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Friday, 19 April, 2024
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रिलोकेशन नहीं, नेशनल आर्काइव्ज के लिए वास्तविक लड़ाई इस बारे में होनी चाहिए कि इसमें क्या शामिल नहीं है

इतिहास लेखन के लिए नेहरू का असल जोर एकता पर था, जबकि मोदी का एकरूपता पर है. लेकिन, इतिहास सबसे पहले एक विमर्श है.

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साक्ष्य आधारित इतिहास और भावना आधारित इतिहास को एक-दूसरे के समांतर नहीं देखे जाने को लेकर हिलाल अहमद का हालिया लेख आंशिक रूप से मौखिक इतिहास के लंबे समय से जारी अकादमिक विरोध को संबोधित करता है.

अकादमिक इतिहासकारों ने परंपरागत रूप से मौखिक इतिहास को अतीत की व्याख्या के एक कमतर और एक तरह से गैरभरोसेमंद माध्यम के रूप में देखा है. आरंभिक अभिलेखीय सबूतों और पुरातात्विक कलाकृतियों जैसे तथाकथित ठोस
साक्ष्यों पर उनका जोर अक्सर अमूर्त इतिहास के महत्व को कम आंकता है. मानो ये ठोस साक्ष्य ही पक्का इतिहास प्रस्तुत करते हों. ब्रिटिश इतिहासकार जॉन अर्नाल्ड ने कहा था- इतिहास सबसे पहले एक विमर्श है.

संग्रहालय विज्ञान की पढ़ाई में मैंने जो पहली चीजें सीखीं, उनमें से एक ये थी कि इतिहास तथ्यों का संग्रह नहीं बल्कि व्याख्याओं का संग्रह है. इसलिए दोनों में से कोई भी धारा- अकादमिक इतिहासकार या सार्वजनिक इतिहासकार – सच के बहाने इतिहास पर नैतिक और एकाधिकारवादी दावा नहीं कर सकती है. मौखिक इतिहास का भी भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार में स्थान है.

भले ही हिलाल अहमद ने भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार के संदर्भ में अपना लेख लिखा है, लेकिन उन्होंने जो तर्क दिए हैं, वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की न्यू लुटियंस की योजना के केंद्र में मौजूद सेंट्रल विस्टा परियोजना से जुड़े तात्कालिक
विध्वंस और निर्माण से आगे तक जाते है.

मूर्त इतिहास के विद्वान अक्सर डरते हैं कि अगर इतिहास लेखन में भावनाओं और लोगों की स्मृतियों को भी स्थान दिया जाता है, तो बहुसंख्यक समुदाय, या सत्ता पर दबदबा रखने वाले, इस भावनात्मक पूंजी का दूसरों के खिलाफ इस्तेमाल
कर सकते हैं. गिनती पर आधारित लोकतंत्र में यह एक वास्तविक जोखिम है.

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लेकिन इसका समाधान उनकी निगरानी करने या उन्हें गैरभरोसेमंद या भावनात्मक कहकर खारिज करने में नहीं है. यह विषय भी मानकों और नियंत्रणों के दायरे में आता है.

अमेरिकी सार्वजनिक इतिहासकार जेसन स्टीनहाउर ने लिखा है- मौखिक इतिहास केवल वो चीज ही नहीं है जो लोग टेप या कैमरे के सामने कहते हैं. (एक पद्धति के रूप में) मौखिक इतिहास का अस्तित्व बाकी विषयों से असंबद्ध नहीं है.

मौखिक इतिहास का दायरा

आइए हम ये देखने की कोशिश करते हैं कि यदि हिलाल अहमद की अनुशंसा के अनुरूप अकादमिक इतिहासकारों के इतिहास लेखन में सामूहिक स्मृतियों और भावनाओं को शामिल करने पर सहमत हो जाने पर क्या स्थिति बनेगी.

सबसे पहले तो इससे एक तरह का आधिपत्य टूट जाएगा. मेरा मतलब ये नहीं है कि इसके बाद ठोस तथ्य ऐतिहासिक शोध का निर्धारण नहीं होगा. लेकिन अकादमिक इतिहासकारों का एकमात्र अन्वेषक और सत्य का प्रवर्तक होने का एक
किस्म का अहंकारी ढोंग जरूर धराशायी हो जाएगा.

इस पहल का दूसरा परिणाम ये होगा कि इतिहास अधिक समावेशी और सुलभ हो जाएगा. ये उस अवस्था में आ जाएगा जो हमेशा से था – प्रवाही, परिवर्तनशील और मुक्त, जो इस बात को मान्यता देता है कि इतिहास को देखने और उसकी
व्याख्या करने के कई तरीके हैं. अंतत: ये इस बात की स्वीकारोक्ति होगी कि इतिहास का अध्ययन मुख्यत: व्याख्यात्मक मात्र होता है.

यह इतिहास के प्रति उदार या रूढ़िवादी दृष्टिकोण की बात नहीं है – न ही ये धर्मनिरपेक्ष बनाम हिंदुत्ववादी इतिहास के बारे में है. यह लगभग एक सदी पुरानी दीवार को पहचानने और उसे गिराने के बारे में है जोकि दुनिया भर के शिक्षण
परिसरों के इतिहास विभागों में मौजूद रही है.

