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शनिवार, 31 मई, 2025
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सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल दुनिया का समर्थन नहीं मांग रहे, वह केवल नैरेटिव को संभाल रहे हैं

प्रतिनिधिमंडल एकता को दर्शाने का अच्छा काम कर रहे हैं. हमें घर पर भी इन मूल्यों को बनाए रखना चाहिए.

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पहलगाम के बाद दुनिया भर में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजने के भारत के फैसले की आलोचना करने में कई लोग आगे आए हैं. हमें खुद को क्या समझाना चाहिए? दुनिया के समर्थन की क्या ज़रूरत है? लेकिन सच्चाई यह है कि हम अलग-थलग नहीं रह रहे हैं. हम एक वैश्विक व्यवस्था का हिस्सा हैं और नैरेटिव मायने रखते हैं. वही लोग जो इस पहल पर सवाल उठाते हैं, वही अक्सर अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के भारत के प्रति रुख की शिकायत करते हैं. अगर ऐसा है, तो क्या यह ज़रूरी नहीं है कि हम बोलें, शामिल हों और अपने शब्दों में अपनी कहानियां लिखें — इससे पहले कि दूसरे हमारे लिए इसे लिखें?

जबकि दुनिया धीरे-धीरे आतंकवाद के खतरे के प्रति जागरूक हो रही है — खासतौर पर इस्लामवादी विचारधाराओं में बसे आतंकवाद के खतरे के प्रति — भारत दशकों से इसकी छाया में जी रहा है. बाहर के कई लोग यह पूरी तरह से नहीं समझ पाते हैं कि यह हमारे लिए कोई नई बात नहीं है. भारत को हज़ारों जख्मों से लहूलुहान करना महज़ एक मुहावरा नहीं है, यह एक सिद्धांत है — एक लंबे समय से चली आ रही सैन्य रणनीति, जिसका खुलेआम पाकिस्तानी प्रतिष्ठान द्वारा पालन किया जाता है. विचार हमेशा से सरल और भयावह रहा है: उग्रवाद को बढ़ावा देकर, कट्टरपंथ को वित्तपोषित करके और धर्म को हथियार बनाकर भारत को अस्थिर करने, विभाजित करने और अंदर से थका देने के लिए आतंक का इस्तेमाल करना.

हमने सैनिकों, स्कूली बच्चों, दिहाड़ी मजदूरों और तीर्थयात्रियों को खो दिया है. हर तरह के भारतीय. यह युद्ध पारंपरिक युद्ध के मैदानों पर नहीं लड़ा जाता है, बल्कि बाज़ारों, बसों, मंदिरों और अब तो पर्यटन स्थलों पर भी लड़ा जाता है और फिर भी, किसी तरह, हर बार जब हम जवाब देते हैं, तो हमसे पूछा जाता है कि क्यों. मानो आत्मरक्षा के लिए पहले अनुमति लेनी पड़ती है.

तो यह स्पष्ट रूप से कहा जाना चाहिए: जब भारत आतंकवाद का जवाब देता है, तो यह बदला नहीं होता है — यह प्रतिरोध होता है. यह एक संप्रभु राष्ट्र का अपने लोगों के प्रति न्यूनतम दायित्व होता है. एक मौका ऐसा आता है जहां चुप्पी सहभागिता बन जाती है और संयम आत्मसमर्पण जैसा लगने लगता है.

और दुनिया को इसके बारे में सुनना होगा. ग्लोबल नैरेटिव अभी भी वैश्विक सहानुभूति को आकार देते हैं और एक ऐसी दुनिया में जो टिप्पणी करने में तेज़ है, लेकिन समझने में धीमी है, अपनी कहानी — अपने शब्दों में — बताना मान्यता प्राप्त करना नहीं है, बल्कि रिकॉर्ड को सीधा करना है.


