जम्मू-कश्मीर से मिले-जुले किस्म के संकेत मिल रहे हैं. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 2 जनवरी को कहा कि “मोदी सरकार ने कश्मीर में आतंक के तामझाम को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया है. इस तरह इस क्षेत्र में शांति और स्थिरता मजबूत हुई है”. वहां एक निर्वाचित सरकार केंद्र के साथ तालमेल से सत्ता संभाले हुए है और उसे फिर से पूर्ण राज्य का दर्जा दिया ही जाने वाला है. वहां अब आतंकवादी हिंसा महानगरों में हो रहे हिंसक अपराधों की तुलना में कम ही है. पर्यटन खूब बढ़ा है और इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास में तेजी आई है.
लेकिन सेना की तैनाती में कमी आने की जगह 2024 में जम्मू क्षेत्र में 15,000 अतिरिक्त सैनिक भेजे गए. और बगावत से निबटने वाले साजोसामान की आपात खरीद की मंजूरी दी गई है. 2023 और 2024 में मारे गए सैनिकों और आतंकवादियों की संख्या का अनुपात 1:2.6 था, जो कि पिछले एक दशक में सबसे निचले स्तर पर था. लेकिन जम्मू क्षेत्र में 2021 से 2024 तक यह 1:1 के खतरनाक स्तर पर था.
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ (सीओएएस) जनरल उपेंद्र द्विवेदी, दोनों का बयान आ चुका है कि पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर में छद्म युद्ध जारी रखे हुए है. सीओएएस कह चुके हैं कि जम्मू-कश्मीर में मौजूद आतंकवादियों में से 80 फीसदी और आतंकवाद विरोधी कार्रवाई में मारे गए आतंकवादियों में से 60 फीसदी पाकिस्तान के हैं.
तो सवाल यह है कि वहां की हकीकत क्या है? सभी पैमाने पर देखें तो कहा जा सकता है कि हिंसा अब तक के अपने सबसे निचले स्तर पर स्थिर हो गई है. वहां अब आवाम का दिल-दिमाग जीतने के लिए राजनीति केंद्रीय भूमिका निभा रही है. मेरा आकलन यह है कि जो छिटपुट हिंसा हो रही है वह आतंकवादियों की चाल में बदलाव का नतीजा है. यह बदलाव उन्हें अपनी संख्या में कमी आने के कारण, और अपनी रणनीति बदलने में सेना की विफलता का परिणाम है. करना पड़ा है. इस वजह से राजनीतिक और सैन्य स्तरों पर भी बेहिसाब सावधानी बरतने को मजबूर होना पड़ा है. इसलिए राजनीतिक और सैन्य रणनीति में कोई बदलाव नहीं किया जा सका है और दीर्घकालिक संघर्ष जारी रखने पर जोर दिया जा रहा है. इस सबकी समीक्षा जरूरी हो गई है.
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भारत के लिए एक मौका
फिलहाल अपनी बदहाल आर्थव्यवस्था, अफगानिस्तान से और डुरंड लाइन तथा खैबर पख्तूनखवा में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान से टकराव, बलूचिस्तान में बगावत, और चीन-पाकिस्तान एकोनॉमिक कॉरीडोर को बढ़ती असुरक्षा आदि वजहों से जम्मू-कश्मीर में छद्म युद्ध जारी रखने की पाकिस्तान की क्षमता अपने न्यूनतम स्तर पर है.
इसके बावजूद, जम्मू-कश्मीर को या कम-से-कम उसके मुस्लिम बहुल इलाकों को छद्म युद्ध के बूते जीतने की पाकिस्तान की दीर्घकालिक रणनीति में कोई बदलाव नहीं हुआ है. इसलिए वह सौ-डेढ़ सौ आतंकवादियों के जरिए भी आतंकवाद की आग भड़काते रहने की कोशिश करता रहेगा.
सामरिक दृष्टि से आतंकवादियों को जंगली और दुर्गम क्षेत्रों में ही अड्डा बनाकर रहने दिया जाएगा, सुरक्षा बालों से मुठभेड़ से बचा जाएगा, और घात लगाकर या औचक हमले करने की चाल का सहारा लिया जाएगा.
