वापसी पर एक पेट्रोल पंप देने का वादा किया गया था, लेकिन इसे पाने के लिए उन्हें अदालतों के चक्कर काटने पड़े. पूछताछ के दौरान मिली यातना के कारण अपाहिज हो चुके सहरिया को भारत में अपना परिवार भी गंवाना पड़ा, क्योंकि उनकी पत्नी ने दूसरी शादी कर ली थी.

बाद में रोजी-रोटी कमाने के लिए कोलकाता की एक सड़क पर लकड़ी के हस्तशिल्प बेचने को मजबूर हुए पाकिस्तानी फौज के पूर्व जवान महबूब इलाही शम्सी को इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) ने उस समय भर्ती किया था, जब वह अपने रिश्तेदारों से मिलने भारत आया था. अगस्त 1980 में, शम्सी को पाकिस्तान में उम्रकैद की सजा सुनाई गई, और 1996 में बाड़मेर में सीमा के पास हुई कैदियों की अदला-बदली के तहत उसे चुपके से सीमापार भेज दिया गया. इस बार शम्सी को एक भारतीय जेल में कैद रखा गया, वो भी तब तक, जब तक उसकी असल कहानी सामने नहीं आई.

कोट लखपत जेल में शम्सी जिन भारतीय कैदियों के साथ रहा, उनमें सरबजीत सिंह भी शामिल था, जिसकी 2013 में जेल में हुई झड़प के दौरान हत्या कर दी गई थी. आरोप था कि सरबजीत खालिस्तान आतंकवाद के विरोध में पाकिस्तान में किए गए बम धमाकों में शामिल था. हालांकि, यह आरोप कभी सिद्ध नहीं हुआ. रॉ के पूर्व अधिकारी बी रमन ने 2002 में लिखा था, ‘कम ही लोग जानते होंगे कि पंजाब में आईएसआई की दखलअंदाजी खत्म करना सुनिश्चित करने में निभाई गई भूमिका हमारे खुफिया एजेंटों पर कितनी भारी पड़ती है.’

भारतीय सेना के पूर्व खुफिया एजेंट किशोरी लाल शर्मा कड़वाहट भरे लहजे में कहते हैं, ‘अगर आप मौत के मुंह से बच निकलते हैं, तो तिल-तिल मरते हैं, क्योंकि कोई आपकी जिम्मेदारी उठाने को तैयार नहीं होता.’ लाल ने लाहौर में एक छोटे व्यवसायी के रूप में कई जासूसी अभियानों को अंजाम दिया था. उनकी अगुवाई में पूर्व खुफिया एजेंटों के एक समूह ने सैनिकों को मिलने वाली पेंशन के समान पेंशन देने की मांग को लेकर लंबा अभियान चलाया. हालांकि, उनकी कोशिश सफल नहीं हो सकी.

रील लाइफ की खयाली दुनिया में जीने वाले भारतीयों को लगता है कि जासूसों की कहानी का अंत वेनिस, केप टाउन, ज्यूरिख या लंदन जैसे शहरों में होता है, और अगर उन्हें सजा मिलती भी है, तो वह कटरीना कैफ के साथ काटनी होती है. लेकिन, हकीकत में जासूसों की कहानी का अंत एकदम जुदा और कहीं ज्यादा दुखद होता है.

(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @praveenswami है. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(अनुवाद: रावी द्विवेदी | संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख़ को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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