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एक आवाज़

अभी तक, भारत को इस तरह की प्रतिक्रिया मिल रही है जो इस कोशिश को मान्य करती है. रिपोर्ट बताती हैं कि कई देश आतंकवाद पर भारत के ज़ीरो-टॉलरेंस के रुख से जुड़ रहे हैं. सऊदी अरब ने यह कहते हुए कि वह पाकिस्तान से आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में भारत के साथ अपना समर्थन दिखाया है. इटली ने द्विपक्षीय सहयोग की पेशकश की है. इंडोनेशिया ने भी अपना समर्थन दिया है. फ्रांस ने अपनी एकजुटता दोहराई है और लोकतांत्रिक दुनिया से आतंकवाद के खिलाफ एक स्वर में बोलने का आह्वान किया है. ये केवल कूटनीतिक शिष्टाचार नहीं हैं — ये इस बात की स्वीकृति हैं कि भारत की लड़ाई अलग-थलग नहीं है, न ही अनुचित है.

हालांकि, इस प्रतिनिधिमंडल के बारे में जो सबसे खास बात है, वह केवल कूटनीति नहीं है — यह हर राजनीतिक दल, हर धर्म, हर पृष्ठभूमि से आने वाले भारतीयों की एक साथ आने की छवि है, जो एक स्वर में एक देश का प्रतिनिधित्व करते हैं. यही भारत की असली खूबसूरती है. विविधता में एकता केवल एक नारा नहीं — यह एक जीती-जागती हकीकत है. जब लोग, अपने मतभेदों के बावजूद, एक होकर बोलने के लिए भारत के लिए खड़े होने के लिए उन्हें अलग रखते हैं, तो यह आपको खुद ही बता देता है कि इस देश का क्या मतलब है. यह एकरूपता नहीं है. यह समानता नहीं है. यह भिन्नता में शक्ति है. यही भारत की आत्मा है.

यहां तक ​​कि अलजजीरा, जो भारत के साथ कभी नरमी से पेश नहीं आता, ने भी इस पर ध्यान दिया: “भारत की संसद के अंदर, वह कट्टर प्रतिद्वंद्वी हैं…लेकिन पिछले कुछ दिनों में, वह (एक साथ आए हैं).” और यही इस प्रतिनिधिमंडल की शांत सफलता है — दुनिया को याद दिलाना कि यह पार्टी लाइन या युद्धोन्माद के बारे में नहीं है. यह एक ऐसे राष्ट्र के बारे में है जो थक चुका है.

जब AIMIM सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने मध्य पूर्वी नेताओं से कहा कि पाकिस्तान हमलावर है, पीड़ित नहीं, तो संदेश स्पष्ट था. यह कभी भी धर्मों के बीच की लड़ाई नहीं थी. यह सह-अस्तित्व की लड़ाई है, एक ऐसी मानसिकता के खिलाफ जो वर्चस्व को पहचान के रूप में देखती है और जब ओवैसी और भाजपा जैसी अलग-अलग आवाज़ें विदेश में एक ही बात कहती हैं, तो यह अब केवल कूटनीति नहीं रह जाती, यह एक साझा सच है जिसके लिए भारत आखिरकार माफी मांग के थक चुका है.

यह पल हमारे राष्ट्र को भी संदेश देता है. अगर हमें विदेश में एकता, न्याय और सच्चाई की बात करनी है, तो हमें घर पर भी इन मूल्यों को बनाए रखना होगा. हमारे ग्लोबल मैसेज की विश्वसनीयता हमारे लोकतंत्र की मजबूती, हमारे संस्थानों की निष्पक्षता और हमारे लोगों को दी जाने वाली स्वतंत्रता पर निर्भर करती है. हमारी बाहरी मुखरता आंतरिक अखंडता से मेल खानी चाहिए.

अंत में अगर इस प्रतिनिधिमंडल के पास कोई संदेश है, तो वह यह है: भारत सहानुभूति नहीं मांग रहा है. यह गरिमा के साथ खड़ा है. थका हुआ हो सकता है — लेकिन पराजित नहीं. अभी भी बातचीत का विकल्प है, लेकिन चुप रहने को तैयार नहीं है. यही वह है जिसका मतलब है एक ऐसा राष्ट्र होना जिसने बहुत कुछ सहा है, लेकिन फिर भी इनकार पर नहीं, बल्कि सच्चाई पर आधारित शांति की संभावना में विश्वास करता है.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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