इस तरह का रणनीतिक और सामरिक माहौल भारत को जम्मू-कश्मीर में एक अनूठा मौका पेश कर रहा है कि वह ‘संघर्ष प्रबंधन’ की जगह ‘संघर्ष समाप्ति’ की रणनीति अपनाए. इसके लिए नया राजनीतिक और सैन्य रुख अपनाने की जरूरत होगी.
जम्मू-कश्मीर में आज जो राजनीतिक माहौल है वह केंद्र सरकार के लिए साहसिक कदम उठाने का आदर्श अवसर उपलब्ध करा रहा है. लोगों ने अनुच्छेद 370 को रद्द करने के कदम को कबूल कर लिया है, और नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार अपनी लीक छोड़कर केंद्र सरकार से सहयोग कर रही है.
इसलिए जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा लौटाने के साथ ही विकास केंद्रित आर्थिक पैकेज देने की घोषणा अविलंब की जानी चाहिए. यह सेना को आतंकवादियों को खदेड़ भगाने का आधार उपलब्ध कराएगा.
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बदला हुआ सामरिक माहौल
‘खुफिया सूत्रों पर आधारित ‘इंडिया टुडे’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, जम्मू-कश्मीर में सक्रिय कुल आतंकवादियों की संख्या 119 है. इनमें से 79 (स्थानीय 18 और पाकिस्तानी 61) पीर पंजाल पहाड़ियों के उत्तर में सक्रिय हैं, और 40 आतंकवादी (6 स्थानीय तथा 34 पाकिस्तानी) इसके दक्षिण में सक्रिय हैं. एक आतंकवादी प्रायः एक साल तक सक्रिय रहता है इसलिए उनकी मौजूदा संख्या को बनाए रखने के लिए हथियारों और गोला-बारूद से लैस कम-से-कम 100 आतंकवादियों को घुसपैठ करवाना होगा. इसके अलावा स्थानीय रंगरूटों के लिए भी सीमा पार से हथियारों और गोला-बारूद आदि की सप्लाई करनी होगी. बगावत को तेज करने के लिए इससे संख्या में तीन-चार गुना आतंकवादियों की जरूरत होगी. यह तभी संभाव है जब घुसपैठ में बढ़ोतरी होगी.
आतंकवादी संख्या में कम होने के कारण सेना से सीधे नहीं भिड़ रहे हैं. वे उन ग्रामीण और शहरी इलाकों से दूर रह रहे हैं जहां सेना की बड़ी तैनाती है. इसकी जगह वे मुख्यतः जंगली और पहाड़ी इलाकों में सक्रिय हैं और झूठी खबरें फैलाते हैं ताकि सुरक्षाबल वहां पहुंचें और वे उन्हें घात लगाकर निशाना बनाएं. अपनी मौजूदगी जताने के लिए कभी-कभी वे नागरिकों और पुलिसवालों को भी निशाना बनाते हैं.
जिन गांवों और शहरों को कभी आतंकवादियों के अड्डे के तौर पर इस्तेमाल किया गया था उनके आसपास के इलाकों में नियंत्रण रेखा (एलओसी) की रखवाली और घुसपैठ को रोकने के लिए तैनात सैनिकों के अलावा कंपनी ऑपरेटिंग अड्डों के आतंकवाद विरोधी ग्रिड को तैनात किया जाता है जिनमें राष्ट्रीय राइफल्स के सैनिक शामिल होते हैं.
इन दिनों, जंगली तथा पहाड़ी इलाकों पर नियंत्रण रखने के लिए सुरक्षा बलों द्वारा गश्त या जरूरत के मुताबिक ऑपरेशन के सीमित प्रयास ही किए जाते हैं. आतंकवादी यही तो चाहते हैं. उन्हें इन इलाकों में आज़ादी से गड़बड़ी करने और सुरक्षा बलों को निशाना बनाने का मौका मिलता है क्योंकि सुरक्षा बलों को इन इलाकों की पहचान नहीं होती और उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ता है. विकसित इलाकों में तो अपेक्षाकृत शांति रहती है लेकिन जंगली तथा पहाड़ी इलाकों में सामरिक झटकों के कारण संघर्ष प्रबंधन में सावधानी बरतनी पड़ती है.
