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Sunday, 3 November, 2024
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2024 की जंग से पहले BJP नहीं बल्कि ममता और केजरीवाल के बीच की टक्कर देखने लायक होगी

मोदी के राजनीतिक विकल्प के रूप में उभरने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर अफरातफरी 2014 के बाद से ही मची हुई है, और मोदी ने भारत के मुख्यमंत्रियों की महत्वाकांक्षा को पर लगा दिए हैं.

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भारत में अगली लड़ाई चुनावी नहीं बल्कि अपनी राजनीतिक स्थिति मजबूत करने की होगी और यह लड़ाई पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के बीच होगी. दोनों ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ गोलबंदी को गति देने वाली ताकत के रूप में उभरना चाहते हैं. फिलहाल, 2024 से पहले ये लड़ाइयां ही 2024 के लोकसभा चुनाव से ज्यादा राजनीतिक दिशासूचक के रूप में महत्व रखती हैं.

सवाल यह नहीं है कि केजरीवाल और ममता मोदी का मुक़ाबला कर सकते हैं या नहीं, बल्कि यह है कि जंग के लिए उनकी तैयारी कितनी है और उनके हथियार कितने मारक हैं. बलवान बनाम निर्बल की लड़ाई की जगह कल्पना कीजिए कि दुस्साहसी, अति-आत्मविश्वास से भरे दो बलवान ही पहले आपस में भिड़ गए हैं.

मोदी के राजनीतिक विकल्प के रूप में उभरने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर होड़ और अफरातफरी 2014 के बाद से ही मची हुई है, लेकिन ऐसा लगता है कि यह होड़ अब सिकुड़ती जा रही है. 1990 का दशक चुनाव के बाद भाजपा विरोधी मोर्चा तैयार करने के जोड़-घटाव का दशक था. लेकिन गणित हमेशा काम नहीं करता, आपको एक ऐसे नेता की जरूरत होती है, जो ज्यादा से ज्यादा ध्यान आकर्षित करने के आज के दौर में तमाम जोड़-घटाव पर हावी हो सके.

मुख्यमंत्री ममता और मुख्यमंत्री केजरीवाल भी ‘ध्यान खींचने वाली राजनीति’ करने में मोदी जैसी महारत रखते हैं. उनकी राजनीति इतनी आक्रामक है कि दूसरे राज्य- पंजाब और गोवा- को भी (त्रिपुरा भी, जो तृणमूल कांग्रेस के पाले में पहले आ जाए) अपनी झोली में डालने की महत्वाकांक्षा पाल सके. आप देख सकते हैं कि मोदी के उत्कर्ष ने भारत के मुख्यमंत्रियों की महत्वाकांक्षा को किस तरह पर लगा दिए हैं.

सीएम से पीएम तक

देवेगौड़ा के बाद लुटिएन्स की दिल्ली में पीएम की गद्दी तक पहुंचने में किसी दूसरे सीएम को करीब दो दशक लग गए. लेकिन 2014 में पहली बार ऐसा हुआ कि किसी मुख्यमंत्री ने ‘विजेता का ही सब कुछ’ वाली दुस्साहसी राजनीति की. इसलिए स्वाभाविक है कि दूसरे मुख्यमंत्री भी यही उम्मीद करें कि इसी चलन को आगे बढ़ाया जाएगा. केजरीवाल और ममता में भी वे चार गुण हैं, जो 2014 से पहले मोदी में दिखे थे- महत्वाकांक्षा, साहस, पहल करने से मिली बढ़त, और धक्कामुक्की. बेशक कुल जमा ये चार गुण ही ‘पीएम की गद्दी’ के लिए काफी नहीं हैं. आपको व्यापक जनाधार वाली पार्टी का सहारा भी चाहिए. दोनों के पास यह नहीं है. और विपक्षी गठबंधन को जोड़ने वाले तत्व के रूप में केजरीवाल ममता से उन्नीस ही माने जा सकते हैं.

लेकिन इन दो बलवानों की प्रमुख समानताएं और अंतर उनके स्वचालित इंजन को दिलचस्प बना देते हैं.


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समान भी और असमान भी

केजरीवाल और ममता, दोनों ने मोदी सरकार के खिलाफ चले सबसे बड़े और लंबे जन-आंदोलन, तीन राज्यों के किसान आंदोलन को समर्थन दिया है. इन दोनों ने हिंदू विरोधी दिखे बिना मोदी विरोधी बनने की कोशिश की है. हिंदू विरोधी न दिखने के लिए इन्होंने अयोध्या की मुफ्त तीर्थयात्रा कराने से लेकर दिवाली आरती, चंडीपाठ और मंदिरों की यात्रा तक सब कुछ किया है. ममता ने बंगाल में वामपंथियों का सफाया किया, तो दिल्ली में केजरीवाल ने वामपंथी राजनीति से दूर रहने की पूरी सावधानी बरती है. आलोचकों ने दोनों को उनकी कार्यशैली के लिए ‘मिनी मोदी’ तक नाम दिया है. लेकिन उन दोनों में कई असमानताएं भी हैं.

