राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने जबसे अपना दूसरा कार्यकाल शुरू किया है, अमेरिका में नागरिकों और सेना के रिश्ते में उथल-पुथल मची हुई है. तब से, कई वरिष्ठ सेना अधिकारियों को पेशेगत योग्यता की कमी या किसी अनैतिक आचरण से इतर कारणों के लिए अप्रत्याशित रूप से बर्खास्त किया गया है.
पहले नामित और अब पदस्थापित रक्षा मंत्री पीट हेग्सेथ ने इन आदेशों की राजनीतिक वजह का रूखे ढंग खुलासा नवंबर में यह कहकर किया था कि “सबसे पहले तो आपको सेना की संयुक्त कमान के प्रमुख की छुट्टी करनी है. विविधता, समता, सबका साथ की बकवास ‘डीआइई पॉलिसी’ से जो भी जनरल, एडमिरल, या जो भी जुड़ा रहा हो उसे जाना होगा.” कहा जाता है कि उनकी टीम ने बर्खास्त किए जाने वाले वरिष्ठ अधिकारियों की सूची तैयार कर रखी थी. अब अमेरिकी सेना अधिकारियों की जमात इस आशंका से त्रस्त है कि “अगला नंबर किसका?”
ट्रंप ने 21 फरवरी को अचानक ज्वाइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ के अध्यक्ष और सबसे वरिष्ठ सेना अधिकारी तथा यह पद हासिल करने वाले दूसरे अफ्रीकी-अमेरिकी, जनरल चार्ल्स क्यू ब्राउन को बर्खास्त कर दिया. उनके साथ-साथ इन पांच और टॉप अफसरों की छुट्टी कर दी गई — चीफ ऑफ नेवल ऑपरेशन्स, अमेरिकी नौसेना की पहली महिला अध्यक्ष एडमिरल लीसा फ्रांशेट्टी; अमेरिकी वायुसेना के वाइस चीफ ऑफ स्टाफ, जनरल जेम्स स्लाइफ; आर्मी, नेवी, और एअर फोर्स के जज एडवोकेट्स जनरलों (कानूनी शाखा के प्रमुख), जो कमांडरों को सरकार से मिलने वाले आदेशों की संवैधानिकता का फैसला करने वाले कानून की व्याख्या करते हैं.
इन बर्खास्तगियों से पहले 21 जनवरी को कोस्ट गार्ड कमांडेंट एडमिरल लिंडा ली फगान को बर्खास्त किया गया, जो ‘फोर स्टार’ एडमिरल थीं और सेना में इस ओहदे पर पहुंचने वाली पहली वर्दीधारी महिला अधिकारी थीं. 3 अप्रैल को नेशनल सिक्यूरिटी एजेंसी और साइबर कमांड के डाइरेक्टर, जनरल टिमोथी हॉफ, और डिप्टी डाइरेक्टर वेंडी नोबल की छुट्टी कर दी गई.
वजहें क्या हैं?
कोई भी तानाशाह, या निर्वाचित निरंकुश नेता अपनी मर्ज़ी या नीतियां निर्विरोध लागू करना चाहता है तो वह सबसे पहले सेना को, धार्मिक ‘नैरेटिव’ को, व्यावसायिक समुदाय और मीडिया को अपने काबू में करता है. यह मॉडल हर काल में कारगर रहा है, जिसे 1930 के दशक में यूरोप में मुकम्मल किया गया था. ट्रंप की निरंकुशवादी प्रवृत्ति किसी से छिपी नहीं है. अपने पहले कार्यकाल में वे सेना को छोड़ इन सभी का समर्थन हासिल करने काफी सफल रहे थे.
यही ट्रंप के पहले कार्यकाल में सेना के साथ उनके उथल-पुथल भरे रिश्ते का मूल कारण था. वे चाहते थे कि सेना उनके प्रति संविधान से अलग व्यक्तिगत और राजनीतिक वफादारी निभाए, जबकि सेना का नेतृत्व संविधान के पालन के प्रति प्रतिबद्ध था. अब सेना के आला अफसरों की बरखास्तगी इस अंतिम मोर्चे पर जीत हासिल करने की उनकी कोशिशों का हिस्सा है.