ऑपरेशन की रणनीति की समीक्षा
लंबे समय से सेना की धारणा यह रही है कि बेहिसाब संसाधन लगाए बिना आतंकवादियों की घुसपैठ और हथियारों, और साजोसामान की तस्करी को नियंत्रित तो किया जा सकता है, पूरी तरह बंद नहीं किया जा सकता. वैसे, अगर हमें आतंकवाद को मिटाना है तो अतिरिक्त संसाधन लगाने ही पड़ेंगे.
बगावत में स्थानीय लोगों की सीमित भर्ती के कारण यह पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर से भारत में घुसपैठ करने वालों के बूते चलाई जा रही है. मेरा आकलन है कि घुसपैठ को बिलकुल रोक देने के लिए थलसेना की कम-से-कम 60 अतिरिक्त कंपनियों की जरूरत पड़ेगी. यह अतिरिक्त बल राष्ट्रीय राइफल्स की 10 बटालियनों को नये सिरे से तैनात करके हासिल किया जा सकता है. विस्तृत विश्लेषण के लिए घुसपैठ विरोधी ग्रिड को मजबूत बनाने के मसले पर मेरा लेख पढ़िए.
ऑपरेशन की नयी रणनीति का दूसरा पहलू यह है कि आतंकवाद विरोधी ग्रिड को बदला जाए. अभी इस ग्रिड को 62 राष्ट्रीय राइफल्स बटालियन संभाल रही हैं और आंतरिक इलाकों में वही आतंकवाद विरोधी ऑपरेशन चलाती है. चूंकि आतंकवादी पहले गांवों और शहरों में सक्रिय रहते थे इसलिए यह ग्रिड विकसित क्षेत्रों पर ज्यादा ध्यान देती थी. लेकिन पिछले दो-तीन वर्षों से आतंकवादी गतिविधियां जंगली और पहाड़ी क्षेत्रों में केंद्रित हो गई हैं. राष्ट्रीय राइफल्स की कुछ बटालियनों का तो वर्षों से आतंकवादियों से सामना नहीं हुआ है. लेकिन ग्रिड को सक्रिय रखना जरूरी है क्योंकि आतंकवादी छूट का फायदा उठाते हैं.
आतंकवादियों की नयी चाल के मद्देनजर जंगली और पहाड़ी क्षेत्रों को ग्रिड के दायरे में शामिल करना जरूरी है. इसके लिए 50 फीसदी राष्ट्रीय राइफल्स बटालियनों का इस्तेमाल किया जा सकता है. विकसित इलाकों में ग्रिड की नामौजूदगी की भरपाई सीआरपीएफ और राज्यों की आर्म्ड पुलिस बटालियनें तैनात करके की जा सकती है. जरूरी हो तो यूनिफॉर्म काउंटर इनसरजेंसी फोर्स मुख्यालय और राष्ट्रीय राइफल्स की दो बटालियनों वाले एक सेक्टर को पूर्वी लद्दाख से वापस बुलाया जा सकता है.
जंगली और पहाड़ी क्षेत्रों को आतंकवादियों से मुक्त करने के लिए ग्रिड की नये सिरे से तैनाती के अलावा उसमें स्पेशल फोर्स की अतिरिक्त बटालियनें शामिल की जा सकती हैं. मेरे आकलन के अनुसार, ऑपरेशन की संशोधित रणनीति को जम्मू-कश्मीर में मौजूद संसाधनों के पुनर्गठन एवं नयी तैनाती के जरिए लागू किया जा सकता है.
एक बार फिर याद दिला दें कि जम्मू-कश्मीर में हमारी वर्तमान राजनीतिक एवं सैन्य रणनीति का जोर संघर्ष के प्रबंधन पर ही है. लेकिन संघर्ष की समाप्ति के लिए अधिक साहसी राजनीतिक एवं सैन्य रणनीति की जरूरत है, और इसे लागू करने का सबसे बढ़िया समय यही है.