बांग्लादेश में राजनीतिक संकट के बाद एक बार फिर हिंदू समुदाय को सॉफ्ट टारगेट बनाया गया है. छात्रों का विरोध प्रदर्शन जल्द ही इस्लामवादियों के लिए हिंदुओं के खिलाफ हिंसा करने का बहाना बन गया. बांग्लादेश में हिंदुओं की घटती आबादी, जो 2022 में 7.95 प्रतिशत थी, इस समुदाय की दुखद दुर्दशा का स्पष्ट संकेत देती है.
भारत के एक पसमांदा मुसलमान के रूप में, मैं अक्सर देखती हूं कि भारतीय मुसलमानों की दुर्दशा के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बात की जाती है, कि हम भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार में हमारा कभी भी नरसंहार हो सकता है. यह दावा पिछले एक दशक से जारी है, जो कि साबित करता है कि यह खाली भय फैलाने के लिए है. इससे मुझे आश्चर्य होता है कि बांग्लादेश में हिंदू आबादी के ऐतिहासिक नरसंहार और चल रहे उत्पीड़न को इतनी कम मान्यता क्यों मिलती है.
5 अगस्त से अब तक हिंदुओं, बौद्धों और ईसाइयों सहित धार्मिक अल्पसंख्यकों पर 200 से अधिक हमले होने और लगभग 20 मंदिरों को नुकसान पहुंचाए जाने के बावजूद, बुद्धिजीवियों द्वारा और वैश्विक समाचार कवरेज में इसे अल्पसंख्यक उत्पीड़न के सिर्फ एक और मामले के रूप में चित्रित किया है. इस घटना का अति सरलीकरण किया जाना पीड़ितों के प्रति अन्याय है. उत्पीड़न के प्रत्येक कृत्य का अपना मूल कारण होता है और इसके ऊपर उसी के अनुसार चर्चा की जानी चाहिए. बांग्लादेश में हिंदू समुदाय के प्रति लोगों के मन में निर्विवाद रूप से घृणा का एक भाव है, और यह समझना काफी महत्वपूर्ण है कि यह भावना कहां से उत्पन्न होती है.
1971 की भयावहता
हिंदुओं को लक्ष्य करके किए जाने वाले हमले कोई नई बात नहीं है; हालांकि, जब हम 1971 के मुक्ति संग्राम के बारे में पढ़ते हैं, तो पूरा नैरेटिव अक्सर उर्दू-भाषी और बंगाली-भाषी समुदायों के बीच हुए सत्ता संघर्ष के इर्द-गिर्द घूमता है. हालांकि यह सच है कि पाकिस्तानी सेना ने 1971 में सभी धार्मिक समूहों के बंगाली राष्ट्रवादियों को निशाना बनाया था, लेकिन राजनीतिक वैज्ञानिक रौनक जहाँ ने कहा है कि “छात्रों, बुद्धिजीवियों और हिंदूओं को विशेष रूप से टारगेट किया गया.”
लगभग 30 लाख लोग मारे गए, लगभग 2 लाख महिलाओं और बच्चों के साथ तथाकथित “बलात्कार शिविर (Rape Camp)” में बलात्कार किया गया. करीब एक करोड़ लोग भागकर भारत में आ गए, जबकि अन्य 3 करोड़ लोग आंतरिक रूप से विस्थापित हुए. जैसा कि बांग्लादेशी विद्वान बीना डी’कोस्टा ने उल्लेख किया, “इमामों ने सार्वजनिक रूप से बंगाली महिलाओं को गोनिमोटर माल (सार्वजनिक संपत्ति) घोषित कर दिया, जिससे स्पष्ट रूप से पाकिस्तानी सेना के पुरुषों और उनके सहयोगियों के लिए बंगाली महिलाओं का बलात्कार करना स्वीकार्य हो गया.”
1971 और वर्तमान संकट के बीच, बांग्लादेश में धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ कई हमले हुए हैं, जिसमें 1990 भी शामिल है, जो भारत में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद भड़क गया था. ये हमले अल्पसंख्यक उत्पीड़न का मामला मात्र हैं; वे हिंदुओं और हिंदू धर्म के प्रति गहरी नफरत से उपजते हैं, क्योंकि यह धर्म एकेश्वरवादी नहीं है यानि यह ईश्वर के कई रूपों में विश्वास करता है.
अब्राहमिक धर्मों के अनुयायियों के कट्टरपंथी और चरमपंथी वर्गों, विशेष रूप से मुसलमानों के बीच हिंदुओं के प्रति आंतरिक रूप से एक तिरस्कार और घृणा का भाव व्याप्त है. इस अंदर तक बैठे हुए गहरी दुश्मनी के भाव के कारण अक्सर संघर्ष या राजनीतिक संघर्ष की स्थिति में हिंदू इसका शिकार हो जाते हैं, खासकर तब जब वे अल्पसंख्यक होते हैं. हम भारत में भी जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित छद्म युद्ध (प्रॉक्सी वॉर) में कश्मीरी हिंदुओं के पलायन में इसी पैटर्न को देखते हैं. 1979 के अफ़गान युद्ध के बाद से, अफ़गानिस्तान में हिंदुओं की संख्या में काफ़ी कमी आई है. 2021 में, अनुमान है कि हिंदू धर्म का पालने करने वाले लगभग 40-50 लोग ही बचे हैं.
भारत को हिंदुओं के लिए सुरक्षित स्थान बनाना चाहिए
थोड़ा ईमानदार बनते हैं – उत्पीड़ितों के लिए आवाज़ उठाने में कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए. किसी समूह का आकार और उसका प्रभाव अक्सर तय करता है कि कौन से मुद्दे अपनी तरफ ध्यान खींचेंगे. दुनिया के अंतिम प्रमुख बुतपरस्त समूह के रूप में हिंदू, वैश्विक भू-राजनीतिक मंच पर प्रभावी रूप से अल्पसंख्यक हैं. उनके पास बहुत कम सहयोगी हैं जो उनकी आवाज़ को तेज़ करने या सब तक पहुंचाने और हिंदूफोबिया के अस्तित्व को स्वीकार करने में उनका सहयोग कर सकें. जबकि इस्लामोफोबिया को व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है और इस पर चर्चा भी की जाती है, पर हिंदूफोबिया को शायद ही कभी कोई बात की जाती है. यह असमानता, वैश्विक चिंताओं को जिस तरह से प्राथमिकता दी जाती है, उसके बारे में एक महत्वपूर्ण और परेशान करने वाले अंतर को उजागर करती है.
हकीकत यह है कि दुनिया भर में सताए जा रहे हिंदुओं के लिए भारत ही एक मात्र उम्मीद है. इस सच्चाई को स्वीकार करने का अल्पसंख्यक विरोधी होने से कोई लेना-देना नहीं है. नीतियां और कानून आम तौर पर जमीनी स्तर पर समस्याओं को हल करने के लिए बनाए जाते हैं, लेकिन जब हमें ईमानदारी से समस्या को स्वीकार करने की भी अनुमति नहीं होती है, तो हम बहुत जरूरी समाधान लागू नहीं कर सकते हैं. पड़ोसी देशों में इस्लामी शासन से इन सताए जा रहे अल्पसंख्यकों की रक्षा करने का तरीका खोजने के लिए नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) में संशोधन आवश्यक है. समस्या को पहचानना और उन्हें वह शरण और सहायता प्रदान करने की दिशा में पहला कदम है जिसकी उनकी सख्त जरूरत है.
(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय अमाना एंड खालिद’ नामक एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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