केजरीवाल ने अपनी राष्ट्रीय छवि बनाने में इस तरह बढ़त ली है कि उन्हें ममता या अखिलेश यादव, उद्धव ठाकरे, के. चंद्रशेखर राव, या एम.के. स्टालिन की तरह क्षेत्रीय नेता के खांचे में कैद नहीं माना जाता. दिल्ली का जो मिश्रित महानगरवाद है वह केजरीवाल की छवि को किसी एक समुदाय से बंधने नहीं देता. लेकिन ममता को ‘माटी की बेटी’, बांग्लाभाषी मुख्यमंत्री के रूप में देखा जाता है. यहां गौर करने वाली बात यह है कि ममता को इसलिए बढ़त मिल जाती है कि कम-से-कम छह राज्यों में बांग्लाभाषियों के पॉकेट हैं. अगर वे इन पॉकेटों से अधिकतर लोकसभा सीटें निकाल लेती हैं तो अपना लोहा मनवा सकती हैं.

चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर ममता के गुप्त हथियार साबित हो सकते हैं. वैसे भी वे दलबदल करवा के, प्रचार में बढ़त लेकर, और सार्वजनिक बहस को उकसा कर लोगों की नज़रों में छायी हुई हैं. अभी एक साल पहले, अधिकतर राजनीतिक प्रेक्षक केजरीवाल की आम आदमी पार्टी पर ध्यान दे रहे थे क्योंकि वह गोवा के चुनाव में भाग ले रहे थे.

ममता की मुस्लिम राजनीति तो सबकी नज़रों के सामने स्पष्ट है, केजरीवाल की राजनीति दोहरी किस्म की है. राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे संवेदनशील मसले पर केजरीवाल भाजपा के साथ खड़े दिखते हैं. उन्होंने कश्मीर में अनुच्छेद 370 को रद्द करने का समर्थन किया, जबकि ममता ने कहा कि इससे दुनियाभर में भारत की छवि खराब हुई है.

ये दोनों मुख्यमंत्री राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित होने के लिए जो तरीके अपनाते हैं उनकी जांच भी करने की जरूरत है. ममता तो मोदी के किसी बड़े कदम या बयान पर तुरंत जवाबी हमला करती हैं लेकिन केजरीवाल प्रधानमंत्री के मामले में सोची-समझी चुप्पी का इस्तेमाल करते हैं. लेकिन एक चीज जो केजरीवाल के पास है वह ममता के पास नहीं है. पंजाब विधानसभा में वे मुख्य विपक्ष हैं और गुजरात के सूरत के नगरपालिका चुनाव में उनकी पार्टी ने शानदार जीत हासिल की है. राष्ट्रीय स्तर पर उनकी महत्वाकांक्षाएं ममता की महत्वाकांक्षाओं के मुक़ाबले काफी पुरानी हैं.

चुनाव के बाद की चमक

इसमें शक नहीं कि काफी कुछ इस पर निर्भर है कि राष्ट्रीय सोच और विमर्श के बड़े हिस्से पर कौन कब्जा जमाता है. जैसा कि ‘सी-वोटर’ के यशवंत देशमुख ने हाल में एक टीवी शो पर कहा,मोदी और राहुल गांधी के बाद सबसे ज्यादा रेटिंग ममता को नहीं बल्कि केजरीवाल को मिली है.

अब वे एक राष्ट्रीय नेता की जो नयी छवि गढ़ते हैं वही हमें यह अंदाजा दे देगी कि मोदी विरोधी माहौल 2024 से पहले किस तरह काम करेगा. यह एक दुर्गम दौड़ है, जो राहुल के विफल प्रयोग से स्पष्ट है, हालांकि नेताओं को उत्कर्ष पर पहुंचने के लिए अवसर भी मौजूद हैं.

ममता को लेकर नयी चर्चा केवल इसलिए उभरी है क्योंकि बंगाल के चुनाव में सफलता की आभा में उनकी छवि अभी भी चमक रही है. यह वैसी नहीं है जैसी 2015 में दिल्ली का चुनाव जीतने पर केजरीवाल की थी. लेकिन हम यह भी न भूलें कि जिस तरह ममता को आज ऊंचे दांव वाले खेल में शामिल मान लिया गया है उस तरह केजरीवाल भी शामिल माने गए मगर वे गोवा और पंजाब में हार गए.

लेकिन अमेरिकी राजनीति हमें यही सीख देती है कि ‘उम्मीद का दुस्साहस’ अच्छी शुरुआत साबित हो सकती है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

(रमा लक्ष्मी दिप्रिंट में ओपीनियन और फीचर एडिटर हैं. वह @RamaNewDelhi से ट्वीट करती हैं.)

(व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)


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