सेंट्रल विस्टा के पुनर्निर्माण के विरोध करने में ऊर्जा खपाना अब व्यर्थ है. मामला अब हाथ से निकल चुका है. हालांकि, हम दो चीजें कर सकते हैं. नया ठिकाना मिलने तक अंतरिम अवधि में अभिलेखों को संभालने और संरक्षित करने के तरीके में पारदर्शिता की मांग जारी रखना, और साथ ही अभिलेखागार के विस्तारित दायरे और परिभाषा के लिए भी जोर देते रहना. मुसीबत का वक्त पुराने तरीकों को नए सिरे से निर्धारित करने का सबसे अच्छा मौका होता है. तीनमूर्ति पुस्तकालय में मौखिक इतिहास का समृद्ध संग्रह है. दिल्ली सरकार वर्तमान में व्यक्तिगत साक्षात्कार के माध्यम से 100 व्यक्तियों की स्मृतियों और धारणाओं को रिकॉर्ड करके शहर के मौखिक इतिहास अभिलेखागार का निर्माण कर रही है. इसलिए समय आ गया है कि हम अन्य देशों की तरह इन्हें भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार के नए ठिकाने में भी स्थान दिलाएं.

अभिलेखागार को अधिक समृद्ध बनाना

अब जबकि भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार की इमारत को तोड़ा जा चुका है (भवन मात्र को नकि अभिलेखों को. और वो भी, केवल एनेक्सी को, जोकि पिछले कुछ दशकों में इमारत के विस्तार के लिए पीडब्ल्यूडी द्वारा प्रयुक्त सरकारी शब्द है), नाजुक अभिलेखों की स्थिति के बारे में चिंता करना जायज है; लेकिन साथ ही ये एक बेहतर, अधिक समावेशी अभिलेखागार की कल्पना करने का अवसर भी है. ऐसा अभिलेखागार जो इतिहास को अगम्य रखने के लिए लोगों को दूर नहीं रखता हो.

भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार में हमें मौखिक इतिहास को भी शामिल करने की आवश्यकता है जोकि अभी कॉलेजों, गैरसरकारी संगठनों और व्यक्तिगत संग्रहों में संग्रहीत हैं. मौखिक इतिहास प्राथमिक स्रोत सामग्री है जिसे अभिलेखागार में होना चाहिए.


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नर्मदा बचाओ आंदोलन की आवाजों के मौखिक इतिहास का एक प्रभावशाली संग्रह मौजूद है जिस पर नंदिनी ओझा ने काम किया है; इसी तरह काला पानी भेजे गए उग्र स्वतंत्रता सेनानियों पर प्रमोद कुमार श्रीवास्तव ने काम किया है; सीएस लक्ष्मी का महिला आंदोलन पर अभिलेखागार है; वृंदा पठारे गोदरेज अभिलेखागार का प्रबंधन करती हैं और इंदिरा चौधरी ने भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च का मौखिक इतिहास जुटाया है.

निश्चित रूप से, कुछ गर्वोक्ति से भरे इतिहास भी जुटाए जाएंगे, या ऐसे इतिहास जिसे जॉन डावर ने जुलाई वाला इतिहास लेखन खारिज कर दिया था. लेकिन साथ ही ऐसे भी इतिहास होंगे जो निरंतर पेश किए जाने वाले सरकारी कथानक के विपरीत होंगे, जैसे जाति-विरोधी मौखिक इतिहास, दलित और आदिवासी लोगों के इतिहास, और विकलांगों के अधिकारों का इतिहास. सभी के लिए जगह होनी चाहिए. इससे अभिलेखागार अधिक समृद्ध बन सकेगा.

एकता से एकरूपता तक

हिलाल अहमद ने जवाहरलाल नेहरू के उदाहरण से यह दिखाने की कोशिश की है कि कैसे उन्होंने ऐतिहासिक साक्ष्यों के संग्रह की राष्ट्रीय कल्पना और ढांचे को स्थापित किया. अहमद ने मोदी और उनके द्वारा इतिहास लेखन में भावनाओं को महत्व दिए जाने का भी उल्लेख किया है. दोनों राष्ट्र-निर्माण के अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इतिहास का उपयोग करते हैं. यदि नेहरू के भारत को राष्ट्र निर्माण के प्रथम युग का साक्षी मानें, तो कुछ लोगों के हिसाब से मोदी का भारत राष्ट्र निर्माण के तीसरे चरण से गुजर रहा है; 1991 राष्ट्र निर्माण का दूसरा चरण था. कोई माने या नहीं, लेकिन पुराना भारत बदला जा रहा है.

इतिहास लेखन के लिए नेहरू का असल जोर एकता पर था, जबकि मोदी का एकरूपता पर है और सार्वजनिक इतिहास – अपनी संपूर्ण प्रवाहमयता, विविधता और स्वायत्तता के साथ- पूर्वनिर्धारित अकादमिक इतिहासों की तुलना में एकरूपता
का कहीं बड़ा प्रतिकारक है.

दुनिया भर में बड़े और प्रबल कथानक इतिहास की किताबों में मौजूद बातों से नहीं बल्कि जनता के आवाज़ उठाने पर पराजित हुए हैं.

दिप्रिंट की ओपिनियन एडिटर रमा लक्ष्मी संग्रहालयविज्ञानी और मौखिक इतिहासकार हैं. स्मिथसोनियन इंस्टीट्यूशन और मिजौरी हिस्ट्री म्यूजियम के लिए काम करने के बाद उन्होंने भोपाल गैस त्रासदी से संबंधित ‘रिमेंबर भोपाल म्यूज़ियम’ स्थापित किया. उन्होंने मिज़ौरी विश्विद्यालय, सेंट लुइस से संग्रहालय अध्ययन एवं अफ्रीकी अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन विषय में स्नातक की उपाधि प्राप्त की है.

(व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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