ट्रंप और उनकी टीम पिछली सरकार द्वारा नियुक्त उन आला सेना अधिकारियों की छुट्टी करना चाहती है जिनके बारे में यह माना जाता है कि वे ‘डीआइई पॉलिसी’ को लागू करने या उससे लाभ उठाने वालों में शामिल थे. उस पॉलिसी को रद्द कर दिया गया है. इसके अलावा अब लक्ष्य यह है कि सेना का नेतृत्व उन लोगों के हाथ में रहे जो राष्ट्रपति के प्रति निजी तौर पर वफादार हों और उनकी विचारधारा से जुड़े हों. महिलाओं और अफ्रीकी मूल के अमेरिकियों को और खास तौर से उन लोगों को निशाना बनाया गया है जो पूर्व रक्षा मंत्री जनरल लॉयड ऑस्टिन तथा पूर्व ज्वाइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ जनरल मार्क मिले के करीबी थे. जनरल मिले से ट्रंप प्रशासन इतना नाराज़ है कि पेंटागन से उनकी फोटो भी हटा दी गई है और उनकी सुरक्षा भी वापस ले ली गई है. इस सबका पूर्वानुमान लगाते हुए पूर्व राष्ट्रपति जो बाइडन ने उन्हें राष्ट्रपति की ओर से पहले ही क्षमादान दे दिया था.
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अमेरिकी सेना की अग्निपरीक्षा
अमेरिकी राष्ट्रपति को वरिष्ठ सैन्य कमांडरों को नियुक्त या बर्खास्त करने का पूर्ण अधिकार मिला हुआ है. अमेरिकी कांग्रेस केवल नई नियुक्ति के समय पुष्टीकरण सुनवाई के दौरान हस्तक्षेप कर सकती है, जिसमें आम तौर पर पार्टी लाइन पर वोटिंग और राष्ट्रपति जिन्हें नामज़द करते हैं वे चुने ही जाते हैं. अदालतें भी राष्ट्रपति के अधिकारों पर सवाल नहीं उठातीं. योग्यता या अनुचित आचरण को लेकर कोई खास आपत्ति नहीं दर्ज की जाती, इसलिए मीडिया भी सिर्फ अटकलें लगाने के सिवा कुछ नहीं कर सकता. वैसे, नए अधिकारियों के कामकाज पर नज़र रखी जा सकती है.
मेरे विचार से, ट्रंप को कुछ अप्रत्याशित का सामना करना पड़ सकता है. नए सेना अधिकारियों की नियुक्ति चाहे विवादास्पद परिस्थितियों में क्यों की गई हो, वे संवैधानिक मूल्यों और कानून के मुताबिक ही काम करेंगे और कार्यपालिका से मिले आदेशों को कानूनसम्मत आदेश के सिद्धांत की कसौटी पर ज़रूर कसेंगे. जनरल मार्क मिले के मामले में ठीक यही हुआ था. ट्रंप ने खास तौर पर उनका चयन इसलिए किया था कि वे उनके प्रति वफादार माने जाते थे और उनकी विचारधारा से भी जुड़े थे. मिले के चयन को लेकर विवाद इसलिए हुआ क्योंकि शुरू में उन्हें डरपोक और दब्बू माना गया था और कांग्रेस के सदस्यों ने उनकी आलोचना की थी, लेकिन मिले ने लाफएत स्क्वायर वाली घटना के बाद खुद को सुधारा और सेना के मूल्यों तथा संवैधानिक आदर्शों के साथ खड़े हुए और सत्ता के सहज बदलाव में मदद की.
अब अमेरिकी वायुसेना के ज्वाइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ के अध्यक्ष के पद पर नियुक्त किए गए सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल डान ‘राजिन’ केन बुरी स्थिति में हैं. उनकी नियुक्ति की पुष्टि हो गई तो वे किसी राष्ट्रपति द्वारा सेवा-मुक्त किए गए पहले ज्वाइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ के अध्यक्ष की जगह लेंगे और वह पहले अधिकारी होंगे जिसे सेवानिवृत्त होने के बाद इस पद के लिए चुना जाएगा. वह इस पद के लिए निर्धारित किसी कसौटी पर खरे नहीं उतरते सिवा इसके कि राष्ट्रपति ने उनका चयन उनकी कथित वफादारी, वैचारिक समानता, और आक्रामक रुख के कारण किया है.
सीनेट की आर्म्ड सर्विसेज कमिटी में पुष्टीकरण सुनवाई के दौरान उन्होंने खुद को अ-राजनीतिक बताया और कहा कि राष्ट्रपति ट्रंप ने अवैध आदेश दिए तो वे इसका विरोध करेंगे और बर्खास्त हो जाना पसंद करेंगे. उन्होंने अमेरिकी कानूनों और संविधान का पालन करने की शपथ ली और कहा कि “मैं हमेशा सही काम करने की कोशिश करता रहा हूं और अब इसमें कोई बदलाव नहीं होगा”.
यहां तक कि उन्होंने ट्रंप से अपनी पहली भेंट के बारे में ट्रंप की ‘कहानी’ पर भी सवाल उठाया.
अमेरिकी राष्ट्रपति ने हाल में चर्चा की थी कि 2018 में इराक में वे पहली बार केन से किस तरह मिले थे. उन्होंने याद किया था कि वहां एक सैनिक अड्डे में किस तरह सैनिकों ने ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ की टोपी पहनकर उनका अभिवादन किया था. ट्रंप ने यह भी दावा किया कि एक सैनिक ने उनसे कहा था कि वह उन्हें पसंद करता है और यह भी कहा था कि “आइ विल किल फॉर यू, सर!”. कुछ खबरों की मानें तो, ट्रंप ने यह दावा किया कि केन ने भी ‘मांगा’ टोपी पहनी थी और “आइ विल किल फॉर यू, सर!” वाला बयान भी दिया था.
सीनेटरों के सवालों के जवाब में ले.जनरल केन ने कहा कि “मैंने कभी कोई सियासी चीज़ धारण नहीं की.” केन ने यह भी कहा कि ऐसा करना “शायद” पक्षपातपूर्ण राजनीतिक कदम होता, जहां तक “आई विल किल फॉर यू, सर!” वाले बयान का सवाल है, केन ने कहा कि उन्होंने ट्रंप की टिप्पणियों को फिर से सुना और उन्हें ऐसा लगा कि वे किसी और के बारे में बात कर रहे थे.
अब वक्त ही बताएगा कि अमेरिकी अग्निपरीक्षा में सफल होती है या नहीं. मेरा आकलन है कि सेना के आका संविधान का पालन करेंगे और राष्ट्रपति के निर्देशों की व्याख्या करने में कानूनसम्मत आदेश के सिद्धांत को कड़ाई से लागू करेंगे. वैसे, सरकार बदलने के साथ सेना के आला अधिकारियों को बदलने की ट्रंप की नीति का लक्ष्य अमेरिकी सेना का राजनीतिकरण ही है.
भारतीय सेना के लिए सबक
भारतीय सेना के सभी कर्मचारी सैनिक या अधिकारी के रूप में आधिकारिक तौर पर नियुक्त किए जाने से पहले संविधान की रक्षा की शपथ लेते हैं कि वे ‘भारत के संविधान में सच्ची आस्था रखेंगे और उसका पालन करेंगे.’ लेकिन विडंबना यह है कि संविधान और संविधान में निष्ठा तथा प्रशासनिक नियंत्रण के बीच के संबंध के बारे में न औपचारिक शिक्षा दी जाती है और न इसे समझा जाता है. इसका नतीजा यह होता है कि इस सबके बारे में बौद्धिक समझ नहीं बन पाती.
सेना की आंतरिक कमांड सिस्टम के संदर्भ में ‘कानूनसम्मत कमांड’ की अवधारणा आर्मी एक्ट की धारा 41 में दर्ज है. धारा 41 की व्याख्या करने वाली टिप्पणी में इसे ऐसे कमांड या आदेश के रूप में परिभाषित किया गया है जो “सेना के और सरकार के कानून तथा व्यवहार के लिहाज़ से उचित है”. लेकिन सरकार सीधे सेना को या उसकी ओर से रक्षा मंत्रालय के जरिए जो निर्देश देती है उसकी जांच नहीं की जाती कि वह संविधान के अनुसार ‘कानूनसम्मत कमांड’ है या नहीं.
इसलिए, राजनीतिक निर्देशों के मामले में सेना उनके संवैधानिक औचित्य पर सवाल उठाए बिना उनका पालन करती है. यह समस्या तब गंभीर हो जाती है जब नेतृत्व कमजोर चरित्र वाला होता है और पक्षपातपूर्ण राजनीति या धार्मिक कार्रवाई करने लगता है. यह नैतिकता का मसला है, और संविधान का पालन करने के लिए जरूरत सिर्फ इस बात की है कि आपकी रीढ़ सीधी रहे.
लेफ्टिनेंट जनरल एच. एस. पनाग (सेवानिवृत्त), पीवीएसएम, एवीएसएम, ने 40 साल तक भारतीय सेना में सेवा की. वे उत्तरी कमान और केंद्रीय कमान के कमांडर रहे. रिटायरमेंट के बाद, उन्होंने सशस्त्र बल न्यायाधिकरण में सदस्य के रूप में काम किया. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.
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